यह तस्वीर एस.के.यादव की है जो हिंदी-पट्टी में फोटो पत्रकारिता का जाना-पहचाना नाम हैं। इन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फोटो पत्रकारिता पढ़ा रहे एस.के.यादव कभी वहाँ से निकलने वाले अख़बारों की शान हुआ करते थे। 1992 में जब अयोध्या में कारसेवा का ऐलान हुआ तो वे अमृत प्रभात में काम करते थे और उन्हें कवरेज के लिए भेजा गया था। बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के चश्मदीद एस.के.यादव पर उस दिन कारसेवकों ने जानलेवा हमला किया था। उनके दो कैमरे और तमाम फोटो रोल छीन लिए गए थे। इसके बावजूद उन्होंने किसी तरह न सिर्फ गुंबद तोड़े जाने की तस्वीर ली, बल्कि पौने दो सौ किलोमीटर वापस इलाहाबाद आकर अख़बार को तस्वीर सौंपी जो दूसरे दिन बैनर छपी। उन्होंने 6 दिसंबर के घटनाक्रमों को डायरी की शक्ल में लिखा है जिसे हम यहाँ छाप रहे हैं। इसे पढ़कर आप घटना की भयावहता और फोटो पत्रकारिता के जोखिम को महसूस कर सकते हैं- सम्पादक
एक फ़ोटो पत्रकार की डायरी
6 दिसंबर 1992, तड़के 5 बजे
अंधेरे में फैजाबाद से अयोध्या (12 KM) मोटरसाइकिल से प्रस्थान। बाइक विवादित ढांचे के पीछे विहिप के शिविर में, जहां उन दिनों आमतौर से पत्रकार लोग अपने वाहन पार्क कर दिया करते थे, खड़ी कर गलियों के रास्ते सरयू नदी की तरफ जा रही लाखों की उन्मादी भीड़ के बीच तस्वीरे बनाते हुए घाट और फिर वापस बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि परिसर ।
लोग एक हाथ लोटा में सरयू का जल और दूसरे में नदी किनारे से रेत लेकर विवादित ढांचे की तरफ बढ़ने को आमादा थे। अधिग्रहीत परिसर में यथास्थिति कायम रखने के आदेश के बाद सुप्रीम कोर्ट में मुख्यमंत्री कल्याणसिंह ने अपने हलफनामा में इसी सांकेतिक कारसेवा के लिए वहाँ 6 दिसंबर को कारसेवकों को इकट्ठा करने की मंजूरी ले ली थी।
मेरे अलावा यहां मौजूद देश दुनिया के सैकड़ों पत्रकार सभी इसी सांकेतिक कारसेवा की प्रत्याशा में रूटीन जैसी लग रही कवरेज में मशगूल थे।
किसी को हिंसा या तोड़फोड़ का कोई अंदेशा नही था। हालांकि उन्मादी कारसेवकों का जय श्रीराम का कानफाड़ू नारा और बेकाबू बॉडी लैंगुएज किसी अनहोनी की तरफ इशारा कर रहे थे।
मेरी जैकेट की भीतरी पॉकेट से फ़िल्म रोल एक के बाद एक निकल कर एक्सपोज़ होने के बाद दूसरी तरफ की जेब के हवाले होते जा रहे थे। आज की ऐतिहासिक कवरेज के लिए भारी भीड़ के मद्देनजर भीड़ में आसान मूवमेंट के लिए कैमरा बैग साथ नहीं ले जाना था। तीनों कैमरे गले मे लटक रहे थे, एक मे शार्टज़ूम, दूसरे में 70-210 और तीसरे में कलर फ़िल्म लोड थी। भीड़ को चीरते हुए तेजी से निकलने का इलाहाबाद कुम्भ का अनुभव काम आ रहा था।
सुबह के दस बज चुके थे। मुख्य जमावड़ा भीतरी बैरिकेटिंग में बाबरी मस्जिद के ठीक सामने लग चुका था।
11 बजे तक सरयू से लौटी लाखों कारसेवकों की भीड़ उस परिसर के बाहर लगभग एक किलोमीटर के दायरे में इकट्ठा हो चुकी थी।
