नौजवानों से दो बातें: इक्‍कीसवीं सदी के भारत में जाति का सवाल


सवाल उठता है कि और कितनी मौतों के बाद हम जागेंगे और समाज के कर्णधारों को कुछ रैडिकल करने के लिए प्रेरित करेंगे


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पांच दिन बाद शुरू हो रहे दिल्‍ली के विश्‍व पुस्‍तक मेले में इस वर्ष आ रही हिंदी की किताबों में वामपंथी एक्टिविस्‍ट एवं लेखक सुभाष गाताड़े की नई पुस्‍तक ‘’चार्वाक के वारिस: समाज, संस्कृति और सियासत पर प्रश्नवाचक’’ एक अहम प्रकाशन है जिसमें 2014 में भारत में हुए सत्‍ता परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में टटोला गया है। मीडियाविजिल इस पुस्‍तक के लोकार्पण से पहले रोज़ाना अपने पाठकों के लिए इसके कुछ अहम अंश लेखक की अनुमति से प्रकाशित करेगा। इस क्रम में आज ‘नौजवानों से दो बातें’ आपके सामने प्रस्‍तुत है जिससे आपको इस पुस्‍तक की सामग्री के बारे में मोटामोटी समझ बनाने में मदद मिलेगी और परिप्रेक्ष्‍य निर्माण हो सकेगा- (संपादक)  

किसी ऐसी चीज़/परिघटना/संस्था के बारे में बात शुरू करना बहुत मुश्किल जान पड़ता है, जिसके वजूद/अस्तित्व को लेकर ही लोगों में मतभिन्नता हों। हमारे अपने वक्त़ में जाति का सवाल इसी अजूबे को दोहराता दिखता है। अव्वलन संस्कृति, समुदाय, परम्परा, धर्म आदि के साथ वह इस कदर घुला मिला सा दिखता है कि उस पर बात भी जल्द शुरू नहीं हो पाती। कब एक विषय पर शुरू की बातचीत फिसल कर दूसरे पर पहुंच जाएगी इसका कयास लगाना मुश्किल होता है।

दूसरी मुश्किल इस वजह से भी आती है कि आजादी के बाद के इन सत्तर सालों में मुल्क का जैसा विकास हुआ है, उसमें हाल यह बना है कि एक छोटे तबके के लिए – जो सीढीनुमा बनी इसकी संरचना के शीर्ष पर स्थित होने के चलते लाभान्वित होता आया है – उसकी एक किस्म की यह विशेषाधिकारसम्पन्न स्थिति गोया सहजबोध बनी है। लाजिम है उसके लिए यह कोई बहस का, बातचीत का मसला नहीं है। और वह तभी इसके बारे में बोल उठता है जब सरकारी नीतियों के चलते उसके इस वंशानुगत चल रहे विशेषाधिकार पर खतरा मंडराता दिखता है, जब शिक्षा तथा रोजगार के क्षेत्रों में उत्पीड़ित कहे जाने वाले तबकों के लिए विशेष अवसर प्रदान करने का प्रावधान बनने लगता है। और इसके बरअक्स इस दायरे के बाहर स्थित बड़े तबके के लिए चूंकि जिन्दगी के अलग अलग मुक़ाम आम तौर पर इसी से परिभाषित होते रहते हैं और उसकी समूची जिन्दगी इसके इर्दगिर्द ही संचालित होती है, लिहाजा उसकी कोशिश बार बार यही रहती है कि इस संरचना के बारे में, उसकी समाप्ति के बारे में खुल कर बात करे।

एक ही समाज मगर बंटा हुआ यथार्थ!

