यह गुरुवार रात दिवंगत हुए हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक दूधनाथ सिंह की डायरी का एक पन्ना है जिसे कविमित्र विवेक निराला ने उपलब्ध कराया है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक रहे दूधनाथ सिंह अपनी तरह के विलक्षण लेखक तो थे ही, जनता के पक्ष में खड़े होकर बोलने की उनकी बेबाकी भी कमाल की थी। यहाँ पढ़िए फ़ेसबुक पर आई कुछ प्रतिक्रियाएँ, जो दूधनाथ जी के होने का मतलब बताती हैं-संपादक
अभी-अभी उदय प्रकाश, वीरेंद्र यादव और सुनील की पोस्ट से पता चला, हमारे प्रिय लेखक और अध्यापक दूधनाथ सिंह जी नहीं रहे! उनकेे स्वास्थ्य को लेकर पूरा हिंदी जगत चिंतित था। सभी शुभ कामना दे रहे थे कि वह सकुशल अस्पताल से लौटें। पर कैंसर ने देश के एक महान् साहित्यकार को हमसे छीन लिया।
वह मेरे शिक्षक थे, शुभचिंतक और दोस्त भी! इलाहाबाद छोड़ने के बाद मेरी उनसे ज्यादा मुलाकातें नहीं हुईं पर दिलो-दिमाग में हमारे रिश्ते कभी खत्म नहीं हुए। उनसे फोन पर आखिरी बातचीत संभवतः डेढ़-दो साल पहले तब हुई थी, जब लखनऊ से प्रकाशित ‘तद्भव’ पत्रिका में गोरख पाण्डेय पर मेरा एक संस्मरणातमक लेख छपा। उन्होंने कहीं से मेरा नंबर खोजकर फोन किया और उस लेख के लिए बहुत खुशी जताई। कहने लगे, ‘तुम्हें टीवी पर देखते हुए अच्छा लगता है, समझ और प्रतिबद्धता का वही तेवर है। अब वह ज्यादा प्रौढ़ता के साथ नजर आता है। ठीक है कि तुम पत्रकारिता में हो और अपने काम में ज्यादा व्यस्त रहते हो पर तुम्हें गैर-पत्रकारीय लेखन भी जारी रखना चाहिए। तुम्हारा यह लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा। गोरख पर अब तक का यह श्रेष्ठ संस्मरण है! सुना, तुमने कश्मीर पर भी अच्छा लिखा है। पर वह पढ़ने को नहीं मिला!’
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि छात्रजीवन में जिन कुछेक अधयापकों ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया, उनमें दूधनाथ सिंह का नाम प्रमुख है। उन्होंने मुझे अपने लेखन और कर्म में ‘पक्षधर’ होने की प्रेरणा दी। गोरख ने इसे वैचारिक और दार्शनिक आधार देकर और मजबूत किया।
इस वक्त एक कार्यक्रम के सिलसिले में मैं महाराष्ट्र के नाशिक में हूं। दुख हो रहा है कि कि आज मैं अपने प्रिय शिक्षक और हिंदी के बेहद प्रतिभाशाली लेखक के अंतिम दर्शन से वंचित हो रहा हूं। पर मैं जब तक जीवित रहूंगा, दूधनाथ सिंह जी की स्मृतियां मेरे साथ रहेंगी। सलाम और श्रद्धांजलि मेरे प्रिय शिक्षक और साथी दूधनाथ सिंह जी!
(उर्मिलेश जी वरिष्ठ पत्रकार हैं)
92-93 के झंझावाती दिनों में जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नौजवान सांप्रदायिक फासीवादी उन्माद के खिलाफ एक कठिन लड़ाई लड़ रहे थे, जब साझी शहादत, साझी विरासत के प्रतीक तिरंगे को फासीवादी सरगना सिंघल के हाथों न जाने देने का नौजवानों ने संकल्प लिया था, तब न सिर्फ विश्वविद्यालय में बल्कि छात्रसंघ भवन पर, जो रणक्षेत्र बना हुआ था, आदरणीय दूधनाथ जी की उपस्थिति ने हमें संबल दिया था । विनम्र श्रद्धांजलि !
(लालबहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध छात्रनेता और 1993 में छात्रसंघ अध्यक्ष थे।)
अस्पताल का नाम ‘फ़ीनिक्स’ सुनकर लगा था कि अपनी ही राख से फिर जी उठनेवाले पक्षी की तरह दूधनाथ जी स्वस्थ होकर घर लौट आयेंगे, शमशेर की उस कविता की मानिंद, जो उन्हें बहुत प्रिय थी–”लौट आ ओ धार……….लौट आ, ओ फूल की पंखड़ी / फिर / फूल में लग जा !” मगर क़ुदरत को एक आह ही मंज़ूर थी—”मैं समय की एक लंबी आह / मौन लंबी आह।”
दूधनाथ सिंह हिंदी के बड़े लेखक थे। कथाकार होने के बावजूद कविता के मर्मज्ञ। निराला, पंत, महादेवी, मुक्तिबोध और शमशेर पर गहन और उत्कृष्ट काम। यह संयोग और किसकी प्रतिभा में घटित हुआ, याद नहीं पड़ता। अब लोग कह रहे हैं कि उन्होंने विधाओं की सीमाएँ तोड़कर एक नये क़िस्म का रचनात्मक लेखन संभव किया। सच यह है कि वह ये हदबंदियाँ जानते ही नहीं थे। वह ज़िंदगी में बहुत गहरे उतरे हुए रचनाकार थे, जहाँ विधागत पार्थक्य का कोई मतलब नहीं रह जाता।
एक अनूठे गद्यकार, नाटककार, कथाकार, आलोचक और कवि तथा सम्मोहनकारी वक्ता दूधनाथ सिंह का श्रेष्ठ और बहुआयामी काम मेरे जैसे पाठकों के लिए रौशनी की मीनार की तरह है, जिसके सान्निध्य में कभी भी सही राह की तलाश मुमकिन है। उन्हें बहुत सम्मान और शोहरत हासिल हुई।
इसके बावजूद कहना पड़ता है कि जो उनका प्राप्य था, वह उन्हें नहीं मिला। कुछ कमी रह गयी। एक स्पष्टवक्ता और मूल्यनिष्ठ प्रतिभा के प्रति हिंदी में आम तौर पर जो अवज्ञा का भाव रहता है, शायद वही इसकी वजह है और इसके चलते उनके व्यक्तित्व में मैत्रीजन्य मिठास के साथ नीम की पत्तियों का-सा कुछ कसैलापन रहता था। फिर भी दूसरों की रचनात्मक क्षमता को पहचानने और उसे भरसक प्रोत्साहित करने में उनका कोई सानी न था।
शायद 1999 में मार्कण्डेय जी ने मेरी एक कविता ‘उसने कहा था’ अपनी मशहूर पत्रिका ‘कथा’ में प्रकाशित की थी। दूधनाथ जी ने ‘गंगा-जमुना’ में ‘कथा’ के उस अंक की समीक्षा लिखते हुए उस एक कविता को अलग से रेखांकित किया और उसे संपादक की उपलब्धि बताया। उन दिनों मेरे लिए उनका यह अभिमत किसी पुरस्कार से कम न था और उसके सम्मान में मैंने उसे अपने दूसरे कविता-संग्रह की पहली कविता के तौर पर शामिल किया।
आभार व्यक्त करने के लिए जब मैं उनसे मिला, तो उन्होंने मुझसे सिर्फ़ एक बात कही–”तुम लिखना कभी मत छोड़ना !” एक नये रचनाकार के सामने क्या ख़तरे रहते हैं, इस विडंबना की इससे बेहतर समझ क्या होगी ! इस दुनिया में जहाँ लिखने के मामले में हताशा के ही स्रोत और सबब ज़्यादा हैं, दूधनाथ सिंह ने इस एहसास की लौ मुझमें लगायी कि लिखना अपने आप में स्पृहणीय है, उससे क्या होता है, वह एक दीगर सवाल है। काश मैं उनसे कह सकता कि उनका यह अमूल्य तोहफ़ा हमेशा मेरे साथ रहेगा।
