बनारस में समाजवादी आंदोलन की मुखिया और काशी हिंदू विश्वविद्यालय की छात्र नेता डॉ. शकुंतला शुक्ल का बीते दिनों देहान्त हो गया। उन्हें दूसरी बार मस्तिष्काघात हुआ था। डॉ. शुक्ल के चाहने वालों की लंबी फेहरिस्त है। अपनी बहनजी, बुआ और दीदी के निधन से पूरा बनारस शोकाकुल है। बहुत से लोगों ने लिखित श्रद्धांजलि दी है। मीडियाविजिल डॉ. शकुंतला शुक्ला को नमन करते हुए कुछ चुनिंदा स्मृतिशेष प्रकाशित कर रहा है।
…और बनारस का लंका थाना फूंक दिया गया
आवेश तिवारी
वो गरजदार आवाज, वो शेरनी की चाल, वो रुआब, वो बनारसी पान, वो बनारस का पानी। क्या लेखक, क्या साहित्यकार, क्या गुंडे, क्या नेता, सबके लिए बहिन जी थी मेरी बुआ डॉ शकुंतला शुक्ला। मुझे याद है एक वक्त उनके पर्स में हमेशा हेनरी रिचर्डसन का रिवाल्वर रहा करता था, रिवाल्वर न भी रखती तो उनकी आवाज काफी थी। हम सभी जानते थे कि रंगबाजी के शहर बनारस में उन्होंने जीने का अपना तरीका ईजाद कर रखा था। सैकड़ों पुरुषों की एक टोली हमेशा उनके पीछे इसलिए खड़ी रहती थी क्योंकि उन्हें यकीन था कि सबसे आगे मोर्चा वो लेंगी और वो लेती थीं।
मेरी पहली स्मृति जो मेरी बुआ से जुड़ी है, उसमें वो पढ़ती हुई दिखती हैं। उनके घर की लाइब्रेरी में जितनी किताबें हैं उनसे ज्यादा किताबें उनके दिमाग मे कैद थीं। संगीत, साहित्य, कला, रंगमंच, सब पर उनका जबरदस्त अध्ययन था। उन्हें कभी बजाते या गाते नहीं सुना लेकिन एक भी सुर गलत लगा नहीं कि वो गाने वाले की ऐसी की तैसी कर देती थीं। आज भी देखता था कि व्योमेश कई बार उनसे पूछे, अम्मा इसका मतलब क्या है? अम्मा को पता रहे। उनको कत्तई नहीं पसंद था कि उनका अपना हो या पराया कोई भी उदास हो, दुखी हो| एक बार आज से 12 साल पहले मई की धूप में वो रिक्शे से आ रही थी, तेज लू थी, रिक्शे वाले के सर पर कुछ नहीं था। उन्होंने रिक्शे वाले को तेजी से हड़काया, “अरे दोगलवा कुछ बाँध ले।”” रिक्शावाला मुस्कुराया और रिक्शा खड़ा करके भीतर रखे गमछे को निकाला और बाँध लिया।
मेरे पिता मेरी बुआ के केवल छोटे भाई नहीं थे, समाजवादी मित्र भी थे। एक बार बनारस में राजनारायण के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन में समाजवादियों की पुलिस ने जमकर पिटाई की। पिता और बुआ बनारस की गलियों से होते हुए जैसे तैसे निकले। रास्ते में पिता ने कहा, “मैं थाना फूँकने जा रहा हूँ।” बुआ ने कहा फूंक दो- और बनारस का लक्सा थाना पिता ने फूंक दिया। बीएचयू में प्रशासनिक उत्पीडन के खिलाफ परीक्षाओं के बहिष्कार का फैसला लिया गया लेकिन प्रशासन परीक्षा कराने पर आमादा था। भारी पुलिसबल तैनात कर दिया गया और छात्रों को छात्रावास से जबरदस्ती लाकर हाल में बैठा दिया गया वो हिंदी संकाय के परीक्षा हाल में घुसी और नारे लगाते हुए सभी छात्रों की कापियां उठाईं और लाठी डंडों के बीच बाहर निकल आईं। परीक्षा रद्द हो गई|
समाजवादी आंदोलन की मुखिया को सलाम
चंचल
सलाम करो, झुकाया है आसमान को इसने आज आखिरी यात्रा पर है।
काशी विश्वविद्यालय की एक छात्र नेता डॉ शकुंतला शुक्ला छात्र आंदोलन के तमाम पन्ने बनारस की गलियों में, सड़कों पर बिखेर कर खुद निकल गईं अंतिम यात्रा पर। प्रसिद्ध मजदूर नेता और हेराल्ड के एसोसिएट एडिटर सुधींद्र शुक्ला की पत्नी और प्रसिद्ध लेखक व्योमेश शुक्ला की माँ का परिवार बहुत बड़ा था।
समाजवादी नेता को हम झुक कर अदब से सलाम करते हैं। दीदी! जब भी बनारस में कोई युवजन मुट्ठी भींच कर नारा देगा, हर जोर जुर्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है, तब तुम वहां खड़ी मिलोगी दीदी।