अगर कक्षा में एकत्रित छात्रों से इस सिलसिले में बात करना शुरू करें तो गारंटी से कहा जा सकता है कि अध्यापकमहोदय खुद दिग्भ्रमित हो जाएं। छात्रों का एक अल्पमत हिस्सा जोर से कह देगा कि ‘सर/मैडम, यह इक्कीसवी सदी का इंडिया है, जहां जाति गुजरे जमाने की चीज़ हो गयी है। यहां सब मेरिट से तय होता है।’ अध्यापक महोदय को वह उन तमाम आधुनिक पेशागत पहचानों को बता सकता है, जिनसे आज युवा पहचाने जाते हैं: फिर कोई साफ्टवेयर इंजिनीयर है, कोई डिजाइनर है, कोई संगीतकार है या वह इस बात के प्रमाण दे सकता है कि उनके परिवार में किस तरह अब जाति की कोई अहमियत नहीं रही, कितने लोगों ने अन्तरजातीय (यहां तक कि अन्तरधर्मीय) विवाह किए हैं और कितनी खुशी खुशी उनके परिवारजनों ने ऐसे प्रेम सम्बन्धों को मान्यता प्रदान की है। अगर आप इन छात्रों की सामाजिक पृष्ठभूमि की और छानबीन करने की कोशिश करें तो आप पा सकते हैं इनका बहुलांश ऊंची कही जाने वाली जातियों से, भद्र समझी जानेवाली जातियों से सम्बन्ध रखता है। और आप यह भी पाएंगे जाति की सीढ़ी को बिल्कुल किनारे कर देना उनके लिए इस वजह से भी मुमकिन हुआ है क्योंकि उससे मिलनेवाले सभी लाभ उन्हें लगभग मिल गए हैं, अपनी पारम्पारिक जाति-पूंजी को जिनके माता-पिता-परिवारजन सम्पत्ति, ऊंची शैक्षिक योग्यता और बेहतर पेशों में बढ़ते नियंत्राण के रूप में हासिल कर चुके हैं।

छात्रों का दूसरा हिस्सा जाति के चश्मे से ही दुनिया को देखने और दिखाने पर जोर देगा और कहेगा कि इंडिया भले ही इक्कीसवीं सदी में पहुंचा हो, मगर उसका मस्तिष्क अभी भी मध्ययुगीन परम्पराओं से बाहर नहीं निकला है और आप किस जाति में पैदा हुए हैं, वही इस बात को तय करता है कि आप जिन्दगी में किस मुकाम पर पहुंचते हैं, आप किन अवसरों को पा सकते हैं? यह बात कहनेवालों का बहुलांश निम्न कही जाने वाली जातियों से ताल्लुक रखता होगा, जिनके लिए जाति ही एकमात्रा संसाधन के रूप में मौजूद रहता है जिसके जरिए वह जिन्दगी में तालीम, रोजगार, व्यवसाय के बेहतर अवसर तलाश सकते हैं क्योंकि उन्हें एक ऐसी दौड़ में शामिल होना है, जिसमें वह पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही ‘डिसएबिलिटीज’ के चलते बहुत पिछड़ चुके हैं।

जाति जैसी हमारे यहां की विशिष्ट सामाजिक संरचना की एक छोटे तबके के लिए ‘गैरमौजूदगी’ और एक बड़े तबके के लिए उसकी अत्यधिक सादृश्यता’ अर्थात हर वक्त, हर जगह उपस्थिति। मुमकिन है आप को मेरी बात पर यकीं न हो!

मिसाल के तौर पर अगर उनसे पूछा जाए कि आश्रमशालाओं में – जहां मुख्यतः अनुसूचित जाति एवं जनजाति के परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं – वहां विगत सालों में कितने बच्चों की मौत हुई? और इतनी अधिक तादाद में मौतें और वह भी अजीब अजीब वजहों से कि अदालत को पूछना पड़ा यह पाठशाला है या मरणशाला!

किसी के लिए यह सवाल बेहद अटपटा हो सकता है! 

यह अलग बात है कि देश के अग्रणी अख़बार द्वारा इस सिलसिले में सूचना अधिकार के तहत हासिल जानकारी विचलित करनेवाली है। ‘इकोनोमिक टाईम्स’  के मुताबिक 2010 से 2015 के दरमियान ऐसे मरनेवालों की संख्या 882 थी जिनमें से सूबा महाराष्ट्र अव्वल था  जहां 684 बच्चे मरे, जिसके बाद ओडिशा का नम्बर आता है जहां 155 बच्चे मरे और फिर गुजरात /30 मौतें/, आंध्र प्रदेश /15 मौतें/, राजस्थान /13 मौतें/ ऐसे आंकड़ें मिले। अख़बार में संविधान की पांचवी अनुसूची के तहत आदिवासी बहुल दस राज्यों में सरकारी आवासीय विद्यालयों में होने वाली मौतें, मौतों का कारण, यौन अत्याचार की घटनाएं और ऐसे माता पिता जिन्हें अभी मुआवजा नहीं मिल सका है, आदि मदों पर यह आवेदन डाला गया था।

