प्रिय पाठकों, चार साल पहले मीडिया विजिल में ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी। एक बार फिर हम ये शृंखला छाप रहे हैं ताकि आरएसएस के बारे में किसी को कोई भ्रम न रहे। पेश है इसकी पाँचवीं कड़ी जो 24 जुलाई 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक
आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–5
आरएसएस कहता है—
‘हिन्दुत्व धर्म का पर्यायवाची है, जो भारतवर्ष में प्रचलित उन सभी आचार-विचारों का, जो कि व्यक्ति और समाज में पारस्परिक सामाजिक समरसता, संतुलन तथा मोक्ष प्राप्ति के सहायक तत्वों को स्पष्ट करता है. यह एक जीवन दर्शन और जीवन पद्धति है, जो मानव समाज में फैली समस्याओं को सुलझाने में सहायक है. अभी तक हिन्दुत्व को मजहब के समानार्थ मानकर उसे गलत समझा गया था,उसकी गलत व्याख्या की गई, क्योंकि मजहब मात्र पूजा की एक पद्धति है, जबकि हिन्दुत्व एक दर्शन है,जो मानव जीवन का समग्रता से विचार करता है. समाजवाद और साम्यवाद भौतिकता पर आधारित राजनैतिक एवं आर्थिक दर्शन है, जबकि हिन्दुत्व एक दर्शन है, जो मनुष्य भौतिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त उसकी मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता है. कोई व्यक्ति मात्र सुविधाओं की प्राप्ति से प्रसन्न नहीं रह सकता. हिन्दुव एक जीवन पद्धति है, जो व्यक्ति की सभी वैध आवश्यकताओं और अभिलाषाओं को संतुष्ट करती है, ताकि व्यक्ति मानवता के सिद्धांतों के साथ प्रसन्न सके.’ (आरएसएस की पुस्तिका, ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं : क्यों?’, पृ. 9)
इसमें तीन बातें कही गई हैं—
- हिन्दुत्व मजहब नहीं, धर्म है.
- हिंदुत्व एक दर्शन है, जो एक जीवन पद्धति है.
- हिन्दुत्व समाजवाद और साम्यवाद से श्रेष्ठ है.
आइए, धर्म और शब्द जाल को समझते हैं. असल में, आरएसएस के हिन्दुत्व के तीन मुख्य शत्रु हैं इस्लाम, ईसाईयत और भौतिकवादी दर्शन, यानि, साम्यवाद. ये हिन्दुत्व के लिए चुनौती बने हुए हैं. इस्लाम और ईसाई धर्म, जिन्हें मजहब कहा गया है, इस मायने में भिन्न हैं,क्योकि वहाँ एक खुदा है,और उसकी उतारी हुई एक किताब है, जिसमें मुसलमानों और ईसाईयों के लिए हिदायतें है. ये हिदायतें ही उनकी जीवन व्यवस्था है. किन्तु हिन्दुत्व में न एक ईश्वर है और न एक किताब है, उसमें अनेक देवी-देवता हैं और अनेक किताबें हैं. इसलिए हिदायतें भी अनेक हैं.
हालाँकि यह हिन्दूधर्म की एक विशेषता भी है कि उसमें कोई आसमान से उतरी हुई किताब नहीं है. उसमें वेदों के खंडन-मंडन को लेकर ही अनेक ग्रन्थ हैं. अनेक उपनिषदें हैं, जिनमें ब्रह्म को अनेक तरह से परिभाषित किया गया है. उसमें दर्शन है, तो प्रतिदर्शन भी है. उसमे आस्तिक दर्शन हैं, तो एक नास्तिक दर्शन सांख्य भी है. इसलिए, किसी भी हिन्दू के लिए पूजा-उपवास की भी कोई शर्त नहीं है. किसी हिन्दू के साथ किसी धर्मशास्त्र,जैसे वेद, रामायण, गीता को मानने की भी शर्त नहीं जुड़ी है. कोई उसमें आस्था रखता है, तो ठीक है, पर अगर नहीं रखता है, तो भी वह हिन्दू है. इस लिहाज से हिन्दुत्व को हम इस्लाम से भिन्न मान सकते हैं, क्योंकि वहाँ ऐसी स्वतंत्रता नहीं है. वहाँ तीन चीजों में आस्था जरूरी है—एक-अल्लाह, दो- कुरआन और तीन- नबी. वरना वह काफ़िर और नास्तिक माना जायेगा.