पूर्व निर्धारित समूहों में कारसेवकों को राज्यवार क्रम से अधिग्रहीत स्थल की बाहरी बैरिकेटिंग, जो की लोहे के मोटे पाइप से दस फुट ऊंची बनाई गई थी, के बाहर रोक कर रखा गया था।
पूरा क्षेत्र पुलिस और PAC फोर्स के सख्त पहरे में छावनी में तब्दील था। यह वही यूपी की फ़ोर्स थी जिसने दो साल पूर्व मुलायमसिंह यादव की सरकार के रहते इसी स्थान पर ढांचे पर हमलावर कारसेवकों पर लाठी गोली चलाई थी,लेकिन इस समय भाजपा सरकार कारसेवकों की आवभगत में लगी थी।
पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार 12.10 बजे से सांकेतिक कारसेवा शुरू होनी थी। जिसमे लोगों को अधिग्रहीत स्थल की बाहरी बैरिकेटिंग के एक छोटे रास्ते से भीतर आकर, भीतरी बैरिकेटिंग के बाहर यज्ञ स्थल पर जल और रेत डाल कर, मंदिर निर्माण की सांकेतिक शुरुआत करके पीछे दूसरे रास्ते से बाहर होकर वापस चले जाना था।
दक्षिण भारत के राज्यों की टोली को सबसे आगे रखा गया था।
इस बीच विश्व हिन्दू परिषद, बजरंगदल, बीजेपी आदि हिन्दू-संगठनों के शीर्ष नेता यज्ञ स्थल पर आने लगे। आडवाणी, जोशी, उमा भारती और अशोक सिंघल को बाबरी मस्जिद के ठीक सामने यज्ञ स्थल पर देखते ही भीड़ आपा खोने लगी। नारों की गूंज आसमान छूने लगी। साथ ही नारों में मस्जिद तोड़ने औऱ मंदिर निर्माण तुरंत शुरू करने की आवाज बढ़ने लगी।
टीवी चैनल्स के कैमरों और फोटो पत्रकारों में इन नेताओ को ढाँचे के बैकग्राउंड में फ़ोटो और बाईट लेने की होड़ मची थी। बीबीसी के मार्क टुली सहित देश दुनिया के दिग्गज पत्रकारों के साथ कंधे से कंधा रगड़ते काम करने की जो अनुभूत उस दिन हुई वह एक फोटो पत्रकार के नाते अनमोल और अविस्मरणीय है।
लेकिन कुछ पल में जो होने वाला था उसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की होगी।
साढ़े ग्यारह बजे तक बाबरी मस्जिद से करीब चार सौ मीटर दूर रामकथा कुंज नाम के एक बड़े और खुली छत वाले भवन के छत पर सप्ताह भर से चल रहा कंट्रोल रूम और केंद्रीय प्रसारण केंद्र, एक भव्य और विशाल हिंदूवादी ऐतिहासिक सभा मंच में तब्दील हो चुका था।
आडवाणी,जोशी,उमा भारती, अशोक सिंघल,आचार्य धर्मेंद्र,महंत अवैद्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा सहित सभी दिग्गज फायर ब्रांड हिन्दू नेता माइक से कार सेवकों को नियंत्रित,संबोधित करते हुए उनमें जोश का संचार कर रहे थे।
यज्ञ स्थल से मैं भी सभा मंच की ओर संभवतः आज की अंतिम महत्वपूर्ण तस्वीर बनाने तेजी से भागा। भीड़ को पार पाना मुश्किल था,लेकिन पौने बारह बजे तक गजब की फुर्ती के साथ मैं सभा मंच के नीचे सीढ़ियों तक पहुंच सका। दिमाग कंप्यूटर की तरह और शरीर बिजली की तरह स्वतः काम करने लगता है जब आप ऐसे महत्वपुर्ण कवरेज पर होते है।