(पंकज चतुर्वेदी प्रसिद्ध कवि हैं।)
Ashok Pande
दूधनाथ सिंह के लेखन का जो एक टुकड़ा इतने वर्षों बाद भी स्मृति में साफ़-साफ़ दर्ज रहा, वह संस्मरणों की उनकी किताब ‘लौट आ ओ धार’ में था. सबसे पहले उसी ने मुझे उनके गद्य का कायल बनाया था. अपने मित्र और अद्भुत कहानीकार-सम्पादक ज्ञानरंजन के बारे में उनका लिखा पहली बार पढ़ा था तो यही इकलौता विचार मन में आया था कि किसी के बारे में लिखते हुए कोई आदमी ऐसा तिलिस्म कैसे पैदा कर सकता है –
“उसकी (ज्ञानरंजन की) मनसबदारी पाने के लिए होड़ मची रहती है. अक्सर उसके मनसबदार दुश्मन पार्टी से आते हैं. उनमें जो कमजोर और महत्वाकांक्षी होते हैं उन्हें वह पकड़ लेता है. वह एक ऐसा साँवला, खगोलीय ग्रह है, जिसके गुरुत्वाकर्षण में अनेक छोटे-मोटे ग्रह-नक्षत्र बँधे हुए घूमते रहते हैं. सभी को उससे रोशनी चाहिए, चाहे वह जितनी भी कम, जितनी भी मैली-कुचैली क्यों न हो. इस तरह धूल और धुआँ और चमक और देह और आत्मा की स्थायी अशान्ति में वह अमर है.”
दूधनाथ सिंह नहीं रहे. हिन्दी भाषा की एक बड़ी और प्रिय आवाज़ खामोश हो गई. श्रद्धांजलि!
( कवि, अनुवादक अशोक पांडे प्रसिद्ध कबाड़ख़ाना ब्लॉग के मॉडरेटर हैं। )
Vyomesh Shukla
फिर वह दिन आया कि वह इलाहाबाद में रहकर हमारी भी थोड़ी-बहुत ख़बर रखने लगे.
फिर उनकी किताबें. मुझे आख़िरी कलाम बहुत ख़राब अनुशंसा के साथ मिली. मुफ़्त में, कि तुम इसे पढ़ नहीं पाओगे और अगर न पढ़ पाना तो बदले में एक विध्वंसक समीक्षा लिखना.
लेकिन कुछ और ही हो गया. हमने उसे बार-बार पढ़ा. हमारे दोस्तों के एक छोटे से समूह में मार्क्सवाद पर बहस वाला उसका हिस्सा किसी नाटक की तरह खेला जाने लगा.
फिर ‘निराला : आत्महंता आस्था’. फिर कवि-आलोचक मित्र अग्रज Pankaj Chaturvedi से शिमला में उनके संग साथ के संस्मरण.
निराला की कविता पर एक पसंदीदा माइक्रो आलोचना वागीश शुक्ल ने भी लिखी है. लेकिन दूधनाथजी की सर्जनात्मक फ्लाइट के सामने आज वह बहुत ठंडी, थलचर और तर्कपूर्ण दुनियादार लग रही है. यह कहने का आज कोई वक़्त नहीं है, इसीलिए इसे आज ही कहना है.
दूधनाथजी ने शक्तिपूजा में राम की याद में प्रिया सीता के आगमन को कवि की चेतना में उसकी परम अभिव्यक्ति अनिवार आत्मसंभवा की तरह पहचाना है. यह अंतर्दृष्टि, यह खोज एक मशाल की तरह हमारे भीतर जलती है. हम रोज़ इससे प्रतिकृत होते हैं. यह बात जैसे कभी न पूरी होगी. यह बात अनंत है. ऐसी कोई बात छंद छंद पर कुंकुम में नहीं है.
हम ऐसे ही, दूसरों से लड़ा-भिड़ाकर, टिपिकल हिंदी साहित्य वाले अंदाज़ में, आपको याद रखेंगे सर. आपके बिना वैसे भी हमारा काम नहीं चलेगा.
