पुस्‍तक अंश : पहचान की राजनीति और वाम का भविष्‍य


सुभाष गाताड़े की नई पुस्‍तक में पहचान की राजनीति और वाम के बीच आपसी संबंधों पर एक ज़रूरी अध्‍याय


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दस्तावेज़ Published On :


क्रान्ति ‘‘उत्पीड़ितों और शोषितों के लिए ‘उत्सव’ है…कामगार वर्ग की चेतना तभी तक वास्तविक राजनीतिक चेतना नहीं बन सकती जब तक उन्हें हर किस्म की निरंकुशता, उत्पीड़न, हिंसा और अत्याचार का विरोध करने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता, भले ही कोई भी वर्ग उत्पीड़ित हो।’’


लेनिन, संकलित रचनाएं, खण्ड 5, मास्को: इण्टरनेशनल पब्लिशर्स, 1961, 412

वाम चिन्तन में विगत पन्द्ररह वर्षों में आए बदलावों को देखते हुए एक किस्म के विस्थापन के बोध से बचा नहीं जा सकता: जहां सांस्कृतिक भौतिक को विस्थापित कर रहा है, अस्मिता की राजनीति वर्ग को विस्थापित करती दिख रही है ; संवैधानिक सुधार की राजनीति समानता की अर्थव्यवस्था को विस्थापित करती दिखती है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भिन्नता/डिफरेन्स ने राजनीतिक और सामाजिक सिद्धान्त के केन्द्रीय सरोकार के तौर पर असमानता को विस्थापित किया है। हम अपने आप से पूछ रहे हैं कि आखिर हम भिन्नता को स्वीकारते हुए समानता किस तरह हासिल कर सकते हैं, किस तरह असमानता को समाप्त कर सकते हैं।


न्यू लेफ्ट रिव्यू के एक आलेख में एन फिलिप्स ‘From Inequality to Difference’, New Left Review, https://newleftreview.org/I/224/anne-phillips-from-inequality-to-difference-a-severe-case-of-displacement)

I already knew that there were legends, stories, history, and above all historicity… I was responsible at the same time for my body, my race, for my ancestors.


(Fanon 1968: Black Skin, White Masks, New York: Grove Press.’112)

प्रस्तावना

बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध नए किस्म के जनान्दोलनों का प्रत्यक्षदर्शी रहा है।

अगर पश्चिमी जगत में इसका प्रतिबिम्बन नारी आन्दोलन की दूसरी लहर, नागरिक अधिकारों के लिए अश्वेतों के आन्दोलन या समलैंगिकों के अपने अधिकारों के आन्दोलनों आदि के रूप में दिखाई दिया है तो भारत की सरजमीं पर सातवी-आठवीं दहाई में स्त्री मुक्ति आन्दोलन या दलितों में जातीय उत्पीड़न एवं मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ उठी सरगर्मियों आदि के रूप में प्रगट हुआ है। इन आन्दोलनों ने विशिष्ट सामाजिक समूह होने के नाते उन्हें झेलनी पड़ती वंचना, अन्याय उत्पीड़न को रेखांकित किया है, जो अलग अग ढंग से अभिव्यक्त होता रहा है। वर्चस्वशाली संस्क्रति द्वारा ऐसे समूहों के बारे मे जो नकारात्मक छवि प्रस्तुत की जाती रही है, उसके बरअक्स इन आन्दोलनों ने अपने तथा अपने समुदाय की अहमियत की बात को रेखांकित किया है।

आम जुबां में ऐसी सरगर्मियों को पहचान के आन्दोलन के तौर पर सम्बोधित किया जाता रहा है।

इनके बहाने हम एक ऐसी वैचारिकी से रूबरू हुए हैं जो अन्याय के साझा अनुभवों पर आधारित है। एक खास किस्म की धारणा या विचारधारा, कार्यक्रमों की रूपरेखा, संगठन विशेष से संलग्नता के बरअक्स पहचान आधारित समूहों ने व्यापक सन्दर्भ में अपने हाशियाकरण को फोकस बनाया है। कहा गया है कि ‘पहचान की राजनीति का आगाज़ वहीं से होता है जब हम इस ‘उत्पीड़न’ का विश्लेषण करते हैं ताकि समूहविशेष के सदस्य के तौर पर लांछन लगायी गयी (stigmatised) उनकी अपनी जो छवि प्रचलित की गयी है उसको चुपचाप से स्वीकारने के बजाय चेतना स्तरोन्नयन के जरिए अपने खुद के तथा समुदाय के रूपांतरण की दिशा में कदम बढ़ाते हैं।’ (Heyes, Cressida, “Identity Politics”, The Stanford Encyclopedia of Philosophy (Spring 2018 Edition), Edward N. Zalta (ed.),

https://plato.stanford.edu/archives/spr2018/entries/identity-politics/

अस्सी के दशक के अन्त में एवं नब्बे के दशक में – पूर्वी यूरोप के ‘पीपुल्स डेमोक्रेसीज’ का पतन, बर्लिन दीवार का टूटना और अन्ततः सोविएत रूस के बिखराव – आदि के बहाने उजागर हुई समाजवादी परियोजना/प्रयोगों की फौरी विफलता ने या चीन के समाजवाद के प्रयोग के विपथगमन आदि ने वर्गीय राजनीति को जो झटके लगे हैं, उस प्रष्ठभूमि में अस्मिता/पहचान के सवाल अधिक सूर्खियां बने हैं।

इक्कीसवीं सदी की तीसरी दहाई की दहलीज पर फिलवक्त़ हमारे सामने पहचान को लेकर तमाम सवाल हैं, उसकी बनावट को कैसे समझा जाए, मानव के मनोविज्ञान के साथ उसके रिश्ते को कैसे देखा जाए, पहचान के केन्द्र में जो ‘स्व तथा अन्य’ का गतिविज्ञान होता है उसे तथा स्व के अपने गठन को कैसे देखें ?