तभी अचानक मेरी नज़र रामकथा कुंज कंट्रोल रूम के भूतल के कमरों से जुड़ी कारसेवकों की कतार औऱ उसमे हलचल की तरफ पड़ी। मेरे सामने आज की सबसे एक्सक्लूसिव तस्वीर थी। करीब दो ढाई सौ कारसेवक इन कमरों से बड़े बड़े हथौड़े, सड़क खोदने वाला औजार, बेलचा, रस्से आदि निकालकर मस्जिद के पीछे की तरफ बढ़ रहे थे।
मेरा कैमरा जैसे ही उन्हें फ्रेम में ले पाता एक मजबूत और कठोर हाथ लेंस को ढंक देता है,और फ़ोटो न लेने की सख्त हिदायत देता है। उसकी आँखों मे आंख डालते ही मेरी रूह कांप सी जाती है। अचानक उसकी आंखों में चार लाख की भीड़ का एक भयावह रूप दिखता है। मेरे पास सुबह 6 बजे से अब तक की काफी महत्वपूर्ण तस्वीरे थीं,जिन्हे सुरक्षित और डेडलाइन के भीतर इलाहाबाद अपने नॉर्दर्न इंडिया पत्रिका एवं अमृत प्रभात अख़बार के दफ्तर तक पहुंचना था।
मैंने बिना देरी किये ऊपर छत की सीढ़ियों की ओर रुख किया।
ऊपर भयावह मंज़र था। बैकग्राउंड में लाखों की भीड़ और सामने मंच पर दिग्गज नेताओं का जमावड़ा ।
कुछ तस्वीरे उतार पाया तभी भीड़ में हलचल मच गयी, ढांचे के पास कुछ अप्रत्याशित हो रहा था।
मंच छोड़ मैं नीचे भागा।
समय 11.50
मैं इस समय विवादित रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के ठीक पीछे दस फुट ऊंची बैरिकेटिंग के पीछे खड़ा हूँ। जो दृश्य मेरे सामने है वह अत्यंत भयावह और पत्रकारिता के पेशे की दृष्टि से अविस्मरणीय है।
इस घटना को बीते पच्चीस साल हो गए,लेकिन अभी जिस वक्त मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूँ, मेरी सांसे बहुत तेजी से चल रही हैं,दिल बेतरतीबी से धड़क रहा है,ठीक वैसे ही हालात हैं जैसे उस दिन थे। पता नही क्यों!
पिछले पांच दिनों से अनुशासित और नियंत्रित कारसेवक अचानक बेहद आक्रामक,अराजक और हिंसक हो चुके हैं। विशाल,बहुत ऊंचे और मजबूत विवादित ढांचे के चारो तरफ लगी बेहद मजबूत लोहे की बैरिकेटिंग कारसेवकों के सैलाब से माचिस की तीली मानिंद टूट चुकी है। दस-बीस करके धीरे धीरे सैकड़ों कारसेवक तीनों गुम्बदों पर चढ़ने में सफल हो गए हैं, जो औजार कुछ देर पहले कंट्रोल रूम से निकाले गए थे, वो कहर बनकर उन पर टूट पड़े हैं।
चारों तरफ अफरा-तफरी और धूल के गुबार के बीच हजारों की संख्या में मुस्तैद पुलिस फ़ोर्स शांत-अविचल अपनी जगह या तो खड़ी है या कारसेवक उन्हें धकिया कर आगे बढ़ रहे हैं। पुलिस के वाच टावर जमींदोज हो रहे हैं और पुलिस सब कुछ होते अप्रत्याशित रूप से चुपचाप खड़ी देख रही है। सामने एक मकान की छत पर जिले केआला पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी सब कुछ होते देख रहे हैं।
मैं दौड़ते हांफते दुनिया को हिला देने वाले इन दृश्यों को कैमरे में कैद करता ढांचे के निकट बढ़ता हूँ। अचानक एक झुंड मेरा कैमरा देखते ही हमला कर देता है,उन्हें शिकायत है कि ये तस्वीरें सुप्रीम कोर्ट में गवाह बनेंगी और मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को सजा हो जायेगी और सरकार भी बर्खास्त हो जाएगी।