(व्योमेश शुक्ल प्रसिद्ध कवि और रंगकर्मी हैं।)
Vineet Kumar
बुकफेयर सिर्फ दूसरों की किताब खरीदने मत आया करो : दूधनाथ सिंह
आज से आठ-नौ साल पहले, यही बुक फेयर का समय था. मैं और मेरा बैचमेट उनके साथ-साथ चल रहे थे. पहले से कोई परिचय नहीं था. बस उन्होंने हमसे इतना पूछा था कि मेट्रो स्टेशन निकलने सा रास्ता किधर है और हमारी लॉटरी लग गयी थी. वो लगातार हमसे कुछ-कुछ पूछे जा रहे थे. इसी बीच हमदोनों ने धीमे से कहा- हमने आपकी किताब पढी है. उन्होंने सिर हिलाते हुए हमदोनों की तरफ देखा.
मेरे बैचमेट की कद-काठी मुझसे ज्यादा समृद्ध थी. अब तो और हो गयी है. लिहाजा उससे अचानक से उसकी उम्र पूछ बैठे- क्या उम्र है तुम्हारी ?
सर, 27.
बताओ..मैंने 24 साल की उम्र में ही किताब लिख दी थी- आत्महंता आस्था: निराला.
उसे ये बात दिल पर लग गयी. पैरों की गति थोडी सुस्त पडने लगी थी. आगे बढने से कुनमुनाने लगा. फिर कान में धीरे से कहा- तुम्हीं जाओ बे, हमको नहीं जाना साथ.
उत्साह में हमलोग शुरू में ही बोल चुके थे कि सर आपको कश्मीरी गेट तक जाना है न, हमलोग उधर ही जा रहे हैं..अब साथ कैसे छोड देते. खैर, मेरा बैचमेट भी मान गया. साथ चलने लगे हम तीनों.
कश्मीरी गेट तक वो हमदोनों से रहने, आगे क्या करोगे आदि के बारे में पूछने लगे. सब सुन लेने के बाद कहा- अब तुमलोग दिल्ली आ गए हो तो ये तो नहीं कहेंगे कि वापस जाओ लेकिन यहां पैर जमाने के लिए कुछ न कुछ जरूर करना. शहर का खर्चा आसान नहीं है. जितना बताए हो उस हिसाब से खाने-पीने पर ध्यान देने की जरूरत है. और बुकफेयर सिर्फ किताब खरीदने मत आया करो, आत्मविश्वास पैदा करने भी आया करो कि मुझे भी एक दिन किताब लिखनी है. आगे जो हो लेकिन जितनी जल्दी हो, नौकरी ले लो. हिन्दी के भीतर की दुनिया बड़ी तंग है भाई. नयी प्रतिभाओं को जल्दी पचा नहीं पाते.
कश्मीरी गेट आते ही उन्हें हमने उतरने कहा- सर आ गया स्टेशन. उन्होंने उतरते हुए जोर देकर कहा- होनहार लगे बातचीत से तुमदोनों, आओ कभी इलाहाबाद.
बाद में हमलोग आपस में मजाक में पूछते– क्या उम्र है तुम्हारी ? और फिर खुद ही जबाव देते- 27. सत्ताईस, मैंने चौबीस साल में ही निराला पर किताब लिख दी थी..लेकिन
इतना कहने के बाद मेरा बैचमेट जोडता- भैयवा लेकिन आदमी एकदम खांटी हैं. उस दिन जो सलाह दिए स्साला हमलोगों का प्रोफेसर भी कभी देगा बे ? करेगा वैसे ही आदमी की तरह बात ? तू समझ रहा है न ?..
अपनी किताब मंडी में मीडिया जब बुकफेयर के स्टॉल पर लगी तो दूधनाथ सर खूब याद आए. मन किया कि किसी से पता मांगकर भेजूं. लेकिन संकोच में ऐसा कर नहीं पाया. इन दिनों मेले मे प्रवीण अक्सर वहां किसी न किसी नामचीन के साथ नजर आ जा रहा है( टाइमलाइन पर आती तस्वीरों के आधार पर ), हाथ में छबीला रंगबाज का शहर की प्रति पकड़ते वक्त मेरी तरह उसे भी सर और उनकी बातें याद आती ही होंगी.
अंतिम प्रणाम सर. सॉरी, हमारा इलाहाबाद तो कई बार जाना हुआ, मिलना न हो सका.
( विनीत कुमार प्रसिद्ध मीडिया समीक्षक हैं।)