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बातचीत को आगे बढ़ाने के पहले यह बेहतर होगा हम इस बात से शुरू करें कि पहचान किसे कहा जा सकता है: स्पष्ट है कि वह तमाम पहलूओं की समष्टि के तौर पर देखी जा सकती है (ensemble of many things)-

एक पहलू आप की शारीरिक विशिष्टताओं, आप के चमडे के रंग, आप के जेण्डर या जिस समुदाय से आप ताल्लुक रखते हों उससे या आप किस इलाके के रहनेवाले हों, उससे तय हो सकता है – अर्थात ऐसी विशिष्टताएं जो जन्मजात/प्रदत्त हों,

– दूसरा पहलू हो सकता है जिन्दगी में आप की पसन्दगियां/चाइसेस, आप के निर्णय, चाॅइस का दायरा आप की जीवनशैली, कपड़ों, जिन्दगी की अन्य प्राथमिकताओं से तय होता दिखता है।

– अन्तिम विश्लेषण में देखें तो अस्मिताएं महज इस आधार पर तय नहीं होतीं कि उन पहचानों के वाहक अपने बारे में क्या सोचते हैं मगर वह इस बात से भी निर्धारित होती हैं कि बाकी लोग उन्हें कैसे पहचानते हैं और स्वीकारते हैं।

कुछ समय पहले मुझे दिल्ली में एक ऐसी कार्यशाला में दर्शक के तौर पर उपस्थित रहने का मौका मिला जिसमें दक्षिण एशिया के अलग अलग मुल्कों से प्रतिभागी शामिल थे। एशिया के इस हिस्से में स्त्रिायों की अधीनता के मसले पर विचार करने के लिए वह इकट्ठा हुए थे। पहला ही सत्र पहचान पर था और इस सत्र की प्रमुख वक्ता, जिन्हें इस कार्यशाला का ‘उद्घाटन’ करना था, उन्होंने एक दिलचस्प खेल में सभी प्रतिभागियों को शामिल किया। उन्होंने सभी प्रतिभागियों और हमारे जैसे दर्शकों को हॉल के बाहर एक खुले मैदान में एकत्रित किया और कई सारे सवाल पूछे जो जीवन के तमाम पहलूओं से सम्बधित थे और इसके हिसाब से ग्रुप बनाने के लिए कहा।

उनका पहला प्रश्न था, पुरूष एक तरफ और स्त्रिायां दूसरी तरफ। हम आसानी से देख सकते थे कि सहभागियों में लगभग बराबर का बंटवारा हुआ। उसके बाद उन्होंने एक के बाद एक प्रश्न पूछना शुरू किया।

एक खास प्रश्न मुझे चकित किया। उन्होंने पूछा अपने अपने देशों में जो लोग अल्पसंख्यक हैं, वह एक तरफ हो जाएं और जो लोग बहुसंख्यक हैं, वह दूसरी तरफ हो जाएं। एक खेलनुमा अभ्यास से -जिसे सोशियोग्राम एक्सरसाइज कहा जाता है – वक्त़ा के लिए यह मुमकिन हुआ कि हमारे अन्दर किस तरह कैलिडोस्कोप नुमा बहुविध पहचानें बसती हैं, उसे उजागर करें।

दरअसल एक सामाजिक प्राणी के तौर पर हम विभिन्न किस्म की पहचानों के वाहक होते हैं। जैसे कि एक विद्वान ने लिखा था कि ‘हम बहुविध अक्षों के मिलनबिन्दु पर खड़े होते हैं जो सामाजिक यथार्थ के सभी आयामों को उजागर करने के लिए आवश्यक होते हैं।’ उदाहरण के तौर पर एक साथ कोई व्यक्ति कामगार, प्रवासी, पुरूष, कलाकार आदि अलग अलग रूपों में उपस्थित हो सकता है, पहचाना जा सकता है।

हम यह भी कह सकते हैं कि कोई समाज जितना उन्नत होगा, उसके सामने जो रूचियों/पसन्दगियों का दायरा होगा उसमें प्रचण्ड उछाल आता है और हम बहुविध-बहुविध पहचानों की बात कर सकते हैं। पिछले दिनों मैं एक शख्स से मिला जिसकी मां तांजानिया की थी और पिता भारत के थे, जिसने अपनी शिक्षा ब्रिटेन में ग्रहण की थी, जो इन दिनों सिंगापुर में नौकरी कर रहा था लेकिन उसकी लातिन अमेरिका में खासकर ब्राजिल में चर्चित साम्बा संगीत में दिलचस्पी थी।

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अगर पहचान की राजनीति बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में उरूज पर आयी, तो फिर क्या यह सोचना सही होगा कि लोग अपनी ऐसी पहचानों के बारे में पहले वाकीफ नहीं थे।

दरअसल क्या यह संभव भी है कि पहले जाति, जेण्डर, या नस्ल की वजह से उत्पीड़ित किसी व्यक्ति को यह एहसास नहीं रहा होगा कि उसकी क्या स्थिति है। जाहिर है अपनी उस ‘खास स्थिति’ को वह अलग शब्दों में रखता था। अगर पहले वर्ग की बात अधिक सामान्य थी, अगर पहले वर्गीय राजनीति की चर्चा अधिक थी तो वह उसे उसी शब्दावली में ही पेश करता था। रेखांकित करनेवाली बात है कि डा अम्बेडकर ने खुद भी जाति की अपनी चर्चा में उसे ‘‘बन्द वर्ग’’ अर्थात एनक्लोजड क्लास के तौर पर ही रखा था या अपने लेखन में कई स्थानों पर वह दलितों के संदर्भ में डिप्रेस्ड क्लासेस अर्थात वंचित वर्ग शब्द का ही इस्तेमाल करते थे।

http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00ambedkar/txt_ambedkar_castes.html

यह अकारण नहीं कि प्रख्यात मार्क्‍सवादी विचारक एरिक होब्सबाम के व्याख्यान में (देखें समकालीन तीसरी दुनिया का नवम्बर 2013 अंक) हम इस दिलचस्प तथ्य से रूबरू होते हैं कि 1968 में प्रकाशित ‘इण्टरनेशनल एनसाइक्लोपीडिया आफ सोशल साइंसेज’ में आप को आइडेंटिटी नाम की कोई प्रविष्टि नहीं मिलती है …

https://newleftreview.org/I/217/eric-hobsbawm-identity-politics-and-the-left

‘पहचान की राजनीति और वाम’ शीर्षक से प्रस्तुत इस व्याख्यान में वह कहते हैं:

मेरा व्याख्यान बिल्कुल एक नए विषय पर है। हम सभी ‘‘सामूहिक पहचान’, ‘‘पहचान समूह’’, ‘पहचान राजनीति’ या ‘नस्लीयता’ जैसे शब्दों से इतने परिचित हुए हैं कि यह याद करना भी मुश्किल होता है कि कितने हाल में वह हमारी मौजूदा शब्दावली या राजनीतिक विमर्श की भाषा में आए हैं। मिसाल के तौर पर अगर हम इंटरनेशनल एनसाइक्लोपीडिया आफ द सोशल साइंसेस’ देखें – जो 1968 में प्रकाशित हुआ था – अर्थात साठ के दशक के मध्य में आया था – आप को इसमें ‘पहचान’ के मातहत कोई प्रविष्टि नहीं मिलेगी, बस मनोसामाजिक पहचान के बारे में एक प्रविष्टि होगी, जिसे एरिक एरिकसन ने लिखा है, जो कुल मिला कर किशोरों के ‘पहचान के संकट’ से अधिक चिंतित थे ..

दूसरे यह भी नोट करने लायक है कि पहचान में अपने आप में एक उदय अर्थात emergence का तत्व भी होता है।

आज़ाद भारत में दलित आन्दोलन का उभार सत्तर के दशक में दिखाई देता है, मगर जिसमें दलित स्त्रियों की मौजूदगी प्रतीकात्मक ही है। बाद में दलित स्त्रियां अपने परिवारों में व्याप्त पितृसत्‍ता का मुददा उठाती है, जिसके बारे में दलित आन्दोलन मौन रहा है और वहीं से रफ्ता रफ्ता दलित स्त्रीवाद की धारा पनपनी है। अश्वेत नारीवाद के उदय की भी एक समानान्तर प्रक्रिया है। उदाहरण के लिए अश्वेत नारीवाद अर्थात ब्लैक फेमिनिजम आन्दोलन 60 के दशक में अमेरिका में शुरू हुआ, जिसका यह प्रस्ताव था कि यौनवाद, वर्गीय शोषण-उत्पीड़न, जेण्डर पहचान और नस्लवाद यह मसले एक दूसरे से अन्तर्गुंथित हैं। पश्चिमी जगत में जिसे ‘नारीवाद की दूसरी लहर’ कहा जाता है – जो 60 के दशक के शुरू में अमेरिका में पनपी और बाद में पश्चिम के अन्य देशों में फैली, जिसने यौनिकता, परिवार, कार्यस्थल, प्रजनन अधिकार या घरेलू हिंसा जैसे मसले उठाए, उसके बारे में अश्वेत नारीवाद की यह आलोचना बनी कि वह नस्ल के सवाल पर खामोश रहता है और एक तरह से श्वेत नारी के सरोकारों पर फोकस करता है। लाजिम है कि अश्वेत नारीवाद की हिमायती कार्यकर्ती शुरूआत में उसी धारा में शामिल रही, जिसके बारे में उसकी आलोचना बाद में विकसित हुई।

जानकारों के मुताबिक पहचान के इस नए विचार को औपचारिक शक्ल प्रदान करने में ‘कोमबाही रिवर कलेक्टिव स्टेटमेण्ट’ की चर्चा होती है जिसे अफ्रीकी-अमेरिकी समलैंगिक नारीवादियों के एक समूह ने 1977 में जारी किया था, जिसने अपने मिशन के केन्द्र में ‘पहचान की राजनीति’ को रखा था:

‘‘ हमारे उत्पीड़न हमारा यह जोर पहचान की राजनीति की अवधारणा में समाहित दिखता है। हमारा मानना है कि, किसी अन्य के उत्पीड़न की समाप्ति के लिए सक्रिय होने के बरअक्स, सबसे व्यापक और सम्भवतः सबसे रैडिकल राजनीति हमारी अपनी अस्मिता से सीधे उभरती है। अश्वेत महिलाओं के सन्दर्भ में देखें तो यह खासकर घृणास्पद/असंगत,खतरनाक, जोखिमभरा और इसलिए क्रांतिकारी अवधारणा है क्योंकि हमारे पहले सम्पन्न तमाम राजनीतिक आन्दोलनों की तरफ देखने से यह स्पष्ट हो सकता है कि हमसे ज्यादा मुक्ति की जरूरत किसे है। हम रानी होने से या किसी के पीछे चलने को खारिज करते हैं। हम इतनाही चाहते हैं कि हमें इन्सान समझा जाए।’’

उसी घोषणापत्र में यह भी कहा गया था

‘‘एक बच्चे के तौर पर हम लोगों ने एहसास किया कि हम लड़कों से अलग हैं और इसलिए हमारे साथ अलग ढंग से व्यवहार होता था, एक ही सांस में हमें बताया जाता था कि हम चुप रहें ताकि ‘लड़कीनुमा’ लगे और जो हमें श्वेत लोगों की निगाह में अधिक स्वीकार्य बनाएगा। जागरूक बनने की इस प्रक्रिया में, हम लोगों ने अपने अनुभवों के साझापन को पहचानना शुरू किया और चेतना के इस साझेपन और विकास से, एक ऐसी राजनीति के निर्माण की दिशा में हम आगे बढ़े जो हमारी जिन्दगियों को बदल देगी और हमारे उत्पीड़न को समाप्त कर देगी।  (Combahee River Collective 1982, 14–15).

यह मुददा भी विचारणीय है कि पहचान की राजनीति का उभार और वर्ग की राजनीति के कमजोर पड़ने के बीच क्या सम्बन्ध है?

क्या इसे हम वाम की सीमाओं का परिणाम मानें कि उसने इस मसले को पहचाना नहीं या सम्बोधित नहीं किया तथा अपने आप को सार्वजनीन लगनेवाले मुददों पर फोकस किए रहा। क्या इसे भूमंडलीकरण का परिणाम मानें जिसने वर्गीय ताकतों के संतुलन में निर्णायक बदलाव लाया है तथा इसी ने ‘‘अस्मिता की सियासत’’ को मजबूती दी है या बात कुछ और है?