लात, घूंसे,डंडे चलने लगते हैं। कुछ साधु भी चिमटे से मुझे पीटने लगते हैं। उन्हें देख भीड़ से और लोग शामिल हो जाते हैं। संख्या 70-80 तक हो जाती है।
मैं बताता हूँ कि प्रेस से हूँ। गले मे लटका प्रेस कार्ड और विश्व हिंदू परिषद द्वारा कारसेवा की कवरेज हेतु पत्रकारों को अनिवार्य रूप से जारी प्रेस कार्ड दिखाता हूँ।वो कुछ देखना सुनना नहीं चाहते। कुछ देर प्रतिरोध के बाद मेरा शरीर भीड़ के हवाले हो जाता है।
दोपहर 12.20
कारसेवकों की भीड़ किसी हालत में मुझे छोड़ने को तैयार नहीं थी। इस बीच कुछ युवक बोले- “देखो साला कटुआ तो नहीं है!” …पिटाई जारी थी और मेरी पैंट की चेन खोलकर वो आश्वास्त हो लिए कि मैं “कटुआ” नहीं। इस बीच कुछ लोग गले में लटक रहे कैमरे छीनने लगे, जब कैमरे की बेल्ट से गले में फांसी की स्थिति होने लगी तो मैंने अंगूठा डालकर बेल्ट अलग कर दिया। कैमरे भीड़ में गुम हो गये। सब कुछ बड़ी तेजी से घटित हो गया, काफी पुलिस पास ही खडी थी लेकिन उसने मुझे बचाने की कोई कोशिश नहीं की।
लगा आज बचना मुश्किल है। हिंसा और दंगो की कवरेज के दौरान ऐसी मुसीबत से कई बार सामना हो चुका था,लेकिन उस दिन लगा कि मौत करीब है। मां का अंतिम स्मरण कर चुका था,सारे इष्टदेवों के नाम मन मे तेज आवृत्ति से घूम रहे थे।
तभी एक युवा कारसेवक जो देखने में विहिप कार्यकर्त्ता जैसा था, हाफ पैंट,चौड़ी बेल्ट और बिल्ला लगाये, शायद वहां वालंटियर तैनात रहा होगा, वह हाथ में चाकू लेकर कूद पडाॉ़ा और चाकू चारों तरफ नचाते हुए मुझे हिंसक भीड़ से अलग कर देता है.उसने कहा तुम इलाहाबाद से हो ,भागो यहाँ से। मैंने हिम्मत कर उससे कहा लोग मेरा कैमरा छीन ले गए। वो बोला – रुको । वह तेजी से भीड़ में भागा और एक कैमरा लेकर तुरंत वापस लौटा। उसने कान में कहा- इसे छिपा कर भागो और फोटो जरूर छापना !
मैं जान बचा कर पीछे बैरिकैटिंग से बाहर निकलने को मुड़ा लेकिन संकरे गेट से भीड़ का सैलाब अन्दर आने को उमड़ रहा था .मैंने एक पुलिस वाले से कहा की मुझे बैरिकेटिंग पर चढंने में मदद कर दे। उसने मदद की और मैं कूद कर खतरे के क्षेत्र से बाहर आ गया। कैमरा जैकेट के अन्दर कर छिपा लिया था। पत्रकार होने की सारी निशानी, मसलन प्रेस- पास आदि अंदर कर लिया और वापस भाग रहे कारसेवकों के झुण्ड में उनकी नक़ल करते हुए हाथ में मैंने भी “बाबरी विध्वंस” की एक ईंट हाथ में उठा ली और “जय श्रीराम हो गया काम” चिल्लाते हुए ( जो काम मैंने एक पत्रकार होने के नाते कभी नहीं किया ) पास स्थित मानस भवन, जहां पत्रकारों और टीवी चैनल्स को कवरेज के लिए जगह दी गयी थी, की तरफ भागा। पिटाई से पूरा शरीर आग के गोले की तरह जल रहा था। नाजुक अंग तलाशी के दौरान असहनीय पीड़ा दे गए थे। मैंने सोचा चलकर पत्रकार साथियों से शिकायत करता हूँ।
लेकिन मानस भवन में पिटे पत्रकारों की चीख पुकार देखकर लगा खतरा अभी टला नहीं है .
