महात्मा गाँधी को श्रद्धांजलि में झाँकती RSS की मिठाई और सावरकर का षड़यंत्र!


‘इनके सारे भाषण सांप्रदायिक विष से भरे थे, हिंदुओं में जोश पैदा करना व उनकी रक्षा के प्रबंध करने के लिए आवश्यक न था कि जहर फैले। इस जहर का फल अंत में यही हुआ कि गांधी जी की अमूल्य जान की कुर्बानी देश को सहनी पड़ी। सरकार व जनता की रत्ती भर सहानुभूति आरएसएस के साथ न रही बल्कि उनके खिलाफ ही गई। गांधी जी की मृत्यु पर आरएसएस वालों ने जो हर्ष प्रकट किया और मिठाई बांटी, उससे यह विरोध और भी बढ़ गया। इन हालात में सरकार को आरएसएस के खिलाफ कदम उठाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था।’-पटेल




हमेशा की तरह महात्मा गाँधी की शहादत दिवस पर उनकी हत्या करने वाले नथूराम गोडसे और उसकी विचारधारा का ज़िक्र ग़ायब है।  आज महात्मा गाँधी के 74वें शहादत दिवस पर. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजघाट जाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी, उस जगह भी गये जहाँ गोडसे ने गाँधी जी के सीने में तीन गोलियाँ दाग़ी थीं और ट्वीट भी किया कि ‘महात्मा गाँधी के विचार लाखों को प्रेरित करते रहेंगे।’

ऐसे में कौन याद दिलाये कि महात्मा गाँधी को मानने वाले या उनकी राह पर चलते हुए अन्याय का विरोध करने वाले आज मोदी सरकार और केंद्र पर क़ाबिज़ बीजेपी की नज़र में देशद्रोही हो गये हैं। ख़ासतौर पर तब जब गाँधी की हत्या के ज़िम्मेदार, अंग्रेज़ों से पेंशन और बंगला लेने वाले माफ़ीवीर सावरकर को भी प्रधानमंत्री मोदी अपनी प्रेरणा मानते हैं और वह आरएसएस तो उनकी रग-रग में ही बसा है जिसने महात्मा गाँधी की हत्या की ख़बर पर मिठाई बाँटी थी। गोडसे, सावरकर का शिष्य ही नहीं, आरएसएस का सदस्य भी था जैसा कि गाँधी की हत्या के आरोप में सज़ा काटने वाले उसके भाई गोपाल गोडसे ने भी स्वीकार किया है।

सावरकर, गाँधी की हत्या के षड़यंत्रकारी थे, ये बात जस्टिस कपूर कमीशन का निष्कर्ष है। आरएसएस के लोगों ने गाँधी की हत्या पर मिठाई बँटवाई थी, ये बात ख़ुद सरदार पटेल ने लिखी है। पटेल ने ही आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया था।

वैसे, पटेल को अपने खेमे में खींचने में जुटे संघ की ओर से अक्सर कहा जाता है कि पटेल ने उस पर लगाया प्रतिबंध हटा लिया था (यानी पटेल ने उसे बेगुनाह मान लिया था)। क्या सचमुच ऐसा ही था। क्या प्रतिबंध यूँ ही हटा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 4 फरवरी 1948 गैरकानूनी घोषित हुआ और 11 जुलाई 1949 प्रतिबंध हटा। इस बीच बहुत कुछ घटा।

आरएसएस 1925 में गठित हुआ था लेकिन न कोई संविधान था और न सदस्यता रसीद। प्रतिबंध हटाने के लिए उसने खुद को ‘सांस्कृतिक कामकाज’ तक सीमित रखने और अपना संविधान बनाने का आश्वासन दिया। 11 जुलाई 1949 प्रतिबंध हटाने का एलान करने वाली भारत सरकार की विज्ञप्ति में कहा गया –

“आरएसएस के नेता ने आश्वासन दिया है कि आरएसएस के संविधान में, भारत के संविधान और राष्ट्रध्वज के प्रति निष्ठा को और सुस्पष्ट कर दिया जाएगा। यह भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि हिंसा करने या हिंसा में विश्वास करने वाला या गुप्त तरीकों से काम करनेवाले लोगों को संघ में नहीं रखा जाएगा। आरएसएस के नेता ने यह भी स्पष्ट किया है कि संविधान जनवादी तरीके से तैयार किया जाएगा। विशेष रूप से, सरसंघ चालक को व्यवहारत: चुना जाएगा। संघ का कोई सदस्य बिना प्रतिज्ञा तोड़े किसी भी समय संघ छोड़ सकेगा और नाबालिग अपने मां-बाप की आज्ञा से ही संघ में प्रवेश पा सकेंगे। अभिभावक अपने बच्चों को संघ-अधिकारियों के पास लिखित प्रार्थना करने पर संघ से हटा सकेंगे।..इस स्पष्टीकरण को देखते हुए भारत सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि आरएसएस को मौका दिया जाना चाहिए। ”