ऐसी स्थिति में धर्म और मजहब में क्या अंतर है? आरएसएस कहता है कि मजहब मात्र पूजा की एक पद्धति है,जबकि हिन्दुत्व इससे अलग है, इसलिए वह मजहब नहीं है, दर्शन है.अब यह बड़ी अजीब गुत्थी है, क्योंकि कोई भी धर्म, दर्शन से रहित नहीं है. यदि दर्शन ईश्वर, जीव, लोक और परलोक के चिंतन को कहते हैं, जिसमें मोक्ष-प्राप्ति का साधन भी शामिल है,तो इस दृष्टि से, हर मजहब के पास अपना दर्शन है.और उनमें ज्यादा बड़ा अंतर भी नहीं है,लगभग एक जैसी बातें ही हैं.
फिर आरएसएस हिन्दुत्व को किस आधार पर मजहब नहीं मान कर, धर्म मानता है? धर्म का अर्थ क्या है? हिंदू धर्माचार्यों ने धर्म की जो व्याख्या की है, वही इस गुत्थी को सुलझा सकती है. मनु ने वर्णधर्म को धर्म माना है, और हर वर्ण का अलग धर्म निश्चित किया है. इस व्याख्या पर सभी धर्माचार्यों में निर्विवाद सहमति है. आचार्य शंकर से लेकर महर्षि दयानंद और स्वामी विवेकानंद तक, और अरविंदो और महात्मा गाँधी से लेकर हिन्दू महासभा के सावरकर और आरएसएस के गोलवरकर से लेकर मोहन भागवत तक सभी ने वर्णव्यवस्था को हिंदू धर्म का मूल आधार माना है. यही वह मूल विशेषता है, जो हिंदुत्व को इस्लाम और ईसाईयत से अलग करती है. इसलिए यह साफ हो जाता हो कि हिन्दुत्व वर्णव्यवस्था को मानता है, इसलिए धर्म है.
अब इस बात को समझने की कोशिश करते हैं कि हिन्दुत्व का दर्शन क्या है, जिसे आरएसएस जीवन पद्धति कहता है? इस सन्दर्भ में आरएसएस उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गजेन्द्र गड़कर के इस विचार को प्रस्तुत करता है, जो उन्होंने शास्त्री यज्ञपुरुष दासजी और अन्य बनाम मूलदास भूरदास वैश्य और अन्य के मामले [1966 [3] एस. सी. आर. 242] में अपने निर्णय में दिया था—
‘जब हम हिंदूधर्म के संबंध में सोचते हैं तो हमें हिंदूधर्म को परिभाषित करने में कठिनाई अनुभव होती है. विश्व के अन्य मजहबों के विपरीत हिंदूधर्म किसी एक दूत को नहीं मानता, किसी एक भगवान की पूजा नहीं करता, किसी एक मत का अनुयाई नहीं है, वह किसी एक दार्शनिक विचारधारा को नहीं मानता, वह किसी महजब या संप्रदाय की परंपराओं की संतुष्टि नहीं करता है. बृहद रूप में हम इसे एक जीवन पद्धति के रूप में ही परिभाषित कर सकते हैं, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं.’
अगर इन न्यायमूर्ति महोदय ने हिन्दुत्व के बारे में दलित लेखकों के अनुभव और विचार पढ़े होते, तो वह इसे एक जीवन पद्धति न मानकर एक बीमारी मानते.
इस संबंध में डा. आंबेडकर के विचार जानना जरूरी हो जाता है, क्योंकि वे हिन्दुत्व का दूसरा पक्ष हैं. इस दूसरे पक्ष को जाने बिना हिन्दुत्व की सही परिभाषा नहीं हो सकती. वे अपनी किताब ‘Philosophy of Hinduism’ में लिखते हैं—
‘Hinduism like Judaism, Christianity and Islam is in the main a positive religion. One does not have to search for its scheme of divine governance. It is not like an unwritten constitution. On the hindu scheme of divine governance is enshrined in a written constitution and any one who cares to know it will find it laid bare in that Sacred Book called Manu Smriti, a divine Code which lays down the rules which govern the religious, retualistic and social life of the Hindus in minute detail and which must be regarded as the Bible of the Hindus and containing the philospphy of Hinduism.’ [Dr. Babasaheb Ambedkar : Writtings and Speeches, vol. 3, pp. 7-8]
अर्थ—‘मुख्य रूप से हिंदू धर्म भी यहूदी, ईसाई, और इस्लाम की तरह ही एक परिपूर्ण धर्म है। उसके दिव्य शासन को किसी को भी खोजने की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि वह एक अलिखित विधान की तरह नहीं है. हिंदू दैवी शासन एक लिखित संविधान में शामिल है. कोई भी उस संविधान को पवित्र किताब मनु स्मृति में देख सकता है, जो एक दिव्य संहिता है. जिसमें हिंदुओं के धार्मिक और सामाजिक जीवन को नियंत्रित करने वाले कानून शामिल हैं. इसे हिंदुओं की बाइबल माना जाता है, यही हिंदूधर्म का दर्शन भी है.’