मानस भवन दो मंजिला बड़ा भवन है जो अधिग्रहित परिसर की आंतरिक बैरीकेटिंग के बाहर स्थित है। जिसकी खुली विस्तारित छत पर पत्रकारों और टीवी कैमरों को कवरेज के लिए जगह दी गयी थी। इसी भवन में मंदिर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती ने भी अपना डेरा डाला हुआ था। अभी तक मैं समझ रहा था कि सिर्फ भीड़ के एक हिस्से ने मेरी ही पिटाई की है। लेकिन वहाँ मेरी ही तरह काफी पत्रकार और टीवी कैमरापर्सन हमलों का शिकार होकर जमा थे। इनमें कुछ महिलाएं भी थीं, जिनके कपड़े तक फाड़ दिये गए थे। लखनऊ, दिल्ली के अलावा विदेशी पत्रकारों की आक्रोशित भीड़ शंकराचार्यजी के कक्ष के बाहर सुरक्षा की गुहार लगा रही थी। मानस भवन में प्रवेश के सारे रास्ते बंद कर दिए गए थे और हिंसक कारसेवक दरवाजा तोड़कर अंदर आना चाहते थे ताकि वहां जमा पत्रकारों को पीटा जा सके और उनके कैमेरे छीने जा सकें। भीड़ का दबाव देख शंकराचार्यजी ने सुरक्षा के लिहाज से सभी पत्रकारों को कई कमरों में बंद करवा दिया और सभी के कैमेरे एक अलग कमरे में ताले में बंद कर दिए गए ताकि कोई मानस भवन की खिड़कियों या रोशनदान से बाहर चल रही तोड़-फोड़ की तस्वीर न खींच सके।
क्या बेबसी थी! हम रोशनदान से ठीक सामने बाबरी विध्वंस का भयानक और समाचार की दृष्टि से बेहद बहुमूल्य मंजर देख रहे थे और हमारे कैमरे बगल के कमरे में ताले में बंद थे। उन दिनों मोबाइल फोन और डिजिटल कैमेरे नहीं थे।
कुछ देर बाद शंकराचार्य जी की सूचना पर एक डिप्टी एसपी कुछ पुलिस बल के साथ आये और एक सेफ गलियारा बना कर पत्रकारों को वहां से सुरक्षित बाहर निकालने का प्रबंध किया गया।
हम बचते बचाते उपद्रवियों से दूर हुए और हनुमानगढ़ी की तरफ से बाहर मुख्य सड़क की तरफ आ गए। गलियों में हर तरफ भीड़ वापस भाग रही थी। हाथों में विध्वंस के अवशेष–ईंट लेकर जा रही थी और “जय श्री राम हो गया काम” का नारा लगा रही थी। मैनें गली में एक दुकान से बीस रुपये का एक रामनामी दुपट्टा खरीदा और उससे खुद को ढंक कर कारसेवक के वेश में आ गया। पिछले दो साल से अयोध्या प्रकरण के जुलूसों, आन्दोलनों सभाओं में रामनामी ओढ़कर कवरेज करनेवाले पत्रकारों को इस अनैतिक आचरण के कारण मैं बेहद घृणा की नज़र से देखता था। लेकिन आज जब मौत सामने देखी तो मुझे यह धार्मिक दिखावा करना पड़ा। जान है तो जहान है।
दोपहर 2.30 बजे।