72 की बात है। कविता पोस्टर प्रदर्शनी करनी थी। हम तीन जन के फितूर से यह सड़क प्रदर्शनी की रूपरेखा तैयार हुई थी। धूमिल, नरेंद्र नीरव और हम। कविता और कवि तो मिल गए पर कागद कहां से मिले। यही सवाल हल करने के लिए हम दो जन मैं और नरेंद्र नीरव जी दीदी के घर गए थे। दीदी यानी डॉ शकुंतला शुक्ला।
समाजवादी आंदोलन की मुखिया। यह हमारी पहली मुलाकात थी। आज वो नहीं रही। दुखद खबर।
क्योंकि मेरे शीश पर आँचल नहीं है
पंकज चतुर्वेदी
कल का दिन दोहरा दुर्भाग्य लेकर आया था। सुबह शीर्ष कवि कुँवर नारायण की विदाई हुई, तो देर रात प्रिय युवा कवि व्योमेश शुक्ल की माँ डॉ. शकुन्तला शुक्ल नहीं रहीं।
वह बहुत जीवट से भरी हुई, बुद्धिमत्ता, संवेदनशीलता, स्वाभिमान, कर्तव्यनिष्ठा और वात्सल्य की सजीव प्रतिमूर्ति थीं। व्योमेश जब बहुत छोटे थे, आकस्मिक हृदयाघात से उनके पिता दिवंगत हो गये थे। इसलिए माँ ने दोहरी ज़िम्मेदारी निभाते हुए उनके प्रतिभावान् व्यक्तित्व को गढ़ा और विकसित किया, अपने ममतामय आँचल में इस तरह कि उन्हें कभी धूप लगने नहीं दी। हाँ, जहाँ ज़रूरत हुई, वहाँ धूप से बचाया भी नहीं, भरसक उसमें जाने और अपनी मूल्यनिष्ठ युयुत्सा को माँजने और आज़माने की आकाशधर्मी स्वतंत्रता प्रदान की।
व्योमेश की रचनाधर्मिता में जो तेजस्विता, सौंदर्य और छलछलाता हुआ जीवन है, वस्तुतः उनकी माँ ही उस सबकी आधारशिला हैं। 2009 में प्रकाशित हुए अपने कविता-संग्रह ‘फिर भी कुछ लोग’— जो बीते तीन दशकों में छपे सर्वश्रेष्ठ कविता-संग्रहों में-से एक है— को माँ को समर्पित करते हुए उन्होंने लिखा है : ”माँ… डॉ. शकुन्तला शुक्ल के लिए, जो सब कुछ के होने के तर्क या प्रमाण की तरह हैं।”
वह मेरी भी माँ सदृश थीं। कठिन समय में उन्होंने एकाधिक बार मुझे सहारा दिया, अपने घर में शरण दी। एक बार फ्रैक्चर के कारण मेरे पैर का ऑपरेशन हुआ और मैं कुछ अवसाद में था, तो उन्होंने फ़ोन पर यह शे’र सुनाकर हौसला बँधाया, जो मुझे भूलता नहीं है :
”गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में
वो तिफ़्ल क्या गिरे, जो घुटनों के बल चले।”
कविता के अलावा व्योमेश के रंग-निर्देशन में जो आकर्षण और गरिमा है, उसकी बुनियाद में भी साहित्य और संस्कृति की उदात्त आभा से अनुप्राणित उनकी माँ का कल्पनाशील व्यक्तित्व है। ‘कामायनी’, ‘राम की शक्ति-पूजा’, ‘रश्मिरथी’, ‘चित्रकूट’ और ‘पंचरात्रम्’ सरीखी नायाब नाट्य-प्रस्तुतियाँ हिंदी जगत् न देख पाया होता, अगर माँ ने इन सबके लिए अपनी अनथक मेधा और अध्यवसाय का अवलंब न दिया होता और जगतगंज, बनारस में ‘रूपवाणी’ नामक रंग-संस्था की स्थापना न की होती।
उन्होंने बहुत संघर्ष किया, पर उसके विषाद को औरों पर ज़ाहिर न होने दिया। वह बहुतों के लिए बहुत-कुछ करती रहीं, मगर पीड़ा के साथ नहीं, बल्कि हँसते हुए… आत्मदान भी तभी सार्थक है, जब वह प्रसन्नता से किया गया हो।
माँ काफ़ी समय से बीमार थीं। उन्होंने कभी बताया नहीं, पर बहुत थक गयी थीं। इसलिए विश्राम करने चली गयीं, एक ऐसे निविड़ एकांत में, जहाँ कोई जा नहीं सकता और जहाँ से कोई लौटता भी नहीं है। मीर के शब्दों में: ”या’नी रात बहुत थे जागे, सुब्ह हुई आराम किया।”
ऐसी विशाल-हृदया माँ को खोकर भला किसे संताप नहीं होगा? उन्होंने व्योमेश को सामर्थ्य और सुंदर कल्पना का आकाश दिया है, जिसमें वह अपने नये उत्कर्ष को हासिल कर सकें। जैसे साहस, सौजन्य और कर्मण्यता की वह देवी थीं, यही उनके सपनों से न्याय भी होगा।
मगर बिलकुल अभी की हक़ीक़त व्योमेश और उनके मेरे जैसे साथियों के लिए जो है, उससे सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के शब्द याद आते हैं :
”एक मैं ही हूँ कि मेरी साँझ चुप है
एक मेरे दीप में ही बल नहीं है
एक मेरी खाट का विस्तार नभ-सा
क्योंकि मेरे शीश पर आँचल नहीं है”