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अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो पता चलता है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जबकि अक्तूबर इन्कलाब के बाद विभिन्न देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों के बनने एवं मेहनतकशों के आन्दोलनों के तेज होने का सिलसिला चला था, उस तूफानी दौर में यह चिन्तन हावी रहा कि सामाजिक सम्बन्धों और उनसे पैदा होनेवाली सभी सामाजिक पहचानों को लाजिमी तौर पर आर्थिक, राजनीतिक या वर्गीय जड़ों में चिन्हित/न्यूनीकृत किया जा सकता है। लाजिम था कि पहचान आधारित सामाजिक असमानताओं की गहरी जड़ें, उनकी गतिशीलता, नयी परिस्थितियों में नयी जड़ों को जमा पाने की उनकी क्षमता, अपने हितों की पूर्ति करनेवाले प्राक्आधुनिक सम्बन्धों को अपनी सामाजिक संरचना में समाहित करने की पूंजीवाद की क्षमता और एक दूसरे को काटती सामाजिक सम्बन्धों की धुरियां आदि मसलों पर समग्रता में विचार नहीं हो सका। पश्चात्दृष्टि के तहत आज भले हम समझ पा रहे हों कि वर्गीय अन्तर्विरोधों का समाधान खुद ब खुद अन्य सामाजिक अन्तर्विरोधों का समाधान नहीं कर सकता, अन्य सामाजिक अन्तर्विरोधों के मुद्दों को उनके तई सम्बोधित करना लाजिमी है, मगर जिन दिनों भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की नींव पड़ी, उन दिनों यह बात कमसे कम नेतृत्व के लिए स्पष्ट नहीं थी। और लम्बे समय तक यह स्थिति बनी रही।

इसका सीधा असर भारतीय समाज की विशिष्टता कही जानेवाले जाति के मसले को देखने को लेकर हुआ। उच्चनीचसोपानक्रम पर टिकी यह प्रणाली जो – ‘उस बहुमंजिली इमारत की तरह थी जिसमें एक से दूसरी मंजिल जाने की गुंजाइश नहीं थी’ – जिसने महज ‘श्रम का ही नहीं श्रमिक का भी विभाजन’ उसकी समाप्ति के लिए खास किस्म की कोशिशें करनी पड़ेंगी इस बात का एहसास भी आन्दोलन के भीतर नहीं बन सका। ‘ए कान्ट्रिब्युशन टू द क्रिटिक आफ पोलिटिकल इकोनामी’ शीर्षक अपनी रचना में जहां मार्क्‍स उत्पादन सम्बन्धों के उत्पादक शक्तियों के विकास में बेड़ियां बनने एवं सामाजिक क्रान्तियों के युग के शुरू होने की जहां चर्चा करते हैं, वहीं पर उद्धृत मूलाधार एवं अधिरचना का हवाला देते हुए यह बात भी चलती रही कि जाति भारतीय पूंजीवाद के अधूरे विकास का लक्षण है और जैसे जैसे पूंजीवादी विकास आगे बढ़ेगा, जातिप्रथा भी अपने आप ही समाप्त होगी। यहां यह बात भी मद्देनज़र नहीं रखी गयी कि यहां पूंजीवाद का आगमन किसी ‘फ्रांसिसी क्रान्ति’ के जरिए नहीं बल्कि उपनिवेशवाद की छत्रछाया में हो रहा है।

स्पष्ट था कि प्रतिक्रियावादी वर्ण एवं जाति व्यवस्था ने हजारों सालों से भारतीय समाज में कहर बरपा किया था। यह ऐसी प्रणाली थी जिसे हिन्दू धर्मं एवं वैदिक ग्रंथों से स्वीकृति एवं वैधता हासिल थी। मनुस्मृति, जिसमें सामाजिक नियमों को सूत्राबद्ध किया था, उसने शूद्रों, अतिशूद्रों और महिलाओं को बेहद असमान और पीड़ादायक अस्तित्व तक सीमित कर दिया था। जातिव्यवस्था की खासियत यह थी कि वह आनुवंशिक, अनिवार्य और सगोत्र (endogamous) थी। समाज के एक बड़े हिस्से को सभी मानवाधिकारों से – यहां तक कि ईश्वर के दर्शन से भी – वंचित रखनेवाली इस प्रणाली के खिलाफ आवाज़ बुलन्द करना कम्युनिस्टों का पहला फर्ज़ बनता था, मगर वर्गीय अन्तर्विरोधों के समाधान के जरिए बाकी अन्य सामाजिक अन्तर्विरोधों के हल निकलने की बात चूंकि आन्दोलन में हावी थी ; लिहाजा यह मसला सम्बोधित नहीं हो सका।

ऐसा नहीं था कि कम्युनिस्टों ने जातिप्रथा द्वारा सबसे दमित, शोषित, उत्पीड़ित इन तबकों में काम नहीं किया; उन्हें अपने हक-हुकूक की लड़ाई के लिए गोलबन्द नहीं किया, उन्हें मानवीय सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष नहीं किए ; यह अकारण नहीं था कि ऐसे तमाम इलाके जहां आधार बनाने में वह कामयाब हुए वहां 50-60 के दशकों में उन्हें ‘दलितों का नेता’ समझा जाता था, मगर इस विशिष्ट उत्पीड़न को खतम करने के लिए उन्होंने कोई रणनीति नहीं बनायी। प्रोफेसर सुमित सरकार (रायटिंग सोशल हिस्ट्री) बिल्कुल ठीक लिखते हैं कि:

‘‘..इस हकीकत से इन्कार करना अनैतिहासिक होगा कि वाम नेतृत्व और वर्ग की लामबन्दी की पड़ताल के मद्देनज़र निम्न जातियों एवं दलित समूहों को महज आर्थिक लाभों के तौर पर नहीं बल्कि मानवीय गरिमा के सन्दर्भ में भी ठोस नतीजे देखने को मिले …मगर ….वाम ने तमाम इलाकों में काफी कीमत चुकायी क्योंकि जाति को निम्नस्तरीय दावेदारी के रूप के तौर पर देखते हुए उसकी अहमियत को उन्होंने लम्बे समय तक कम आंका।’’

