बीते दस सालों में हिंदुस्तान का मीडिया जगत पूरी तरह बदल गया है। हाल के वर्षों में अखबार या टीवी पूरी तरह ‘प्रोडक्ट’ में बदल गये हैं जिसे किसी भी कीमत में बेच लेना अस्तित्व की शर्त है। भूख, अभाव और किसानों की आत्महत्याओं से बिलबिलाते इस महादेश में उपभोक्ताओं की जरूरत उस तीस करोड़ के ईएमआई ग्रस्त मध्यवर्ग से आसानी से पूरी हो जाती है जो अखबारों के नेट एडिशन की हेडिंग में ‘सेक्स’ शब्द देखते ही उत्तेजना से कांपने लगता है। इस शब्द को हर खबर की हेडिंग में डाल देने की क्षमता वाले कारीगर सिद्ध पत्रकार माने-जाने लगे हैं।
जनवरी 2015 की उस सर्द रात करीब साढ़े दस बजे नोएडा की एक्सप्रेस बिल्डिंग से बाहर निकलते हुए मुझे उस हिंसा का भरपूर अहसास हो रहा था जिसकी ओर चॉमस्की दशकों से इशारा कर रहे हैं। यह हिंसा उन सुरक्षाकर्मियों ने नहीं की थी जिनकी घेरेबंदी में मुझे आईबीएन 7 से बाहर का रास्ता दिखाया गया था और न ही इसके लिए वह प्रबंधतंत्र जिम्मेदार था जिसने मुझे बिना कोई कारण बताये बर्खास्तगी का पत्र थमाया था। यह हिंसा कॉरपोरेट के साथ नत्थी पत्रकारिता (एम्बेडेड जर्नलिज्म) को विकास की पहली शर्त बताने वाले उसी विचार की ओर से हुई थी जिसका मजबूत रिश्ता मुंबई के एंटीलिया (मुकेश अंबानी का चर्चित गगनचुंबी महल) से लेकर दिल्ली के 7 रेसकोर्स (प्रधानमंत्री आवास) तक है। साल भर होने को हैं, लेकिन किसी फिल्म की रील की तरह सबकुछ आंखों के सामने चलता रहता है। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद आईबीएन 7 के संपादकीय विभाग को रिलायंस के लोगों ने सीधे नियंत्रण में लिया और इसी के साथ “विचारों पर पहरे बैठाने” का सिलसिला शुरू हो गया। हालांकि मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने नेटवर्क 18 के सभी चैनलों (जिनमें दस से ज्यादा ईटीवी के क्षेत्रीय चैनल भी हैं) का अधिग्रहण चुनाव के पहले ही कर लिया था, लेकिन शायद लोकसभा चुनाव के परिणाम का इंतज़ार हो रहा था। चुनाव तक आईबीएन 7 डंके की चोट वाली अपनी घोषित अदा के साथ ही काम कर रहा था, लेकिन मोदी की जीत के साथ माहौल बदला। चैनल के एडिटर इन चीफ राजदीप सरदेसाई ने आने वाले दिनों की आहट को महसूस करते हुए चैनल से विदा ले ली और इसी के साथ जैसे सारे बांध टूट गये।
मीडिया एक ऐसा बाजार तंत्र है जिसकी दिशा, ‘लाभ’ तय करता है। मालिक, मीडिया की विषय-वस्तु तय करता है और यह प्रोपेगंडा किया जाता है कि इस विषय पर जनता के बीच सहमति है। विज्ञापन, सहमति बनाने और विचार को नियंत्रित करने में अपनी भूमिका निभाता है। दरअसल, तानाशाही शासन में जो भूमिका हिंसा की होती है, वही भूमिका पूंजीवादी लोकतंत्र में प्रोपेगंडा की है – नोम चॉमस्की (“मैन्यूफैक्चरिंग कन्सेंट” के लेखक और मशहूर अमेरिकी विचारक)
किसी भी चैनल या अखबार की दशा और दिशा का सबसे बड़ा प्रमाण उसकी दैनिक संपादकीय बैठकें होती हैं। इन्हीं बैठकों में होने वाली तीखी बहसों में संवाददाताओं की ओर से भेजी गई खबरों का रेशा-रेशा उधेड़ा जाता है। तथ्यात्मकता और वस्तुनिष्ठता की कसौटियों पर खरा उतरने के बाद ही किसी खबर को छापने या दिखाने लायक माना जाता है। कहा तो यह भी जाता है कि संपादकीय टीम का जोर, तमाम कमजोरियां खोजकर किसी खबर को खारिज करने पर होना चाहिए। अगर ऐसा न हो सके, तभी खबर होती है। ऐसा नहीं है कि किसी समाचार माध्यम की कोई अपनी नीति नहीं हो सकती। बिलकुल हो सकती है। यहां तक कि वे किसी राजनीतिक दल के समर्थक भी हो सकते हैं जैसा कि दुनिया के तमाम देशों में होता है, लेकिन