आज रीगल सिनेमा का आखिरी दिन है, आइए इसके इतिहास में झांकें…

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दिल्‍ली का प्रतिष्ठित रीगल सिनेमा आज बंद हो रहा है। कनॉट प्‍लेस स्थित दिल्‍ली के इस प्रीमियर सिनेमा में आज शाम के शो में ‘मेरा नाम जोकर’ दिखाई जाएंगी और नाइट शो ‘संगम’ के नाम रहेगा। आखिर क्‍यों? इसलिए क्‍योंकि पचास के दशक में राजकपूर और नरगिस यहां आए थे। उन्‍हें यह थिएटर बहुत पसंद था।

जिस जगह पर रीगल स्थित है, वह प्रॉपर्टी आरंभ में मशहूर पत्रकार खुशवंत सिंह के पिता और दिल्‍ली के ठेकेदार सर सोभा सिंह की हुआ करती थी। इसे 1938 में दयाल परिवार को हस्‍तांतरित कर दिया गया जब वज़ीर दयाल, जिनके नाम पर दिल्‍ली के वज़ीराबाद पुल और क्षेत्र का नाम पड़ा है, यहां सीपीडब्‍लूडी में चीफ़ एक्जिक्‍यूटिव इंजीनियर बनकर आए थे।

वॉल्‍ड सिटि के सिनेमाघरों की तरह ही रीगल की शुरुआत भी एक थिएटर के बतौर 1932 में हुई थी। आज की तारीख में भी यहां एक मंच मौजूद है जिस पर पृथ्‍वीराज कपूर का पठान और अन्‍य नाटक खेले गए थे। आज भी सदियों पुराना ग्रीन रूम यहां मौजूद है। थिएटर होने के दौर में यहां दि लंदन रिव्‍यू कंपनी और दि रशियन बैले ट्रूप के प्रदर्शन ब्रिटिश राजनयिकों और भारत के खानदानी लोगों के लिए रखे जाते थे। इसके भीतर एक बार भी हुआ करता था। इसे अंग्रेज़ी वास्‍तुकार वाल्‍टर साइक्‍स जॉर्ज ने डिज़ाइन किया था लेकिन इसकी इमारत पर मुग़लिया असर साफ़ दिखता था। यहां मेहराबें थीं और आगे वाला हिस्‍सा अर्ध गुम्‍बदाकार था। दूसरे सिनेमा अकेले खड़े होते थे जबकि रीगल हमेशा एक ऐसी इमारत में रहा जहां महंगी दुकानें रहा करती थीं।

यहां आने वालों में पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और लॉर्ड माउंटबेटन थे। दरसअल, नेहरू ने ही इसे ”दिल्‍ली के प्रीमियर थिएटर” का नाम दिया था। फिल्‍मों से जुड़े लोग किसी और सिनेमा के ऊपर रीगल को चुनते थे। राज कपूर का पसंदीदा हॉल बनने से पहले पृथ्‍वीराज कपूर इसके मुरीद थे। इसके बाद दिलीप कुमार, संजीव कुमार, शशि कपूर और हेमा मालिनी भी इसके मुरीदों में शामिल हो गए।

ज़ाहिर है, यह पसंदगी यूं ही नहीं थी। यह वह सिनेमा था जहां 1939 में गॉन विद दि विंड का भारतीय प्रीमियर प्रदर्शित हुआ था। एक बार तो नेहरू खुद रंगून से लौटते वक्‍त यहां चलाने के लिए एक फिल्‍म लेकर आ गए थे- चलो दिल्‍ली (1956)। यह फिल्‍म नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ादी की जंग पर केंद्रित थी जिसे कांग्रेस पार्टी के सदस्‍यों के लिए रीगल में प्रदर्शित किया गया था। फिल्‍म चूंकि सेंसर से नहीं गुज़री थी लिहाजा थोड़ा विवाद भी हुआ लेकिन नेहरू ने दखल देकर सब शांत कर दिया। यहां जब 20th सेंचुरी फॉक्‍स की फिल्‍म दि रोब (1953) का प्रदर्शन हुआ, तब रीगल ने पहली बार सिनेमास्‍कोप लगाया। पहले शो में खुद नेहरू उपस्थित थे।

लंबे समय तक रीगल का कोई जोड़ नहीं था। एक ऐसे दौर में जब ओडियन में भी बालकनी नहीं हुआ करती थी, रीगल में छह बॉक्‍स होते थे जिन्‍हें फैमिली बॉक्‍स कहा जाता था जहां 40 लोग बैठ सकते थे। पहले ये बॉक्‍स संयुक्‍त परिवारों की पसंद होते थे लेकिन आज इन्‍हें ‘कपल बॉक्‍स’ कहते हैं।

पुराने लोग याद करते हैं कि रीगल दशकों में बिलकुल नहीं बदला। पचास के दशक में इसके बगल में डैविकोस हुआ करता था। फिर स्‍टैंडर्ड रेस्‍त्रां खुला। यहां इतनी लंबी कतारें एडवांस बुकिंग की होती थीं कि बाहर खाने-पीने की रेहडि़यों तक पहुंच जाती थीं। कहावत थी कि जो फिल्‍म कहीं नहीं चलती, वो यहां चलती थी। यह बात सही भी थी। राज कपूर की सत्‍यम शिवम सुंदरम को वॉल्‍ड सिटि में कोई सिनेमाहॉल नहीं मिला। यहां तक कि मोती सिनेमा भी इस फिल्‍म की रिलीज़ के 35 साल बाद इसे दिखाने का साहस कर पाया, वो भी चार शो। रीगल में इसने सिल्‍वर जुबिली पूरी की। इस मामले में केवल ग़ाजि़याबाद का अप्‍सरा और चौधरी सिनेमा ही इससे टक्‍कर ले सका। दिलचस्‍प बात है कि अपने मुक्‍त दृश्‍यों के लिए आलोचित इस फिल्‍म के प्रदर्शन से पहले हॉल में हवन किया गया। उसके बाद गेंदे के फूलों की बरसात के बीच यहां शशि कपूर और ज़ीनत अमान पहुंचे थे।