इतनाही नहीं भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन के उद्गम से लगभग 75 साल से अधिक समय से सामाजिक क्रान्तिकारियों ने संघर्ष एवं रचना का जो सिलसिला चलाया था – महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले से लेकर जयोति थास, अछूतानन्द, पेरियार, शाहू महाराज, अम्बेडकर जैसी महान शख्सियतों की अगुआई में स्त्रिायों, शूद्रों, अतिशूद्रों के लिए स्कूल कायम करने से लेकर विभिन्न किस्म के सत्याग्रहों की जो प्रक्रिया चली थी, उसकी अहमियत समझने में, उस धारा से जुड़ने में, उसके अनुभवों को अपने आन्दोलन में समाहित कर उसे समृद्ध करने में भी उन्होंने रूचि नहीं दिखायी। इस धारा ने भारतीय समाज के बुनियादी रूपान्तरण की दिशा में जिन नए प्रयोगों को अंजाम दिया, फिलवक्त इसके विवरण में जाना मुमकिन नहीं हैं – मगर संक्षेप में यह जरूर बताया जा सकता है कि यह वही धारा थी जिसने भारत में कामगार आन्दोलन की नींव डालनेवाले लोखंडे जैसे अग्रणी को पैदा किया जिन्होंने 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बाम्बे मिलहैण्डस एसोसिएशन बना कर मजदूरों के संगठनों की नींव डाली थी, यही वह धारा थी जिसने ताराबाई शिन्दे जैसी ‘पहली नारीवादी विचारक’ (बकौल सुसि थारू) को जनम दिया जिनकी रचना ‘स्त्री पुरूष तुलना’ ने आज एक क्लासिक का रूप ग्रहण किया है, इसी धारा की निर्मिति थे डा अम्बेडकर।

यह भी नहीं कहा जा सकता कि वाम के अन्दर ऐसी आवाज़े नहीं थीं जिन्होंने इस परिघटना की विशिष्टता को समझने की कोशिश नहीं की, या जिन्होंने मार्क्‍सवादी नज़रिये को जातिविरोधी कार्यक्रम के साथ जोड़ने की कोशिश नहीं की, मगर उनकी आवाज़ मद्धिम ही रही। फिर चाहे डा भीमराव अम्बेडकर का सन्तुलित आकलन करनेवाले महान दलित उपन्यासकार अण्णाभाउ साठे हों, जो कम्युनिस्ट पार्टी से अभिन्न रूप से जुड़े थे; तमिलनाडु से सिंगरावेलु हों, जिन्होंने जाति व्यवस्था की समाप्ति के लिए शुरूआत में पेरियार की अगुआई वाले आत्मसम्मान आन्दोलन के साथ काम किया, और बाद में कम्युनिस्ट आन्दोलन से जुड़े या पार्टी के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता कामरेड आर बी मोरे हों, जो डा अम्बेडकर के सहयोगी थे तथा, जिन्होंने महाड सत्याग्रह (1927) में अम्बेडकर का साथ दिया था, उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के पोलिट ब्युरो को ‘अस्पृश्यता की समस्या और जातिप्रथा’ भेजी चिट्ठी हों जिसमें उन्होंने साफ लिखा था:

‘हमारे पांच करोड़ अस्पृश्य सर्वहाराओं की समस्या पार्टी के समक्ष खड़ी प्रमुख समस्या है। पार्टी ने कभी इस समस्या को मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी नज़रिये से सही तरीके से विश्लेषित नहीं किया और जिसका नतीजा यही हुआ है कि पार्टी को काफी नुकसान उठाना पड़ा… हम लोगों ने अस्पृश्यता की समस्या को अर्थवाद आधारित नज़रिये से विश्लेषित किया है.. अस्पृश्यता की परिघटना को सामन्ती परिघटना कहते हुए विश्लेषित करना काफी नहीं है। हमें भारतीय सामन्तवाद की अलग विशिष्टताओं का अध्ययन करना होगा और उन्हें विश्लेषित करना होगा। वर्णाश्रम व्यवस्था और जातिप्रथा भारतीय सामन्तवाद की खास विशिष्टताएं हैं। दुनिया में कहीं भी उनको देखा जा सकता है… हम लोगों ने अभी भी वर्ण हिन्दू सर्वहारा की पुरानी मध्ययुगीन वर्ण हिन्दू चेतना के खिलाफ संघर्ष करने की आवश्यकता को पहचाना भी नहीं है। वर्ण हिन्दू कामगार अभीभी यही सोचता है कि वह सबसे पहले मराठा या ब्राह्मण है और बाद में कामगार है। वर्ग चेतना की तुलना में जाति चेतना अधिक ताकतवर दिखती है। यह जाति चेतना वह बड़ी बाधा है जो हमारे मजदूर वर्ग में सर्वहारा की वर्ग चेतना के विकास को बाधित कर रही है… अब जहां तक अस्पृश्यता के खिलाफ संघर्ष का सवाल है तो डा बाबासाहब अम्बेडकर की भूमिका सबसे अधिक लड़ाकू और सबसे अधिक समझौताविहीन दिखती है। उन्होंने ही अकेले इस बात को रेखांकित किया कि अस्पृश्यता की जड़ में वर्णव्यवस्था और जाति प्रथा है, जिसे पूरी तरह जड़मूल से समाप्त करना होगा। उन्होंने बेहद निर्ममता के साथ सभी पुरानी हिन्दू धर्मग्रंथों पर हमला किया और इसमें कोई आश्चर्य नहीं जान पड़ता कि वह आज अस्पृश्यों के सबसे दमित तबकों के लिए एक किस्म के मसीहा हैं।’’

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पहचान की राजनीति की इस चर्चा में प्रोफेसर प्रभात पटनायक एक अलग आयाम जोड़ते हैं जहां वह उसे तीन श्रेणियों में बांटते हैं और उसके इर्दगिद चली बहस को और समृद्ध करते हैं।