इस विज्ञप्ति से साफ है कि संघ पर किस तरह के आरोप थे और भारत सरकार को उसके बारे में कैसी-कैसी सूचनाएं थीं। वह भारतीय तिरंगे तक का सम्मान नहीं करता था। लेकिन प्रतिबंध हटाना शायद लोकतंत्र का तकाजा था और इसके सबसे बड़े पैरोकार तो प्रधानमंत्री नेहरू ही थे।

गाँधी जी की हत्या ने दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर गंभीर सवाल खड़ा कर दिया था जिसकी जिम्मेदारी गृहमंत्री के नाते सरदार पटेल के पास थी। तमाम तथ्यों को देखते हुए उन्होंने माना कि गाँधी की हत्या में आरएसएस का भी हाथ है और 4 फरवरी 1948 को आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया। 11 सितंबर 1948 को पटेल ने आरएसएस के सरसंघचालक एम.एस.गोलवलकर को पत्र लिखा कि-

‘हिंदुओं को संगठित करना और उनकी सहायता करना एक बात है, लेकिन अपनी तकलीफों के लिए बेसहारा और मासूम पुरुषों, औरतों और बच्चों से बदला लेना बिल्कुल दूसरी बात….इसके अलावा ये भी था कि उनके कांग्रेस विरोध ने, वो भी इस कठोरता से कि न व्यक्तित्व का ख्याल, न सभ्यता का, न शिष्टता का, जनता में एक प्रकार की बेचैनी पैदा कर दी। इनके सारे भाषण सांप्रदायिक विष से भरे थे, हिंदुओं में जोश पैदा करना व उनकी रक्षा के प्रबंध करने के लिए आवश्यक न था कि जहर फैले। इस जहर का फल अंत में यही हुआ कि गांधी जी की अमूल्य जान की कुर्बानी देश को सहनी पड़ी। सरकार व जनता की रत्ती भर सहानुभूति आरएसएस के साथ न रही बल्कि उनके खिलाफ ही गई। गांधी जी की मृत्यु पर आरएसएस वालों ने जो हर्ष प्रकट किया और मिठाई बांटी, उससे यह विरोध और भी बढ़ गया। इन हालात में सरकार को आरएसएस के खिलाफ कदम उठाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था।’

गौर कीजिए, सरदार पटेल के मुताबिक गांधी जी की हत्या के बाद संघवालों ने मिठाई बाँटी और प्रतिबंध के अलावा कोई चारा नहीं था। जाहिर है, सरदार पटेल नेहरू की जबान नहीं बोल रहे थे, अपना मन खोल रहे थे। बौतर गृहमंत्री उन्हें देश भर से खुफिया जानकारियां मिलती थीं। यही नहीं सरदार पटेल ने 18 जुलाई 1948 को हिंदू महासभा के प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी एक पत्र लिखकर बताया कि प्रतिबंध के बावजूद आरएसएस बाज़ नहीं आ रहा है। उन्होंने लिखा—

“जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा की बात है, गांधी जी की हत्या का मामला अदालत में है और मुझे इसमें इन दोनों संगठनों की भागीदारी के बारे में कुछ नहीं कहना। लेकिन हमें मिली रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संस्थाओं, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के फलस्वरूप देश में ऐसा माहौल बना कि ऐसा बर्बर कांड संभव हो सका। मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का अतिवादी भाग षड़यंत्र में शामिल था। आरएसएस की गतिविधियां, सरकार और राज्य-व्यवस्था के अस्तित्व के लिए स्पष्ट खतरा थीं। हमें मिली रिपोर्टं बताती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद वे गतिविधियां समाप्त नहीं हुई हैं। दरअसल, समय बीतने के साथ आरएसएस की टोली अधिक उग्र हो रही है और विनाशकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है।”

ज़ाहिर है, पटेल के नाम का जमकर इस्तेमाल करने वाले आरएसएस ने उनकी मौत के बाद उनसे किए गए वादे को कोई तवज्जो नहीं दी। राजनीति में उसने इस क़दर भाग लिया कि तमाम प्रदेशों के मुख्यमंत्री से लेकर भारत का प्रधानमंत्री कौन बनेगा, बीजेपी के सत्ता पाने पर वही तय करता है। पहले जनसंघ और फिर बीजेपी बनाकर उसने साफ़ कर दिया कि राजनीति न करने का उसका वादा महज़ रणनीति थी और उसने ऐसा करके पटेल की आँख में धूल झोंकी थी। सरसंघ चालक का चुनाव आज भी नहीं होता बल्कि उत्तराधिकारी की घोषणा की जाती है।

सरदार पटेल जीवन भर हिंदू राष्ट्र के विचार के सख़्त ख़िलाफ़ थे, जिसकी घुट्टी संघ की शाखाओं में प्रवेश के साथ ही पिलाई जाती है। शायद वो भूल गया है कि कुछ झूठ ऐसे भी होते हैं जो सौ बार नहीं हजार बार बोले जाएं तो भी सच नहीं हो सकते।

 

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।