पाठकों या दर्शकों को इसकी सूचना होनी चाहिए और समर्थन का आधार नीतियां (पेड न्यूज़ नहीं) होनी चाहिए। साथ ही, इसका असर खबरों की वस्तुनिष्ठता पर नहीं पड़ना चाहिए और तमाम विरोधी विचारों को बराबर का मौका देना चाहिए ताकि जनता को हर पहलू की जानकारी हो सके। बहरहाल, राजदीप के जाने और न्यूजरूम के बीच बढ़ती बेचैनी में नये मालिकों की ओर से आ रहा दबाव साफ दिख रहा था। इस बीच उमेश उपाध्याय (दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय के भाई) को चैनल की कमान सौंप दी गयी। नयी टीम ने एक्सप्रेस बिल्डिंग में 7 जुलाई 2014 को टाउनहॉल (आईबीएन7 और सीएनएन आईबीएन के सभी विभागों के कर्मचारियों की आमसभा) का आयोजन किया। इस आमसभा में मैंने आज़ादी का सवाल खुल कर उठाया। सैकड़ों लोगों के सामने पूछा कि आईबीएन7 के “डंके कीचोट पर’ वाली हमारी टैगालाइन का क्या होगा…? कुछ बहस भी हुई थी जिसके अंत में कामकाज की आजादी को लेकर कुछ अमूर्त किस्म के आश्वासन दिये गये थे। बाद में कुछ सहयोगियों ने मुझे चेताया कि मैंने सवाल उठाकर गलत किया, लेकिन मैं चैनल का एसोसिएट एडिटर था और सवाल उठाने को पत्रकारिता का मूल कर्म समझता था। इसलिए ऐसी चेतावनियों की परवाह नहीं की।
मुख्तसर में आगे का किस्सा यह है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान मैंने केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को ब्लैकआउट करने को गलत बताया और उमेश उपाध्याय और सुमित अवस्थी के हाथों ‘खेत’ रहा। बाहर आकर मुझे पता चला कि टीवी पत्रकारों की ‘सेवा सुरक्षा’ जैसा मसला किसी कानून के दायरे में नहीं आता, हालांकि मैंने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया है जहां साल भर बाद भी सुनवाई का नंबर नहीं आ सका है। मेरी कहानी उस बड़ी दास्तान का छोटा सा हिस्सा है जिसने बीते दस सालों में हिंदुस्तान के मीडिया जगत को पूरी तरह बदल दिया है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले जनपक्षधरता उसकी बुनियादी मान्यता थी, लेकिन कुछ लोकतंत्र का तकाज़ा और कुछ राजनीति का दबाव कि गरीबों की बात और उनकी पीड़ा को भी जगह मिल ही जाती थी, लेकिन हाल के वर्षों में ऐसे तमाम भ्रम दूर हो गए हैं। अखबार या टीवी पूरी तरह ‘प्रोडक्ट’ में बदल गये हैं जिसे किसी भी कीमत में बेच लेना अस्तित्व की शर्त है। भूख, अभाव और किसानों की आत्महत्याओं से बिलबिलाते इस महादेश में उपभोक्ताओं की जरूरत उस तीस करोड़ के ईएमआईग्रस्त मध्यवर्ग से आसानी से पूरी हो जाती है जो अखबारों के नेट एडिशन की हेडिंग में ‘सेक्स’ शब्द देखते ही उत्तेजना से कांपने लगता है। इस शब्द को हर खबर की हेडिंग में डाल देने की क्षमता वाले कारीगर सिद्ध पत्रकार माने-जाने लगे हैं।
पिछले दिनों एक गंभीर समझी जाने वाली पत्रिका के संपादक ने जो बताया वह हिला देने वाला था। उन्होंने बताया कि अब मालिकों को इसकी परवाह नहीं है कि उनकी पत्रिका पाठकों तक पहुंचे। सारा जोर इस पर है कि मंत्रियों और आईएएस अफसरों तक यह पहुंचती रहे। एक साल में पत्रिका की ओर से तीन-चार बड़े कार्यक्रम हो जायें, जिसमें लोगों या कंपनियों को विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट काम के लिए पुरस्कृत किया जाये।