मैंने किसी पीसीओ से अपने इलाहाबाद ऑफिस फोन करके घटना का ब्यौरा दिया और आश्वस्त किया कि मैं लेटेस्ट तस्वीर खींचकर ही इलाहाबाद प्रस्थान करूंगा। एक दवा की दूकान से ब्रूफेन की गोलियां और आयोडेक्स ऑइंटमेंट खरीदा, और नाश्ता पानी करके पिटाई के दर्द से जूझते हुए एक बार फिर तोड़ी जा रही बाबरी मस्जिद की तरफ रुख करने की हिम्मत जुटाई। सामने की तरफ फिर पीटे जाने का खतरा था। मैंने छुपकर अपनी जैकेट के भीतर वापस मिला एक कैमरा चेक कियाय़ उसमें रील अपनी जगह दुरुस्त थी। मेरी जैकेट में खींची गई तस्वीरों के 6-7 फ़िल्म रोल थे जो पिटाई के दौरान जेब फाड़ते, नोचते छीने जा चुके थे।
पिटाई की पीड़ा, पुनः आक्रमण और पहचाने जाने के भय से फ़ोटो खींचने की हिम्मत नहीं हो रही थी, लेकिन सफल होने पर जो तस्वीर मिलने वाली थी उसका कोई मोल नहीं था। खाली हाथ वापस जाने का मतलब जीवन भर का पछतावा और दंगों में अपनी फोटोग्राफी की स्थापित दक्ष छवि का नाश हो जाना था।
मैंने तय किया कि मोटर साइकिल से सड़क के रास्ते वापस इलाहाबाद (170 KM) नहीं जाऊंगा, बल्कि शाम 5.30 बजे फैज़ाबाद से ट्रेन से जाना सुरक्षित होगा। यह अनुमान लगाना आसान था कि देश भर में दंगे भड़क चुके होंगे, आसपास के जिलों में कर्फ्यू होगा और सड़कों पर हिंसा और अवरोध से सामना होगा।
शाम 4.00 बजे।
मैं बाबरी मस्जिद से सैकड़ो गज पीछे की तरफ एक तीन मंजिले मकान की छत पर हूँ। पीछे का हिस्सा घनी आबादी वाला हिस्सा था,और लगी हुई सड़क रामजन्मभूमि थाने के सामने से होते हुए बाहर बाहर फैज़ाबाद स्टेशन को रुख करती है। छत पर से, चारो तरफ जिधर नज़र डालिये हज़ारों छतें भीड़ से अटी पड़ी दिख रही थीं। सामने खुले मैदान में बाबरी मस्जिद साफ़ दिख रही थी जिसे हजारों लोग लगातार तोड़ रहे थे। साढ़े चार बजे तक दो गुम्बद धराशायी हो चुके थे तीसरे गुम्बद को तोड़ा जा रहा था। वहाँ से पीछे निकलने वाली सड़क का नज़ारा वीभत्स था। भीड़ में एक सेफ कॉरिडोर बनाकर लगातार तोड़फोड़ से घायल, खून से लथपथ लोगों को चारपाइयों आदि पर लादकर हॉस्पिटल भेजा जा रहा था। बिना किसी सहारे और तैयारी के विशालकाय और फिसलन भरे गुम्बदों पर चढ़ने और चौतरफा अराजक तोड़फोड़ करने के दौरान सैकड़ो कारसेवक गिरकर घायल हो जा रहे थे। सम्भव है कुछ ने अपनी जान भी गंवाई हो।
शाम 4.30 बजे।
आखिरी ट्रेन छूटने में एक घंटे बचे थे, मैने हिम्मत करके भीड़ के बीच से खुद को सीढ़ी की दीवार के बीच छुपकर जैकेट की चेन खोला ,बजरंगबली का स्मरण किया और अनुमान से कैमरा प्रीफोकस और एक्सपोजर सेटिंग लगाकर बिना कैमरा आंख में लगाये बाबरी विध्वंस की अपनी अंतिम फोटो खींचने का साहस जुटाया। कैमेरे का शटर तड़ाक से बोलने पर भीड़ द्वारा फिर पकड़े जाने का खतरा था। मैंने शटर दबाने के साथ जोर से खांस कर इससे निपटने का इंतेजाम किया। तीन शॉट हो गए थे। मन नहीं माना। जब तक आप आंख में कैमेरे का व्यू-फाइंडर न लगा लें, फोटो पक्का आने की तसल्ली नहीं रहती। सो अंतिम तस्वीर मैंने सीधे कैमरा आंख में लगाकर शटर दबा दिया। मेरे पास अगली सुबह के अखबार की आठ कॉलम की बैनर लीड फोटो थी। अब मुझे सीधे अखबार के दफ्तर का मेरा डार्क रूम नज़र आ रहा था।