‘नवउदारवाद और जनतंत्र’’ इस विषय पर अपने लेख में उन्होंने इस बात को रेखांकित किया था कि नवउदारवाद के चलते किस तरह मजदूरों की ताकत में कमी आती है, किस तरह मजदूर वर्ग की राजनीति कमजोर होती है और एक वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम आगे बढ़ाने की क्षमता घटती है… उनका आगे यह भी कहना था कि भूमंडलीकरण का युग वर्गीय ताकतों के संतुलन में निर्णायक बदलाव लाता है जिसके दो महत्वपूर्ण परिणाम होते हैं। वर्गीय राजनीति की अधोगति/पतन ‘‘पहचान की राजनीति’’ को मजबूत करती है।

http://peoplesdemocracy.in/2014/0302_pd/neo-liberalism-and-democracy

उनके मुताबिक ‘‘पहचान की राजनीति’’ बहुत दिग्भ्रमित करनेवाला शब्द है क्यांेकि वह अपने आप में बहुत अलग किस्म के और कभी कभी एक दूसरे के खिलाफ खड़े आन्दोलनों को भी एक छाते के नीचे लाता दिखता है, जिस वजह से हमें उसमें तीन अलग अलग परिघटनाओं को फरक करना होगा: ‘‘प्रतिरोधी पहचान राजनीति’’ (identity resistance politics) जैसे हम दलित और स्त्रीमुक्ति आन्दोलन को देखते है / निश्चित ही दोनों की अपनी अपनी विशिष्टताएं है/ ; ‘‘ आईडेंटिटी बार्गेनिंग पालिटिक्स अर्थात ऐसी पहचान राजनीति जो कुछ मोलभाव करके अपनी स्थिति में सुधार लाने का प्रयास करती है, इसमें वह ‘‘पिछड़ी जाति’’ में शामिल करने के लिए जाटों द्वारा उठायी मांग को रखते हैं। इस बात को हम कई अन्य क्षेत्रों में भी देख सकते हैं, जहां कहीं पटेल तो कहीं मराठा तो कहीं गुर्जर/मीणा अपने अपने समुदायों के लिए अधिक अवसर उपलब्ध कराने की मांग करते दिख रहे हैं। तीसरी श्रेणी वह ‘‘फासिस्ट पहचान राजनीति’’ (identity fascist politics) – जिसमें साम्प्रदायिक फासीवाद एक अहम उदाहरण है – रखते हैं। स्पष्ट है कि यह विशिष्ट ‘‘पहचान समूहों’’ पर आधारित होती है तथा उसके निशाने पर कुछ अन्य ‘‘पहचान समूह’’ होते हैं। कार्पोरेट वित्तीय सम्राटों द्वारा समर्थित ऐसी राजनीति वास्तविकता में उनके हितों को आगे बढ़ाती है न कि उन समूहों के हितों को जिनकी वह बात करती है।

वह आगे बताते हैं कि यह तीनों किस्म की ‘‘पहचान राजनीति’’ अपने आप में काफी अलग होती है, अलबत्ता वर्गीय राजनीति की अवनति तीनों पर असर डालती है। वह एक तरह से आईडंेटिटी बार्गेनिंग पाॅलिटिक्स को मजबूती प्रदान करती है जिनके सदस्यों के लिए यह मुमकिन नहीं होता कि वह वर्गीय संगठनों के जरिए अपनी मांगें रख सकें। और इसी तरह वह ‘‘फासिस्ट पहचान राजनीति’’ को इसके चलते मिलते बढ़ावे की बात करते हैं। उनके मुताबिक वर्गीय राजनीति की अवनति का प्रभाव ‘‘प्रतिरोध पहचान राजनीति’’ पर भी होता है, जिसकी क्रांतिकारी धार कम होती है और वह भी एक तरह से मोलभाव की दिशा में अर्थात आईडेंटिटी बार्गेनिंग पालिटिक्स की दिशा में बढ़ती है।

कुल मिला कर, वर्गीय राजनीति के प्रभाव की कमी इस किस्म की ‘‘पहचान की राजनीति’’ को बढ़ावा देती है जो व्यवस्था विरोधी नहीं है बल्कि समाज के एक तबके को दूसरे तबके के खिलाफ खड़ा करके वह उसकी चुनौती को और घटाती है। इसके दो साफ परिणाम होते हैं:

– जाति आधारित सामन्ती व्यवस्था में अस्तित्वमान ‘‘पुराने समुदाय’’ के विध्वंस की परियोजना बाधित होती है और ‘‘नये समुदाय’’ के निर्माण के काम में गतिरोध उत्पन्न होता है, जो बातें जनतंत्र के लिए आवश्यक हैं

– समाज के लम्पटीकरण (lumpenisation) को बढ़ावा मिलता है

आखिर यह पूछा जा सकता है कि लम्पटीकरण की समस्या जो हर पूंजीवादी समाज में पायी जाती है, वह आखिर किस वजह से उछाल मारती है?

प्रोफेसर पटनाईक लिखते हैं कि ‘‘ पूंजीवादी व्यवस्था की यह खासियत होती है कि वह अपनी सामाजिक जीवनक्षमता (social viability) व्यवस्था के अपने तर्क से प्राप्त नहीं करती बल्कि इस तर्क के बावजूद हासिल करती है। एक ऐसी दुनिया, जिसमें मजदूर, जो विविध सामाजिक प्रष्ठभूमि से उजड़ कर एकत्रित हुए हों, वह विखण्डित रहते हैं (atomised) और एक दूसरे के खिलाफ भयानक प्रतिद्धंद्धिता में जुटे रहते हैं, जो पूंजीवादी तर्क की परिणति होती है, ऐसी दुनिया एक असम्भव तथा सामाजिक तौर पर गैरटिकाउ होगी / क्योंकि उसमें कोई ‘‘समाज’’ नहीं होगा/पूंजीवाद के अन्तर्गत सामाजिक जीवनक्षमता उभरती है क्योंकि पूंजीवाद के तर्क के विपरीत कामगार, जो शुरूआत में एक दूसरे से अपरिचित होते हैं वह ‘‘जोड़/समुच्चय’’ बनाते हैं, जो टेड यूनियनों के जरिए वर्गीय संस्थाओं में विकसित होता है, जो हम जिसे ‘‘नया समुदाय’’ कहते हैं उसको जन्म देता है।’’