डा. आंबेडकर सवाल करते हैं कि हिन्दुत्व के इस दर्शन पर, [जिसे आरएसएस हिंदुओं की जीवन पद्धति कहता है], क्या न्याय की कसौटी लागू की जा सकती है? न्याय की कसौटियों से उनका तात्पर्य स्वतंत्रता, समानता और बंधुता का नियम से है. वे पूछते हैं, हिन्दुत्व का दर्शन इनमें से न्याय के किस नियम को मानता है? क्या वह स्वतंत्रता के नियम लो मानता है? क्या वह समानता के नियम को मानता है? और क्या वह बन्धुता के नियम को मानता है? डा. आंबेडकर कहते हैं, हिन्दुत्व का दर्शन इनमें से किसी भी नियम को नहीं मानता है. वह न स्वतंत्रता में विश्वास करता है, न समानता में और न बंधुता में. इसलिए हिंदुत्व का दर्शन न तो सामाजिक उपयोग की कसौटी पर खरा उतरता है और न व्यक्तिगत न्याय की कसौटी पर. वे कहते हैं, ‘जिन्हें मेरा निष्कर्ष स्वीकार नहीं है, उनसे मैं कहना चाहता हूँ कि उन्हें मेरी बात अजीब इसलिए लगती है, क्योंकि उनके पास उस सही धारणा का अभाव है, जो हिन्दुत्व के दर्शन के केन्द्र में है. अगर वे उस धारणा को समझ लेंगे, तो उन्हें मेरे निष्कर्ष पर आश्चर्य नहीं होगा.’ [वही, पृ. 71-72]
डा. आंबेडकर ने इसी किताब में हिन्दुत्व के दर्शन की तुलना नीत्शे के दर्शन से की है. उन्होंने कहा है कि नीत्शे के दर्शन को कभी पसंद नहीं किया गया, क्योंकि उसमें नाजीवाद के निर्माण की क्षमता है, इसलिए वह कभी पनपा नहीं. नीत्शे के दर्शन ने ही हिटलर को हिटलर बनाया था, और नाजी लोगों को सत्ता में लाने के पीछे भी नीत्शे के विचारों की ही प्रेरणा थी. वह खुलासा करते हैं कि नीत्शे ने अपने दर्शन की प्रेरणा मनु से प्राप्त की थी. अपनी पुस्तक ‘Anti Christ’ में नीत्शे ने मनुस्मृति की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है. इसलिए आंबेडकर यहाँ तक कहते हैं कि ‘जरथुस्त्र’ मनु का ही नया नाम है, और ‘Thus Spake Zarathustra’ मनुस्मृति का ही नया संस्करण है. [वही, पृ. 74-76]
किन्तु डा. आंबेडकर नीत्शे की तुलना में मनु के दर्शन को ज्यादा नीच और भ्रष्ट मानते हैं. वह कहते हैं कि हिन्दुत्व का दर्शन न्याय की कसौटी पर इसलिए खरा नहीं उतरता, क्योंकि उसकी रूचि सम्पूर्ण समाज में नहीं हैं, बल्कि उसकी रूचि एक वर्ग विशेष के हित में केंद्रित है, और वह उसी वर्ग के अधिकारों की रक्षा करता है. यह विशेष वर्ग ब्राह्मण है. संक्षेप में हिन्दुत्व के दर्शन को मानवता का दर्शन नहीं कहा जा सकता. वह केवल उच्च वर्गों, खासकर ब्राह्मणों के लिए स्वर्ग है, और निम्न वर्गों के लिए नर्क है. [वही, पृ. 77]
डा. आंबेडकर के इन विचारों को आरएसएस का कोई भी व्यक्ति खंडन करने का साहस नहीं कर सकता, क्योंकि न सिर्फ आरएसएस के दार्शनिक वीर सावरकर ने मनुस्मृति को हिंदू राष्ट्र का पूजनीय ग्रन्थ माना है, [दे. सावरकर समग्र, खंड 4, पृ. 426], बल्कि उसके गुरु गोलवलकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘We or Our Nationhood Defined’ में लिखा है—
‘It is this fact which made the first and greatest law giver of the world—Manu, to lay down in his code, directing all the peoples of the world to come to Hindustan to learn their duties at the holy feet of the ‘Eldest born’ Brahmans of this land.