पता चला कि ऐसी मौतों के तमाम मामलों में स्कूलों ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि बच्चे कैसे मरे। अख़बार की तरफ से सूचना अधिकार के तहत जिन राज्यों के पास आवेदन भेजा गया था, उनमें से छत्तीसगढ़ एवं हिमाचल प्रदेश ने जवाब देने की जरूरत भी नहीं समझी।

याद रहे कि लगभग चार साल पहले साल महाराष्ट्र के ही चंद्रपुर जिले के जीवती तहसील में चार छात्रों द्वारा 15 अगस्त के दिन की गयी आत्महत्या की कोशिश का मामला सुर्खियों में रहा था जिन्होंने जैसे ही झंडा फहराने की प्रक्रिया शुरू हुई तब अपने जेब में रखी जहर की बोतलें अपनी हलक के नीचे उतार दी थी। मामले की पड़ताल के बाद पता चला कि इन छात्रों ने यह कदम स्कूल की बदइंतजामी, अध्यापकों की कमी और खाने की सामग्री की अनुपलब्धता आदि मसलों को रेखांकित करने के लिए उठाया था। डेढ साल पहले ओडिशा के नयागढ़ जिले के राणापुर ब्लाक के केन्दुआ नामक स्थान पर आदिवासी लड़कियों के लिए बने छात्रावास में भोजन के बाद 20 लड़कियां बीमार हो गयीं और चौथी कक्षा की छात्रा मीनी मांझी की मौत की ख़बर आयी थी।

‘इकोनोमिक टाईम्स’ की रिपोर्ट ने दरअसल इसी परिघटना की व्यापकता को रेखांकित किया था, जिसके मुताबिक देश भर में फैले आश्रमशालाओं में ऐसी घटनाओं का होना अब अपवाद नहीं नियम बनता जा रहा है। ध्यान रहे कि नवोदय विद्यालय की तर्ज पर एकलव्य माडल आवासीय विद्यालय – जिसमें छठवीं से 12वीं तक के बच्चे पढ़ते हैं और केन्द्र सरकार की आदिवासी उपयोजना के तहत संचालित आश्रम शालाओं में ऐसी घटनाओं की बहुतायत देखी गयी है। प्रश्न उठता है वंचित समुदाय के मेधावी बच्चों के शैक्षिक विकास के लिए बने ऐसे स्कूल मौत के कुएं क्यों बन रहे हैं, इसकी निगरानी करनेवाला या उसपर नज़र रखनेवाला तंत्रा भी क्यों उपलब्ध नहीं है।

मुंबई उच्च अदालत की न्यायमूर्ति पी वी हरिदास एवं न्यायमूर्ति पी एन देशमुख की द्विसदस्यीय पीठ के सामने जब यह तथ्य पेश हुआ कि विगत दस वर्षों में महाराष्ट्र में बने आश्रमशालाओं में – जिनका निर्माण मुख्यतः दुर्गम इलाकों में रहनेवाले आदिवासी समाज की सन्तानों को शिक्षित करने के लिए किया गया है – 793 बच्चे कालकवलित हुए हैं – और स्थिति की गंभीरता के बावजूद सरकार बच्चों के स्वस्थ्य विकास के इस मामले की उपेक्षा कर रही है, तब वे न केवल बेहद विचलित हुए बल्कि उन्हें कहना पड़ा कि इन आश्रमशालाओं में अध्ययनरत बच्चों की जिन्दगियां खतरे में हैं। अदालत को कहना पड़ा कि वह हर ऐसी आश्रमशाला के आसपास कमसे कम एक मेडिकल अधिकारी की तैनाती सुनिश्चित करे और खाली पड़ी रिक्तियों को भर दे।

इन मौतों का विवरण देते हुए अदालत को सूचित किया गया था कि इनमें से 62 बच्चे दुर्घटनाओं में, 55 बच्चे सांप काटने, 434 बच्चे बीमारी के चलते, 56 बच्चे पानी में डूब कर, 129 बच्चे प्राकृतिक वजहों से और 57 बच्चे अन्य कारणों से गुजरे हैं। इस बात को देखते हुए कि अदालत के सामने इन तथ्यों को सरकारी वकील ने पेश किया, अन्दाज़ा ही लगाया जा सकता है कि वास्तविक संख्या इससे अधिक होगी। आदिवासी एवं अन्य वंचित समुदायों के साथ किए जा रहे छल का अन्दाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ऐसी मौतों को लेकर सरकार द्वारा तय की गयी नीति के हिसाब से कालकवलित बच्चे केे माता पिता को एक्स ग्राशिया भुगतान किया जाना चाहिए, मगर इन दुखद मौतों में से लगभग आधे मामलों में ऐसा कोई भुगतान आज तक नहीं किया गया है।