पिछले छः दिन से हम रोज फैज़ाबाद टेलीग्राफ आफिस से अपनी फोटो फैक्स कर देते थे। लेकिन आज टेलीग्राफ आफिस में पत्रकारों को पीटे जाने की पूरी संभावना थी। फोटो पत्रकारिता में जितना ज़रूरी और महत्वपूर्ण फोटो खींचना है, उतना ही ज़रूरी उसे डेडलाइन के भीतर अपने न्यूज़ डेस्क पर पहुंचना भी होता है। अतः कोई भी चूक मेरे सारे प्रयास पर पानी फेर सकती थी।
मैंने घड़ी पर नज़र डाली और सीधे नीचे खड़ी अपनी बाइक पर पहुंचा। कीचड़ उठा कर नम्बर प्लेट पर आगे पीछे लिखे PRESS पर पोत दिया। मेरी 100 CC सुजुकी मोटर साइकिल अब सरपट रेलवे स्टेशन की राह पर थी। अयोध्या से फैज़ाबाद 12 किलोमीटर का रास्ता कठिन लग रहा था। दृश्य भयावह थे। अल्पसंख्यको के मकान धूधूकर जल रहे थे, उनकी छोटी मोटी दूकान गुमटियां तहस नहस कर दी गई थीं। सड़कों पर पेड़ की डाल आदि रखकर मार्ग अवरूद्ध किया गया था। बाद में पता चला कि केंद्रीय बलों के वाहनों को अयोध्या आने से रोकने को ऐसा किया गया था। गिरते पड़ते प्लेटफॉर्म पर पहुचा तो ट्रेन चल चुकी थी। दौड़ते हुए डिब्बे में दाखिल हुआ तो राहत की सांस ली।
पूरी ट्रेन “विजयी” कारसेवकों से भरी थी। सभी बाबरी मस्जिद तोड़े जाने की चर्चा में मशगूल थे। अधिकांश लोगों के हाथ में बाबरी विध्वंस की ईंटें थी, जिसे वो अपने साथ अपने गली मोहल्लों में दिखाने के लिए ले जा रहे थे। इस चर्चा के बीच वह पत्रकारों की पिटाई की भी चटखारे ले लेकर चर्चा कर रहे थे, और दावा कर रहे थे कि कोई भी पत्रकार वहां से फोटो खींचकर नहीं जा पाया होगा। और मैं मन ही मन इस बात से खुश था कि आप सब विजेताओं की भीड़ में एक गुमनाम विजेता भी है जो अपनी जैकेट के अंदर एक शानदार तस्वीर लेकर साथ जा रहा है।
रात 11:45
जब ट्रेन इलाहाबाद जंक्शन के प्लेटफार्म पर पहुंची तो मेरे समाचार संपादक सहित दर्जनों सहकर्मी प्लेटफॉर्म पर स्वागत के लिए खड़े थे। मेरा सारा दर्द काफूर हो गया था। उन सब के साथ ऑफिस पहुंचा और सीधे डॉर्करूम में घुस गया। मेरी सांस तब तक अटकी रही जब तक मैंने रील डेवलप करके डार्क रूम में नेगेटिव पर बाबरी मस्जिद ध्वंस की साफ-सुथरी तस्वीर नहीं देख ली। जब मैंने डार्करूमका दरवाजा खोला तो दरवाजे के बाहर पूरे दफ्तर का एडिटोरियल से लेकर के प्रेस स्टाफ तक, यह सुनने के इंतजार में खड़ा था कि ‘हां तस्वीर आ गई है!’
