18 जून, बलिदान दिवस पर विशेष:
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी
बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी…
सुभद्रा कुमारी चौहान की झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की शौर्यगाथा पर लिखी गयी मशहूर कविता की इन पंक्तियों को किसने नहीं सुना होगा। सिर्फ़ 29 साल की उम्र में 18 जून 1858 को स्वतंत्रता के लिए बलिदान हो जाने वाली रानी लक्ष्मीबाई का नाम भारतीयों के मन में गौरवभाव जगाता है। लेकिन इस कविता की अगली पंक्तियों में सिंधिया के अंग्रेज़ों के समर्थन की वो गाथा भी लिखी है, जिसने 1857 की क्रांति को असफल किया। रानी लक्ष्मीबाई को घेरने गये जनरल ह्यो रोज़ और दूसरे अफसरों के बीच हुए पत्रव्यवहार में साफ़ लिखा है-
“अगर सिंधिया ने बग़ावत का साथ दिया तो अंग्रेज़ों को बोरिया-बिस्तर बाँधना पड़ेगा!”
1857 में सिंधिया ने क्या किया
आइये पहले जानते हैं कि 1857 में ठीक-ठीक हुआ क्या था। दरअसल, झांसी में हुए भीषण युद्ध के बाद रानी लक्ष्मीबाई वहाँ से निकलने में कामयाब हो गयीं। उधर तात्या टोपे को भी हार का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में इरादा ग्वालियर से मदद लेने का बना। सिपाहियों में फैली क्रांति की चिंगारी ग्वालियर के सैनिकों में भी फैल चुकी थी। ज़ाहिर है, अंग्रेज़ों की कृपापात्र जयाजी राव में घबराहट थी। उसने छल से तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई को पकड़ने की योजना बनायी और आठ हजार घुड़सवार लेकर बहादुरपुर गाँव पहुँचा। लेकिन वहाँ उसकी सेना के ज्यादातर सिपाही, भारतीय पक्ष से मिल गये (तात्या टोपे के संपर्क और प्रयास का नतीजा था) और सिंधिया को अपने अंगरक्षकों के साथ जान बचाकर भागना पड़ा। ग्वालियर पर क्रांतिकारियों का कब्जा हो गया। एक भारी-भरकम जश्न के बीच नाना साहब को पेशवा घोषित किया गया।
यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि ग्वालियर के ‘श्रीमंत सिंधिया’ने चाहे अंग्रेजों का साथ दिया हो, वहाँ की सेना का बड़ा हिस्सा और जनता क्रांतिकारियों के स्वागत में बिछ गयी थी। जो शासक जनाकांक्षाओं को नहीं समझ पाता उसे भागना ही पड़ता है।
वैसे सच्चाई यह है कि साढ़े पाँच सौ से ज़्यादा रियासतों में बंटी रियासतों वाले भारत के हर शासक का मक़सद किसी भी तरह अपने राज को मज़बूत करना था। चाहे युद्ध हो या संधि, सबका फ़ैसला इसी एक लक्ष्य को ध्यान में रखकर होता था। औद्योगिक क्रांति के लाभों और नई तकनीक की ताकत पर सवार अंग्रेजों ने इन्हीं राजों के स्वार्थ को अपनी शक्ति बनाकर भारत को गुलामी की बेड़ी से जकड़ दिया था। पर ब्रिटिश भारत से अलग रियासती भारत इस लिहाज़ से आज़ाद भी था कि वहाँ के शासक को लूट-खसोट और अत्याचार की पूरी आज़ादी थी। सिंधिया ही नहीं, ज्यादातर रियासतदार इसी स्वार्थ से संचालित था। ओरछा और दतिया के राजपूत राजाओं ने भी रानी झाँसी के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी। सच यह है कि आज के ज़माने में जो भी किसी पूर्व रियासत के शासक होने की वजह से ख़ुद को राजा-महाराज लिखते हैं, उनमें ज़्यादातर वही हैं जिनके पुरखों ने 1857 में अंग्रेज़ों का साथ दिया। क्रांति में शामिल होने वालों की तो रियासतें छीन ली गयीं थीं। 1911 में जब दिल्ली में ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम का दरबार लगा तो कोर्निश करने के लिए भारतीय रजवाड़ों में होड़ लग गयी थी।