सत्‍तर के दशक में जुबिली फिल्‍मों में अकेले सत्‍यम शिवम सुंदरम ही नहीं रही। इसके पहले 1973 में बॉबी आई थी जिसे देखने के लिए बच्‍चे स्‍कूल छोड़कर चले आते थे। इसके बाद 1974 में रजनीगंधा और 1975 में आई मिली कई हफ्ते तक यहां चलती रहीं। इसी दौरान 1975 में आई श्‍याम बेनेगल की निशांत और 1977 में आई अंकुर को भी यहां पर्याप्‍त दर्शक मिले। निशांत यहां 50 दिन तक चली थी।

रीगल के लिए सत्‍तर का दशक जबरदस्‍त रहा जब इसकी फिल्‍मों ने खूब कारोबार किया। अधिकतर प्रदर्शित फिल्‍में साफ-सुथरी होती थीं जिनमें हिंसा नहीं होती थी। रजनीगंधा अगर शहरी दर्शकों के लिहाज से मध्‍यमार्गी फिल्‍म थी तो मिली संवेदना के पक्ष को अपील करती थी। 1973 में आई अमिताभ बच्‍चन और जया भादुड़ी की अभिमान में रीगल ने ऐसी भीड़ देखी कि चार हफ्ते तक इसे दिखाने के फैसले को बदलकर आगे बढ़ाना पड़ गया। यहां असित सेन की सफ़र (1970) दिखाई गई तो अकेडमी अवॉर्ड पुरस्‍कृत फिल्‍म कैक्‍टस फ्लावर (1969) भी उसी हफ्ते में चलाई गई।

सत्‍तर के दशक की कामयाबी अस्‍सी के दशक में भी कायम रही जब 1987 में आई प्रतिघात और 1985 में आई पाताल भैरवी ने काफी कारोबार किया। पाताल भैरवी के तो चार शो रोजाना एडवांस में बुक रहते थे। दोनों ही फिल्‍मों के टिकट लेना काफी कठिन था क्‍योंकि काउंटर काफी कम देर के लिए खुलता। इसके मुकाबले 1983 की वो सात दिन में ज्‍यादा मशक्‍कत नहीं करनी पड़ी। अनिल कपूर और नासिरुद्दीन शाह दोनों इसे देखने रीगल में आए थे, जिन्‍होंने इसमें भूमिकाएं निभाई थीं। फिल्‍म के 100 दिन पूरा करने के बाद स्‍टाफ को वितरकों की ओर से बोनस दिया गया, जो कि 15 दिन के वेतन के बराबर था। इसके बाद के. विश्‍वनाथ की सुर संगम (1985) ने देर में तेज़ी पकड़ी लेकिन सवेरे का स्‍लॉट उसका भरा रहता था।

नब्‍बे का दशक साजन (1991), दिल आशना है (1992) और माचिस (1996) के नाम रहा। इन सभी ने काफी भीड़ खींची। कुल मिलाकर 658 सीटों वाले इस हॉल की रंगत हालांकि अब पचास या साठ के दशक जैसी नहीं रह गई थी। उस दौर में एक फिल्‍म को देखना अपने आप में एक अनुभव होता था। कुछ लोग तांगे से आते, तो कुछ अमीर लोग शॉफर वाली कार से आते थे जो सीधे पोर्टिको में रुकती थीं। प्रवेश द्वार पर ताड़ के पेड़ों की कतार होती थी, जहां से स्‍टाफ वीआइपी दर्शकों को साथ लेकर भीतर जाता था।

रीगल के सामने कोई प्रतिद्वंद्वी ठहर नहीं सका क्‍योंकि यहां वी. शांताराम की दो आंखें बारह हाथ (1958) और दहेज (1950) से लेकर गुरुदत्‍त की प्‍यासा (1957) और काग़ज़ के फूल (1959), महबूब खान की अंदाज़़ (1949) और मदर इंडिया (1957), सोहराब मोदी की शीश महल (1958) तक तमाम फिल्‍में प्रदर्शित की गईं। आखिर में इस हॉल का ऐसा पतन हुआ कि यहां अजीज़ सेजावल की छुपा रुस्‍तम (2001), ओनिर की बस…एक पल (2006) और रामगोपाल वर्मा की आग (2007) तक दिखायी गई। गौतम घोष की विवादास्‍पद फिल्‍म यात्रा (2006) का प्रदर्शन भी इसके स्‍वर्णिम अतीत को बहाल कर पाने में नाकाम रहा।


(यह सामग्री जिया-उस-सलाम की पुस्‍तक ‘दिल्‍ली 4 शोज़’ से साभार प्रकाशित की जा रही है। इसका अनुवाद अभिषेक श्रीवास्‍तव ने किया है)