उनके मुताबिक पूंजीवाद के शुरूआती दिनों में जब घरेलू रिजर्व आर्मी आफ लेबर कम रहती है और टेड यूनियनें मजबूत रहती हैं तब ऐसी संभावनाएं बलवती थीं, मगर नवउदारवाद के दौर में जब बेरोजगारी का सापेक्ष आकार बढ़ा है और टेड यूनियनें कमजोर हुई हैं और कामगार वर्ग की सामूहिक संस्थाएं भी अशक्त हो चली हैं जिसके चलते न केवल मजदूरों के विखण्डन (atomisation) की स्थिति बढ़ी है बल्कि लम्पट सर्वहारा की तादाद भी बढ़ी है और कामगारों के बीच सामाजिक बन्धन अधिकाधिक कमजोर पड़ रहे हैं, जिससे लम्पटीकरण की समस्या बढ़ती है।

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वैसे मौजूदा दौर में पहचान की राजनीति के अधिक सादृश्यता हासिल करने का मतलब क्या यह कहना मुनासिब होगा कि यह मसला अपने आप में नया/अनोखा है, जिसका कोई इतिहास नहीं है। इतिहास के बीते दौर का सिंहावलोकन इसी सच्चाई को रेखांकित करता है कि तमाम चरणों एवं युगों में यह ज्वलन्त मसला रहा है। ‘असमानताओं, उत्पीड़नों, शोषणों, भेदभावों और बेदखलियों का आधार बननेवाली पहचानों के खिलाफ लोग, समुदाय समानता, न्याय, उत्पीड़न और शोषण से मुक्ति की मांग को लेकर संघर्षरत रहे हैं।’ आधुनिकता के आगमन ने जिसने समूची इन्सानियत को तर्कशीलता, वैज्ञानिक चिन्तन, आत्मप्रश्नेयता, प्रगति के रास्ते पर डाला तथा मानवीय समानता के प्रश्न को एजेंडा पर ला दिया, गैरबराबरियों को शह देने वाली सामाजिक और दैवी मान्यताओं को चुनौती दी, उन्हें वैचारिक क्षेत्रा में शिकस्त दी, वहां पर भी औपचारिक समानता ठोस समानता में रूपान्तरित होने में असफल रही है।

मालूम हो कि मार्क्‍सवाद के अन्तर्गत यह समझदारी अधिक प्रचलित रही है कि पूंजीवादी समाज की बुनियाद शोषण पर टिकी है, जिसका समाधान समाजवादी पुनर्वितरण है, राजनीतिक अर्थशास्त्रा के गहरे रूपान्तरण में है ताकि वर्गीय विभाजन एवं भिन्नताएं खतम हों। इसके बरअक्स पहचान की राजनीति की इस धारा के अन्तर्गत लोग यह मानते हैं कि समकालीन समाज का बुनियादी अन्याय ‘समूह के भिन्नता का सांस्कृतिक अस्वीकार’ है, जिसके समाधान के तौर पर वह ‘‘स्वीकार की सियासत’’ (politics of recognition) अर्थात अवमूल्यन किए गए समूहों की पहचानों के पुनर्मूल्यांकन में देखते हैं। आम तौर पर मार्क्‍सवाद और बहुसंस्कृतिवाद को एक दूसरे के विलोम के तौर पर समझा जाता है। यह अकारण नहीं कि हमें पुनर्वितरण और स्वीकार में से, वर्गीय राजनीति और पहचान की राजनीति, समाजवाद और बहुसंस्कृतिवाद में से एक को चुनने के लिए कहा जाता है।

मनुष्य की बहुविध पहचानें (उदाहरण के लिए एक श्रमिक का किसी खास समुदाय, नस्ल, जेण्डर या इलाका से सम्बधित होना आदि) – सामाजिक प्राणी के तौर पर कई पहचानों को साथ में लेकर चलने की उसकी स्थिति – इन पहचानों के अपने भौतिक आधार, मुख्यतः सामाजिक और सांस्कृतिक कल्पना में निर्मित होती दिखती या अपने आप को महज अधिरचनात्मक आयामों में प्रस्तुत करती इन पहचानों की जड़ों का ठोस सामाजिक आर्थिक यथार्थ से निकलना और उन बुनियादों को भी गढ़ने में उनके योगदान आदि बातें अब अधिक चर्चा में आ रही हैं। इसमें भी कोई दोराय नहीं कि यह पहचानें विभिन्न किस्म की गैरबराबरियों, उत्पीड़नों, भेदभावों और बेदखलियों की लम्बी श्रृंखला के लिए आधार तैयार करती हैं, इतना ही नहीं वे उत्पादन की पद्धतियों में भी अभिव्यक्त होती हैं और शोषण की व्यवस्था को भी पुख्ता करती हैं। (देखें: ‘कामगारों के लिए दुनिया, दुनिया के लिए भविष्य, मसविदा घोषणापत्रा, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव)। मिसाल के तौर पर जेण्डर, जाति, नस्ल, नृजातीयता, राष्ट्रीयता , धार्मिक पहचान आदि को उन सामाजिक रिश्तों के उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है जो वर्गसम्बन्धों की धुरी को विभिन्न प्रकार से काटते हैं और उसके साथ ही सामाजिक यथार्थ को गढ़ते हैं।

पहचान आधारित असमानताएं पूर्वआधुनिक समाजों की खासियत रही हैं। उन्हें दैवी स्वीकृति भी मिलती रही है। यह प्रश्न फिर विचारणीय हो उठता है कि आधुनिकता के आगमन ने – जिसके जरिए ईशकेन्द्रित समाज के स्थान पर मानवकेन्द्रित समाज की दिशा में इन्सानियत ने छलांग लगा ली – जिसने मानवीय समानता के मूल्य को प्रतिष्ठित किया, जिसने आत्मप्रश्नेयता, प्रगति, मानवीय कर्तृत्व (हयूमन एजेंसी), वैज्ञानिक चेतना आदि के सवाल को सामने लाया, वह आखिर किन वजहों से इन प्राक्आधुनिक संस्थाओं, मान्यताओं को समाप्त नहीं कर सका। अपने दावों में निहित औपचारिक समानता को प्रत्यक्ष समानता को रूपान्तरित करने में उसकी असफलता स्पष्ट है। यह अकारण नहीं कि विभिन्न पहचान आधारित असमानताएं विकसित कहे गए देशों में भी पूरी तरह बरकरार हैं।