कुछ साल पहले मुल्क की आला अदालत द्वारा केन्द्र और तमाम राज्य सरकारों को जारी एक नोटिस ने एक तरह से ऐसी बदइन्तजामी का संज्ञान लेते हुए निर्देश जारी किए थे। एक विद्यार्थी संगठन द्वारा देश के 240 जिलों में फैले अनुसूचित जाति और जनजातियों के छात्रों हेतु बने 1,130 छात्रावासों में मौजूद ‘‘नारकीय परिस्थिति’’ के बारे में दायर याचिका के सम्बन्ध में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन और न्यायमूर्ति सथासिवम एवम न्यायाधीश आफताब आलम की पीठ ने उपरोक्त नोटिस जारी किया था। मालूम हो कि सर्वेक्षण रिपोर्ट में इस दारूण तथ्य को भी उजागर किया गया था कि इनमें से कई छात्रावास जंगलों में भी बने हैं जहां बिजली की गैरमौजूदगी में छात्रों को मोमबत्ती की रौशनी में पढ़ना पड़ता है, पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं है।

इस सम्बन्ध में ‘राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवम प्रशिक्षण परिषद’ ( एनसीईआरटी) के तत्वावधान में प्रकाशित हुई ‘नेशनल फोकस ग्रुप आन प्राब्लेम्स आफ शेडूयल्ड कास्ट एण्ड शेडयूल्ड ट्राईब चिल्डेªन’ शीर्षक रिपोर्ट अध्यापकों एव अनुसूचित तबके के छात्रों के अन्तर्सम्बन्ध पर ठीक रौशनी डालती है। रिपोर्ट के मुताबिक:

अध्यापकों के बारे में यह बात देखने में आती है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्रों एवम छात्राओं के बारे में उनकी न्यूनतम अपेक्षायें होती हैं और झुग्गी बस्तियों में रहने वाले गरीब बच्चों के प्रति तो बेहद अपमानजनक और उत्पीड़नकारी व्यवहार रहता है। अध्यापकों के मन में भी ‘वंचित’ और ‘कमजोर’ सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आने वाले अनुसूचित जाति/जनजाति के बच्चों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, भाषाओं और अन्तर्निहित बौद्धिक अक्षमताओं के बारे में मुखर या मौन धारणायें होती हैं। वे लेबिलबाजी, वर्गीकरण और सीखाने की भेदभावजनक शैक्षिक पद्धतियों का अनुसरण करते हैं और निम्नजाति के छात्रों की सीमित बोधात्मक क्षमताओं के ‘‘वास्तविक’’ आकलन के आधार पर कार्य करते हैं।

यह अकारण नहीं कि जनगणना के आंकडे़ं हमें यही बताते हैं कि इन तबकों के ड्रापआऊट दर अर्थात स्कूल छोड़ने की दर में कमी के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं। और संविधान द्वारा किए गए तमाम वादों के बावजूद 21वीं सदी में भी शिक्षा हासिल करना अनुसूचित तबके के अधिकतर छात्रों के लिए बाधा दौड़ जैसा ही बना हुआ है।

सवाल उठता है कि और कितनी मौतों के बाद हम जागेंगे और समाज के कर्णधारों को कुछ रैडिकल करने के लिए प्रेरित करेंगे।

एक रास्ता यह दिखता है कि नागरिक समाज से दूर जंगलों या दुर्गम इलाकों में बने ऐसे तमाम स्कूलों को बन्द किया जाए और वहां अध्ययनरत छात्रों का दाखिला शहरी इलाकों में कर दिया जाए और सरकार वहां बने छात्रावासों मे इन छात्रों के रहने का इन्तजाम करें।

विडम्बना ही कही जाएगी कि स्कूलों में भेदभाव की समस्या से कहीं के शिक्षा संस्थान मुक्त नहीं है।

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सुभाष गाताड़े मशहूर वामपंथी एक्टिविस्‍ट और लेखक-पत्रकार हैं