वैसे, 1857 के विद्रोही राजाओं के अंग्रेजों से चले पत्रव्यवहार भी यही साबित करते हैं कि उन्हें संपूर्ण भारत पर अंग्रेज़ी राज से कोई दिक़्कत नहीं थी बशर्ते उन्हें अपने इलाके में राज करने की इजाज़त करने दी जाये और उत्तराधिकार पर सवाल न उठाया जाये। क्रांति में अद्भुत शौर्य दिखाने वाली रानी झाँसी ने भी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को वारिस मान लेने के लिए अंग्रेज़ों से काफी विनम्र भाषा में पत्र व्यवहार किया था। अंग्रेजों के साथ झांसी के पुराने संबंधों का हवाला दिया था। जब अंतिम आशा टूट गयी तब वे विद्रोहियों से मिल गयीं। उनकी यह घोषणा भी बहुत कुछ कहती है- मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।
सिंधिया कौन हैं
सिंधिया मूलत महाराष्ट्र के सतारा जिले के कन्हेरखेड गाँव के रहने वाले सामान्य परिवार के लोग थे। रानोजी सिंधिया 1720 में मराठा सेना में भर्ती हुए और बाद में पेशवा बाजीराव के मशहूर जनरल बने। मराठा साम्राज्य के विस्तार में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। 1730 में मालवा विजय के बाद एक तिहाई हिस्सा रानोजी को मिला। बाकी दो इंदौर के होल्कर और धार के पवार को दिया गया। इस तरह सिंधिया एक राजघराने के रूप में अस्तित्व में आया। उज्जैन को राजधानी बनाया गया जो हिंदुओं की पवित्र कुंभनगरी थी। इससे इस घराने की प्रतिष्ठा बढ़ी। रानोजी के बेटे महादजी सिंधिया ने देश के विभिन्न स्थानों पर घाट और मंदिर बनवाये और हिंदुओं के संरक्षक प्रसिद्ध हुए। 1857 की क्रांति की असफलता के बाद अंग्रेजों ने सिंधिया को काफी इनाम और सम्मान दिया जिसने मध्य भारत में ग्वालियर को सबसे ताकत वर रियासत बना दिया। बनारस के मशहूर घाट इसी वक्त सिंधिया को सौंपे गये।
सिंधिया और आरएसएस
पिछले दिनों ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में आने से आह्लादित बीजेपी नेताओं ने अगर इसे घर वापसी बताया था, तो कुछ ग़लत नहीं था। दरअसल, ग्वालियर रियासत ने आरएसएस को खड़ा करने में बेहद अहम भूमिका अदा की है। और यह सिलसिला राजमाता विजयराजे सिंधिया के पहले से शुरू हो गया था।
1915 में महात्मा गाँधी के भारत लौटने के बाद राजनीतिक परिदृश्य बदलने लगा था। कांग्रेस अर्ज़ी लिखने वाले क्लब से आम जनता के मंच में बदलने लगी तो रियासतों के कान खड़े होने लगे। 1920 में असहयोग आंदोलन की लहरें उठीं तो सिंधिया राज ने किसी तरह की राजनीतिक गतिविधि और संगठन पर रोक लगा दी। 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन हुआ। आरएसएस का मुख्यालय नागपुर में था लिहाजा देश के उन हिस्सों में जहां महाराष्ट्र के लोग थे, सबसे पहले उसके संपर्क में आये। सिंधिया अपने मराठी मूल से जुड़े थे। यह पूरा इलाका आरएसएस के लिए मुफीद साबित हुआ। सिंधिया राजघराने से उसे काफी सहयोग प्राप्त हुआ। 1936 में आरएसएस की पहली शाखा उज्जैन में लगी। इस समय तक ‘ग्वालियर स्टेट कांग्रेस’ का असर भी बढ़ रहा था जिसे रोकने के लिए सिंधिया राजघराने ने आरएसएस को खासतौर पर मदद दी। उसके आर्थिक सहयोग से आरएसएस को पूरे मध्यभारत में विस्तार करने में खासतौर पर कामयाबी मिली।