बहरहाल, ज्यादा दिन नहीं हुए जब ‘राडिया टेप’ के जरिये वह सच्चाई आम हुई थी जो यूं पांच सितारा गलियारों में आम थी। लोगों ने जाना था कि नेता, पत्रकार और कारपोरेट अब एक त्रिकोण है जो सत्ता का महावृत्त रचता है। यह पहली बार है कि मुकेश अंबानी सहित देश के तीन-चार कारपोरेट घराने आधे से ज्यादा मीडिया जगत को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नियंत्रित कर रहे हैं और यह सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। मीडिया में एफडीआई की सीमा 49 फीसदी करने के एनडीए की “राष्ट्रवादी” सरकार के फैसला कोढ़ में खाज ही साबित होगा। ऐसे में संपादकीय आजादी की बात करना किसी चुटकुले से कम नहीं है जब संपादक बनने की पहली शर्त ही ‘गुलामी’ है। कुल मिलाकर एकाधिकार का अभूतपूर्व प्रपंच रचा जा रहा है। इंग्लैंड और अमेरिका जैसे देशों में भी ऐसी छूट नहीं है। जैसे वहां अखबार, रेडियो और टीवी का संचालन एक ही कंपनी के जरिये नहीं हो सकता। या फिर चैनल चलाने वालों को वितरण के क्षेत्र में जाने पर रोक है, लेकिन यहां चैनल चलाने वालों को अपनी डिश और सेटटॉप बाक्स के जरिये लोगों के घरों का वातावरण बनाने-बिगाड़ने की इजाजत हासिल हैं। दाग़ी राजनेताओं को रात दिन कठघरे में खड़ा करने वाला मीडिया किस कदर दागी हो गया है, उसकी चर्चा अब चौराहों पर होने लगी है।
पान खाते हुए दुकान पर टंगे किसी छोटे से टीवी पर न्यूज देखते हुए पत्रकारों को गाली देना किमाम की लत बनती जा रही है। अगर किसी को कोई भ्रम रहा हो तो उसे उस लोकप्रिय हिंदी न्यूज़ चैनल की ओर एक नज़र जरूर देख लेना चाहिए जिसका संपादक एक स्टिंग आपरेशन में वसूली करते रंगे हाथ पकड़ा गया। उसे एक सहयोगी संपादक के साथ कुछ दिन जेल में गुजारने पड़े, लेकिन संस्थान में उसकी हैसियत में कोई परिवर्तन नहीं आया। जेल से निकलकर वह फिर से संपादक की कुर्सी पर विराजमान है। यही नहीं, उसे हाल ही में पत्रकारिता के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रतिष्ठित बताये जाने वाले रामनाथ गोयनका सम्मान से भी नवाज़ा गया। समझा जा सकता है कि मालिक और संपादक किस धंधे में एक साथ नत्थी हैं, वरना ऐसा दाग लगने के बाद तो किसी पत्रकार को दोबारा नौकरी नहीं मिल सकती थी।
पिछले दिनों एक गंभीर समझी जाने वाली पत्रिका के संपादक ने बताया कि अब मालिकों को इसकी परवाह नहीं है कि उनकी पत्रिका पाठकों तक पहुंचे। सारा जोर इस पर है कि मंत्रियों और आईएएस अफसरों तक यह पहुंचती रहे। एक साल में पत्रिका की ओर से तीन-चार बड़े कार्यक्रम हो जायें, जिसमें लोगों या कंपनियों को विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट काम के लिए पुरस्कृत किया जाये। इस आयोजन के नाम पर एकमुश्त बड़े विज्ञापन मिल जाते हैं। नामी लोगों के सामने, नामी लोगों के हाथों पुरस्कृत होने के लिए भी पैसा देने वालों की कमी नहीं है। इस तरह पाठकों पर निर्भरता या इसकी चिंता से पत्रिका पूरी तरह मुक्त हो जाती है जिसके नाम पर सब कुछ होता है। यह केवल एक पत्रिका की कहानी नहीं है। ज्यादातर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया समूह इस तरीके को अपना रहे हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में संपादकीय नाम की संस्था लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है। तमाम पत्रकारों ने कथित मुख्यधारा के संस्थानों को अलविदा कह दिया है और सोशल मीडिया की शरण में चले गये हैं। फिलहाल सोशल मीडिया ही वह जगह है जहां घनघोर अफवाहबाजी के बावजूद सच्चाई का एक कोना मौजूद है जहां तक गिरते-पड़ते कुछ दीवाने पहुंच ही जाते हैं, लेकिन फेसबुक और ट्विटर भी अब बड़ी कारपोरेट कंपनियां हैं जिनका एजेंडा जनता का हित नहीं, उसे नियंत्रित करने में है, यह बात अब साफ होने लगी है।
(पत्रकार पंकज श्रीवास्तव के फेसबुक पेज से )