इसके कई कारण चिन्हित किए जा सकते हैं:

पहला तो इन पहचान आधारित असमानताओं की गहरी जड़ों को चिन्हित किया जा सकता है जो इस कदर गतिशील दिखती हैं कि नए हालात में, नयी परिस्थितियों में भी जड़ें जमा लेती हैं। उदाहरण के लिए जेण्डर अर्थात स्त्री पुरूष भेद या पितृसत्ता के मसले को लें, जिसके अन्तर्गत हम इस कड़वी हकीकत से रूबरू होते हैं कि स्त्रिायों की अधीनता का सवाल समाज के विभिन्न स्थित्यंतरणों में बदस्तूर चलता दिखता है। वर्गी समाज के विभिन्न प्रतिबिम्बनों – गुलामी, सामन्तवाद, पूंजीवाद से लेकर समाजवादी प्रयोगों में भी नए रंगरोगन के साथ हाजिर होता दिखता है।

दूसरी अहम बात आधुनिकता की समूची परियोजना से हैं। नवोदित पूंजीवाद के तहत अस्तित्व में आयी आधुनिकता अपने आगमन के प्रारम्भिक काल में धर्म जैसी प्राकआधुनिक मान्यताओं, संस्थाओं के खिलाफ बग़ावत का परचम उठाती दिखती है जो बाद में दिनों में उसी के साथ समझौता करती भी नज़र आती है। किसी वक्त़ ‘समानता, मुक्ति एवं बंधुत्व’ का नारा देनेवाला पूंजीवाद जिस तरह प्राक्आधुनिक समाज के उन सम्बन्धों को अपने हक़ में इस्तेमाल करता दिखता है, जो उसके हितों के अनुकूल हो, उसका असर आधुनिकता के वास्तविक अमल पर भी दिखता है।

यह भी समझना आवश्यक है कि सभी किस्म की सामाजिक पहचानों को हम आर्थिक, वर्गीय या राजनीतिक जड़ों में चिन्हित या न्यूनीकृत नहीं कर सकते हैं। जाहिर है कि यह मानना सही नहीं होगा कि किसी अलसुबह वर्गीय अन्तर्विरोधों का समाधान खुद ब खुद तमाम सामाजिक अन्तर्विरोधों का हल कर देगा। समाज में उपस्थित अन्य सामाजिक अन्तर्विरोधों को उनके तईं हमें सम्बोधित करना होगा। वर्गीय अन्तर्विरोधों का एक रैडिकल या प्रगतिशील समाधान बाकी अन्तर्विरोधों के समाधान का रास्ता सुगम कर सकता है, लेकिन अपने आप वह किसी समाधान को जन्म नहीं दे सकता। और यह बात भी आसानी से समझ आ सकती है कि वर्गीय अन्तर्विरोधों के ऐसे समाधान की स्थितियां तभी बन सकती हैं, जब पहचान आधारित मान्यताओं पर बंटें लोग एकजुट होकर कोई सार्थक कदम उठाएं अर्थात पहचान आधारित अन्तर्विरोधों के मुक्तिदायी समाधान की दिशा में हम आगे बढ़ चुके हों। कहने का तात्पर्य पहचान आधारित अन्तर्विरोधों के प्रगतिशील समाधान एवं वर्गीय अन्तर्विरोधों के मुक्तिदायी समाधान के बीच एक अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है।

अन्त में, एक अहम बात पर स्पष्टता आवश्यक है। क्या ऐसे समाजवादी भविष्य का तसव्वुर किया जा सकता है, जहां पर सभी पहचानें मिटा दी गयी हों, या किसी सार्वभौमिक पहचान के दायरे में समेट दी गयी हों। क्या ऐसे समाज की कल्पना की जा सकती है जो इस कदर समरूप और एकसार हो कि उसमें कोई सामाजिक पहचान बची न हो।

निश्चित ही ऐसा सोचना सर्वथा असंगत होगा बल्कि मानवीय प्रगति की ऊर्ध्‍वगामी दिशा के प्रतिकूल होगा। सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता हर मानवीय सभ्यता का अंग बनी रही है और समाज जब शोषण और उत्पीड़न से मुक्त हो जाएगा, तब उनके विलुप्त होने की बात ही नहीं उठती। उल्टे हम ऐसी नई पहचानों को फलने-फूलने की कल्पना कर सकते हैं, जो इस विविधता को अधिकाधिक उन्नत करती जाएं। ऐसे समाजों में पहचानें, उनकी विविधताएं बनी रहेंगी, मगर उसमें एक शर्त अनिवार्य होगी। पहचानों पर आधारित असमानताएं, अन्याय और उत्पीड़न एवं शोषण के लिए उसमें कोई स्थान नहीं होगा, उनका उन्मूलन अनिवार्य होगा।

प्रस्तुत नोट का समापन फिर एक बार ऊपरोल्लेखित सन्दर्भ से (कामगारों के लिए दुनिया…) करना समीचीन होगा:

‘‘एक सामाजिक अभिप्राय और सामाजिक परिक्षेत्र में जो विविध है उनके बीच अनिवार्य समानता होनी चाहिए। सामाजिक समानता की चाह न केवल इसलिए एक ऐतिहासिक अनिवार्यता है कि हम सभी मनुष्य हैं बल्कि ये इसलिए भी अनिवार्य है कि हम सभी एक-दूसरे से भिन्न है।’’

  • पुस्‍तक : चार्वाक के वारिस : समाज, संस्कृति और सियासत पर प्रश्नवाचक
  • लेखक: सुभाष गाताडे
  • पृष्ठ संख्या : 314
  • प्रकाशक:ऑथर्स प्राइड पब्लिशर प्रा. लि.55-ए, पॉकेट – डी, एस.एफ.एस., मयूर विहार फेज़-III, दिल्ली 110096 फोन: 9810402776, 9810408776 ईमेल: AuthorsPridePublisher@gmail.com


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