मेरे छोटे भाई नरेंद्र यादव भी अपने आज अखबार की टीम के साथ उसी दिन सुबह अयोध्या पहुंचे थे। मुझे बताया गया कि हमले में उनका सिर फट गया है, लेकिन वो भी ठीकठाक आफिस आ गए हैं। मैं आफिस से निकलकर भाई को उसके आफिस लीडर प्रेस से साथ लेते हुए घर पहुचता हूँ। माँ ने दरवाजा खोलते ही खून से सना उसका सिर देखा तो परेशान हो गयीं। उनका पहला सवाल था- बेटा क्या सही में मस्जिद टूट गयी? भाई के हां कहते ही मां ने उसे सीने से लगाते हुए कहा- ‘मेरे बेटे का खून स्वारथ हो गया (कामआगया)।’
दुनिया में मुझे सबसे प्यारी लेकिन धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत मेरी मां उस रात जीत का जश्न मना रही थीं, लेकिन मैं अपनी मां से सहमत नहीं था। मेरा दिल इस पूरी घटना से दहल उठा था, मैं बेहद आक्रोशित और व्यथित था। भारत के संविधान की शपथ लेकर संवैधानिक पद पर बैठे मुख्यमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट को मूर्ख बनाते हुए अपने धार्मिक एजेंडे को लागू करते हुए देश के क़ानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी थीं।
एक दिन बाद 8 दिसंबर 92 को मैं फॉलोअप कवरेज के लिए पुनः अयोध्या गया। मैंने अयोध्या के राम जन्मभूमि थाने में अपने साथ हुई मारपीट और कैमरा छीनने की घटना की एफ.आई.आर दर्ज कराई। हालांकि आरोपितों का नाम अज्ञात था।
इस घटना के कुछ साल बाद लिब्राहन जांच आयोग की तरफ से मेरे पास एक सम्मन आया। तब मुझे पता चला कि केंद्र सरकार की तरफ से सीबीआई ने मुझे जांच आयोग के समक्ष अयोध्या घटना का चश्मदीद गवाह बना दिया है। मेरी एफ.आई.आर पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई, लेकिन उसके आधार पर केंद्र सरकार और सीबीआई ने घटनास्थल पर मेरी मौजूदगी साबित पाया और मुझे जांच आयोग के समक्ष शपथपत्र के साथ अपना बयान देने के लिए विवश किया। तीन बार मुझे आयोग जाना पड़ा। पता चला कि घटनास्थल पर मौजूद पत्रकारों के अलावा वहां मौजूद सभी लोग आरोपित थे। इन आरोपितो में लाखों अज्ञात कारसेवक, धार्मिक संगठनों के प्रमुख नेतागण, बीजेपी के वरिष्ठ नेतागण, पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों के नाम शामिल थे। अब जब सभी आरोपित हैं तो गवाह कौन बनेगा? लखनऊ स्थित सीबीआई अदालत में भी गवाही के लिए कई बार सम्मन आए। वहाँ भी बयान कलम बंद किया गया। कैमरे की क्षतिपूर्ति के लिए प्रेस काउंसिल आफ इंडिया द्वारा यह कह कर पल्ला झाड़ लिया गया कि सरकार का दायित्व नहीं बनता। यह पेशेगत जोखिम के अंतर्गत आता है जिसकी जिम्मेदारी मीडिया संस्थानों की है।
अब मीडिया संस्थान इस बारे में कितने जिम्मेदार हैं, यह किसी से छिपा नहीं है !
श्री एस.के.यादव का यह संस्मरण 6 दिसंबर 2018 को मीडिया विजिल में छप चुका है।