(महात्मा गांधी की हत्या में इस्तेमाल की गयी 9 मि.मि. कि इटैलियन बेरेटा पिस्तौल भी नाथूराम गोडसे को ग्वालियर को हिंदू महासभा लीडर, डा.परचुरे ने मुहैया करायी थी।)
1951 में पहले लोकसभा चुनाव में देश में कांग्रेस की आंधी थी लेकिन ग्वालियर सीट से हिंदू महासभा अध्यक्ष एन.बी.खरे चुने गये जबकि नागपुर सीट से उन्हें पराजित होना पड़ा जहाँ आरएसएस का मुख्यालय था।
सिंधिया और कांग्रेस
आज़ादी के पूर्व सिंधिया घराना पूरी तरह अंग्रेजों के साथ रहा या फिर कांग्रेस की तोड़ के लिए आरएसएस को समर्थन देता रहा लेकिन आज़ादी के बाद देश की बागडोर सम्हालने वाले नेहरू ने समन्वय की नीति अपनायी। हिदू महासभा के अध्यक्ष रहे और कांग्रेस के कट्टर विरोधी श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया दूसरी तरफ़ विंध्य-मालवा क्षेत्र में कांग्रेस को मजबूत करने के लिए 1957 में विजय राजे सिंधिया को कांग्रेस का लोकसभा टिकट दिया गया। विजय राजे सिंधिया दो बार कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंचीं पर मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र से उनकी नहीं पटी जो राजे-रजवाड़ों को पसंद नहीं करते थे। आखिरकार 1967 में विजयराजे सिंधिया ने कांग्रेस के 36 विधायकों को तोड़कर जनसंघ के सहयोग से मध्यप्रदेश में नयी सरकार बनवा दी। यह देश की पहले संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकार थी। 1971 में विजयराजे सिंधिया जनसंघ में शामिल हो गयीं और इस साल हुए चुनाव में इंदिरा गांधी की लहर के बावजूद इस इलाके की तीनों सीटें जनसंघ को मिलीं। विजय राजे सिंधिया, उनके बेटे माधवराव और अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ के टिकट पर लोकसभा पहुँचे।
बाद में माधव सिंधिया कांग्रेस में शामिल हो गये। उनका आरोप था कि आरएसएस उनकी माँ को वश में करके तमाम संपत्ति पर कब्जा कर रहा था। उधर, विजयराजे सिंधिया ने माधवराव से सारे संबंध तोड़ लिये। 1980 में उन्होंने इंदिरा गाँधी के खिलाफ रायबरेली से चुनाव लड़ा पर हार गयीं। विजय राजे सिंधिया बीजेपी के गठन के साथ ही पार्टी में शामिल हो गयीं और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहीं।
सिंधिया और आज
बहरहाल, आज सिंधिया राजघराना पूरी तरह भगवा झंडे तले है। विजय राजे सिंधिया की बेटियां वसुंधरा राजे (पूर्व मुख्यमंत्री, राजस्थान), यशोधरा राजे (पूर्वमंत्री, मध्यप्रदेश) और चार बार के कांग्रेस सांसद, पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी के साथ हैं। बीजेपी इस समय सर्वशक्तिमान स्थिति में है जैसे कभी अंग्रेज़ लगते थे और इतिहास बताता है कि सिंधिया का अपना ‘राज’ सुरक्षित रहे तो फिर उन्हें किसी के राज के साथ जाने में दिक़्कत नहीं होती।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के स्वागतसमारोह में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें विभीषण की संज्ञा दी थी। यही संज्ञा सिंधिया को 1857 में दी गयी थी। बहरहला, सिंधिया को फ़र्क़ नहीं पड़ता। वे आज में जीते हैं और आज के लिए सबसे ज़रूरी है ‘राज’ जिसे वे हर हाल में बरक़रार रखना चाहते हैं। जयाजी राव से लेकर ज्योतिरादित्य तक सिंधियाओं की यही कहानी है।
और आरएसएस?..उसके लिए तो लक्ष्मीबाई से द्रोह करने वाला सिंधिया घराना हमेशा से शरणदाता रहा है, आज भी है…पूरी तरह!