अर्थात, ‘विश्व के महानतम संविधान-निर्माता मनु ने अपनी संहिता में विश्व के समस्त मनुष्यों के लिए कर्तव्य निर्धारित किये हैं. हिन्दुस्थान आकर इस पृथ्वी के महानतम प्राणी –ब्राह्मणों के पवित्र चरणों में बैठकर अपने उन कर्तव्यों का ज्ञान अर्जित करो.’ [देखिए, चैप्टर VII, पृ. 55-56]
सवाल है कि ब्राह्मण ही पवित्र चरणों वाला क्यों है? और अन्य वर्णों के चरण अपवित्र क्यों हैं? अगर हिन्दुत्व का यही दर्शन है, जिसमें ब्राह्मण ही पवित्र है, तो उसमें स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता आ ही नहीं सकती. ऐसे दर्शन पर बनने वाला हिंदूराष्ट्र किन लोगों का होगा, और सामाजिक न्याय की दृष्टि से वह किस तरह का होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है. इस दर्शन से यह भी समझा जा सकता है कि आरएसएस समाजवाद और साम्यवाद को क्यों अच्छा नहीं समझता है?
आरएसएस ने हिन्दुत्व के सन्दर्भ में डा. राधाकृष्णन के विचारों को उद्धरित किया है—
‘अगर हम हिन्दुत्व के व्यावहारिक भाग को देखें तो हम पाते हैं कि यह जीवन पद्धति है, न कि कोई विचारधारा. हिन्दुत्व जहां वैचारिक अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता देता है, वहीँ वह व्यावहारिक नियम को सख्ती से अपनाने को कहता है. हिन्दुत्व सामाजिक जीवन पर जोर देता है और उन लोगों को साथी बनाता है, जो नैतिक मूल्यों से बंधे होते हैं. हिन्दुत्व कोई संप्रदाय नहीं है, बल्कि उन लोगों का समुदाय है, जो दृढ़ता से सत्य को पाने के लिए प्रयत्नशील है.’
डा. राधाकृष्णन ने हिंदू दर्शन के मामले में किस कदर रायता फैलाया है, इसका जोरदार वर्णन महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपने ग्रन्थ ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में किया है. राहुल जी ने उन्हें एक हिंदू लेखक कहा है. [देखिए, पृ 408] एक हिंदू लेखक से प्रगतिशील चिंतन की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? आरएसएस को वही लेखक और इतिहासकार पसंद हैं, जिसने वर्णव्यवस्था का समर्थन किया है. डा. राधाकृष्णन ऐसे ही लेखक हैं. इसलिए वे वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात तो करते हैं, परन्तु सामाजिक स्वतंत्रता और समानता की बात नहीं करते हैं. जिस व्यावहारिक नियम को वे सख्ती से अपनाने की बात करते हैं, वह व्यावहारिक नियम वर्णव्यवस्था है. जिस सामजिक जीवन पर वे जोर देते हैं, वह वर्णव्यवस्था का सामाजिक जीवन है, और जिन नैतिक मूल्यों से बंधे होने की वे वकालत करते हैं, उन नैतिक मूल्यों का निर्धारण ब्राह्मण करता है. जैसा कि ऊपर डा. अम्बेडकर के हवाले से कहा जा चुका है कि नैतिक वही है, जिसे ब्राह्मण नैतिक कहता है.
अब सवाल यह है कि क्या ब्राह्मण ही हिन्दुत्व का निर्धारण करेंगे? ब्राह्मण चाहे किसी पेशे में हों, धर्मगुरु हों, इतिहासकार हो, नेता हो, जज हों या लेखक हों, वे समाज में विशेषाधिकार प्राप्त श्रेणी के लोग हैं, इसलिए उनकी मान्यताएं, व्याख्याएं और नैतिक मूल्य कोई मायने नहीं रखते हैं. मान्यताएं, व्याख्याएं और नैतिक मूल्य उन लोगों के बीच से तय होने चाहिए, जो वर्णव्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर हैं.
इसलिए हिन्दुत्व धर्म है, दर्शन है या जीवन पद्धति है, इसका निर्धारण अगर आरएसएस करता है, तो निश्चित रूप से वह ब्राह्मण धर्म, ब्राह्मण दर्शन और ब्राह्मण जीवन पद्धति है. और हाँ जीवन पद्धति का अर्थ वे नैतिक मूल्य है, जो ब्राह्मण विधि-निर्माता मनु ने बनाये हैं.
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