प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ जैसी किताब लिखकर इतिहास को भले ही समृद्ध किया हो, लेकिन लोगों में इतिहास के प्रति दिलचस्पी तो मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही जगाई है। इसके लिए देश की नौजवान पीढ़ी को ख़ासतौर पर उनका आभारी होना चाहिए। वे अपने भाषणों में अगर यक़ीन से परे दावों की मुसलसल धार न छोड़ते तो लोग इतिहास के मूल पाठ की खोज शायद ही करते। इससे पहले स्वतंत्रता आंदोलन के तमाम नायकों के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार की खिचड़ी धीमी आँच पर पक रही थी, लेकिन मोदी राज में सामने आए व्हाट्सऐपी ईंधन से यह आँच इतनी तेज़ हुई कि खिचड़ी जल ही गई।
हमने पहली बार जाना कि सुभाषचंद्र बोस की बेटी के लिए नेहरू ने हर महीने आर्थिक मदद की व्यवस्था कराई थी। वैसे अगर नेताजी के परिवार ने स्वीकार न किया होता तो शायद बहुत लोग यह भी न मानते कि उन्होंने किसी से विवाह भी किया था या एक एक बेटी के पिता भी थे।
नेता जी के प्रेम और विवाह की यह कहानी भी दिलचस्प है।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस, इलाज के लिए 1934 में आस्ट्रिया की राजधानी विएना में थे जहाँ वे खाली वक्त का इस्तेमाल अपनी किताब ‘द इंडियन स्ट्रगल’ लिखने में कर रहे थे। मदद के लिए उन्हें एक टाइपिस्ट की ज़रूरत थी। 23 साल की एमिली शेंकल का चुनाव इसी काम के लिए हुआ था। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम के इस 37 वर्षीय नायक के सीने में एक दिल भी था, जो अपने से 14 साल छोटी एमिली के प्यार भरे स्पर्श से धड़क उठा। ‘स्वदेश’ और ‘स्वदेशी’ में पगे नेताजी की नज़र में ‘विदेशी’ से प्यार या शादी कोई गुनाह नहीं था। 26 दिसंबर, 1937 को, एमिली के 27वें जन्मदिन पर ऑस्ट्रिया के बादगास्तीन में दोनों ने शादी कर ली। लेकिन उन्हें साथ रहने का अवसर कम ही मिला। वे जल्दी ही भारत लौट आए जहाँ कांग्रेस के अध्यक्ष की कुर्सी उनका इंतज़ार कर रही थी।
स्वतंत्रता आंदोलन की व्यस्तताओं के बीच नेताजी का विदेश जाना कम ही हो पाता था, फिर भी एमिला को लिखी चिट्ठियाँ उनके गहन प्यार की गवाही देती हैं। 29 नवंबर, 1942 को उनकी बेटी अनीता का जन्म हुआ। वे अपनी संतान को देखने गए और वहीं से अपने बड़े भाई शरतचंद्र बोस को ख़त लिखकर इसकी जानकारी दी।
अफ़सोस, वहाँ से लौटकर नेताजी सुभाष जिस मिशन पर निकले, उससे कभी लौट कर नहीं आए। एमिली बोस 1996 तक जीवित रहीं और उनकी बेटी अनीता ने एक मशहूर अर्थशास्त्री के रूप में पहचाान बनाई। ( ऊपर की तस्वीर में पिता की तस्वीर के साथ अनीता खड़ी हैं।)
ज़ाहिर है, एमिली ने सिंगल मदर के रूप में काफ़ी कठिनाइयों के बीच अकेली बेटी को पाला । लेकिन अब हमें पता है कि एक शख्श ऐसा था जो नेता जी के परिवार को लेकर हमेशा चिंतित रहा। वे थे जवाहर लाल नेहरू, जिन्हें सुभाष का विरोधी बताने का पूरा अभियान चलाया गया है। जबकि दोनों ही काँग्रेस के समाजवादी खेमे के नेता थे। कोई निजी मतभेद नहीं था। सुभाषचंद्र बोस की ‘सैन्यवाद प्रवृत्ति’ को गाँधी और उनके अनुयायी उचित नहीं मानते थे। लेकिन सुभाष हमेशा वैचारिक रूप से नेहरू को अपने करीब पाते थे। नेहरू ने सुभाष के दुबारा कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के बाद कार्यसमिति से इस्तीफ़ा भी नहीं दिया था, जैसा कि पटेल समेत 12 गाँधी अनुयायियों ने किया था पर वे गाँधी की दृष्टि को ज़्यादा महत्वपूर्ण मानते थे। यह नेहरू के प्रति सम्मान ही था कि जब सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज बनाई तो एक ब्रिगेड का नाम नेहरू के नाम पर रखा। गाँधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ का संबोधन भी नेता जी ने ही दिया था जो बताता है कि वैचारिक विरोध के बावजूद वे गाँधी जी की महानता के किस क़दर क़ायल थे।
और नेहरू ने क्या किया..। ये तो सब जानते हैं कि लालकिले पर आज़ाद हिंद फौज के अफ़सरों के ख़िलाफ़ चले मुकदमे के लिए उन्होंने वचावपक्ष के वक़ील का चोगा पहना था, लेकिन सुभाष के प्रति उनके निजी प्रेम का खुलासा तो मोदी जी की वजह से हो पाया।
मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद रहस्यमय ‘बोस फ़ाइल्स’ के सार्वजनिक होने का बड़ा हल्ला मचा था। जनवरी 2016 में कई फ़ाइलें सार्वजनिक की गईं तो पता चला कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) ने 1954 में नेताजी की बेटी की मदद के लिए एक ट्रस्ट बनाया था, जिससे उन्हें 500 रुपये प्रति माह आर्थिक मदद दी जाती थी। दस्तावेजों के मुताबिक, 23 मई, 1954 को अनिता बोस के लिए दो लाख रुपये का एक ट्रस्ट बनाया गया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी. सी. रॉय उसके ट्रस्टी थे।
23 मई, 1954 को नेहरू ने एक दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए। इसमें लिखा है , “डॉ. बी. सी. राय और मैंने आज वियना में सुभाष चंद्र बोस की बच्ची के लिए एक ट्रस्ट डीड पर हस्ताक्षर किए हैं। दस्तावेजों को सुरक्षित रखने के लिए मैंने उनकी मूल प्रति एआईसीसी को दे दी है।”
एआईसीसी ने 1964 तक अनिता को 6,000 रुपये वार्षिक की मदद की। 1965 में उनकी शादी के बाद यह आर्थिक सहयोग बंद कर दिया गया। यह मत समझिए कि तब 500 रुपये महीने कोई छोटी रकम थी। बड़े-बड़े अफ़सरों को भी इतना वेतन नहीं मिलता था।
और हाँ, नेहरू जी ने इस बात का कभी ढोल नहीं पीटा। न इसका विज्ञापन हुआ और न भाषणों में कोई ज़िक्र। उनके बाद भी इसकी चर्चा काँग्रेस के किसी बड़े नेता ने शायद ही कभी की हो।