‘’मैं देखता हूं कि जो लोग कभी कांग्रेस के स्तंभ हुआ करते थे, आज सांप्रदायिकता ने उनके दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया है. यह एक किस्म का लकवा है, जिसमें मरीज को पता तक नहीं चलता कि वह लकवाग्रस्त है. मस्जिद और मंदिर के मामले में जो कुछ भी अयोध्या में हुआ, वह बहुत बुरा है. लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि यह सब चीजें हुईं और हमारे अपने लोगों की मंजूरी सी हुईं और वे लगातार यह काम कर रहे हैं.’’
जवाहरलाल नेहरू, 17 अप्रैल 1950
तीन दशक से ऊपर का समय हो गया, जब से राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद भारत में चुनावी राजनीति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का औजार बना हुआ है. इस मुद्दे ने केंद्रीय राजनीति में उस समय जगह बनाई, जब विवादित स्थल का ताला खुलवाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मूर्तियों की पूजा शुरू कराई. राजीव गांधी यह काम इसलिए कर रहे थे, कि किसी तरह वे बहुसंख्यक समुदाय को यह संदेश दे सकें कि उनकी कांग्रेस पार्टी हिंदू विरोधी नहीं है.
लेकिन, उनके उठाए इस मुद्दे को विपक्षी भाजपा ने तुरंत लपक लिया. उसके बाद 1990 में लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा शुरू की. टीवी पर रामायण जैसा सुपरहिट धारावाहिक आने के बाद लोगों को भगवान राम अब सिर्फ आध्यात्मिक रूप से ही नजर नहीं आ रहे थे, वे जीते जागते नायक की तरह लोगों के बीच थे. टेलीविजन पर भगवान के दर्शन करने के बाद आम आदमी में भक्ति का एक ऐसा सैलाब उमड़ रहा था, जैसा फुटबॉल देखने वाले किसी दर्शक के हृदय का हाल होता है. जब आडवाणी की रथ यात्रा में ‘रामलाल हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ और ‘जिस हिंदू का खून न खौले, खून नहीं वह पानी है’, ‘बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का’, जैसे नारे गूंजे तो पूरे देश में जबरदस्त सांप्रदायिक आंधी उठी. उसके बाद देश में बहुत जगह दंगे हुए. और सबसे बुरी प्रतिक्रिया यह हुई की कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के खिलाफ आतंकवाद की जबरदस्त मुहिम चली. हजारों पंडितों को घाटी छोड़कर जम्मू, पंजाब और दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में भागने को विवश होना पड़ा. उनमें से ज्यादातर की घर वापसी आज तक नहीं हो सकी.
उसके बाद 6 दिसंबर, 1992 में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. जब भीड़ ने वह मस्जिद गिराई, तो लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती जैसे भाजपा के बड़े नेता वहां मौजूद थे.
बाबरी मस्जिद गिराने के तुरंत बाद मुंबई में बम धमाके हुए. इसमें सैकड़ों लोग मारे गए. अयोध्या में मस्जिद गिराए जाने की प्रतिक्रिया में बांग्लादेश और पाकिस्तान में बड़ी संख्या में मंदिरों को गिराया गया.
यह मुद्दा तब से गर्म है. और अब 2019 का लोकसभा चुनाव आ रहा है तो उसके पहले फिर अयोध्या विवाद सुर्खियों में लाया जा रहा है. विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने लेखक के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट जल्द इसकी सुनवाई नहीं करता और फैसला नहीं सुनाता तो अब वह बहुत दिन तक इंतजार नहीं करेंगे.
लेकिन इन सब बातों की चर्चा नेहरू जी की किताब में क्यों की जा रही है. वह इसलिए क्योंकि जिस ताले को राजीव गांधी ने खुलवाया था, वह ताला लगाया गया था, नेहरूजी के जमाने में. जब 21-22 दिसंबर 1949 की सर्द रात में अचानक अयोध्या की बाबरी मस्जिद में भगवान राम और अन्य देवी देवताओं की मूर्तियां रख दी गईं, तब इस देश में जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के मौजूदा विवाद की शुरुआत हुई.
यह बहुत नाजुक समय था. देश के प्रधानमंत्री नेहरू थे, तो गृहमंत्री सरदार पटेल थे. पटेल उस तरह के गृहमंत्री नहीं थे, जैसे कि हम आजकल की सरकारों में देखते हैं. आजकल तो प्रधानमंत्री का कहा ही गृहमंत्री का कहा होता है. तब जो मामला गृहमंत्री के पास होता था, उसे वह अपने विवेक से ही सुलझाते थे. कई बार तो ऐसे वाकये भी आए जब नेहरू को पटेल को यह समझाना पड़ा कि प्रधानमंत्री होने के नाते वे किसी भी मंत्रालय में दखल दे सकते हैं. किसी मंत्री को प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप पर आश्चर्य या ऐतराज नहीं करना चाहिए.
उस समय तत्कालीन संयुक्त प्रांत और अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविदं वल्लभ पंत हुआ करते थे. पंतजी बाद में देश के गृहमंत्री भी रहे. पंतजी नेहरू के पुराने साथी थे. जब साइमन कमीशन के विरोध में शान से तिरंगा उठाने के जुर्म में छरहरे नेहरू ने लाठियां खाई थीं, तब उनसे कहीं ज्यादा लाठियां लंबे-तगड़े पंतजी की देह पर बरसीं थीं. लेकिन अब जमाना और था.
जिस समय अयोध्या में भगवान राम की मूर्तियां रखी गईं, उस समय भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर भारी तनाव में थे. भारत करीब डेढ़ साल की लड़ाई के बाद कश्मीर से कबायलियों को खदेड़ चुका था. लेकिन इस बीच शेख अब्दुल्ला आजाद कश्मीर की बातें करने लगे थे. नेहरूजी इस बात पर पूरा जोर लगा रहे थे कि किसी तरह कश्मीर के बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय को हार्दिक रूप से भारत से जोड़े रखा जाए, ताकि किसी भी सूरत में कश्मीर भारत में बना रहे. उसी समय जनसंघ और अन्य दक्षिणपंथी दल कश्मीर के भारत में विशेष दर्जे के खिलाफ अभियान चलाए हुए थे. जिसे नेहरू ने बहुत ही गलत नीति करार दिया था. एक ऐसी नीति जो अंतत: पाकिस्तान को फायदा पहुंचाने वाली थी और भारत-कश्मीर संबंधों को खराब करने वाली थी. इसके अलावा भारत सरकार पाकिस्तान के साथ युद्ध टालने के लिए लगातार राजनयिक विकल्पों पर काम कर रही थी.
ऐसे मौके पर बाबरी मस्जिद के भीतर मूर्तियां रख दी गईं. मूर्तियों को रखे जाने की घटना नेहरू की मुसलमानों का विश्वास जीतने और पूरी दुनिया में भारत की धर्म निरपेक्ष छवि के खिलाफ थी. घटना के तुरंत बाद नेहरू ने मुख्यमंत्री पंत को तार भेजकर हालात की जानकारी ली. उन्होंने मुख्यमंत्री से फोन पर भी बात की. नेहरू को तभी भविष्य की तस्वीर दिखाई दे रही थी. उन्होंने कहा था कि हम गलत नजीर पेश कर रहे हैं. इसका सीधा असर पूरे भारत और खासकर कश्मीर पर पड़ेगा. उन्होंने यह भी कहा था कि हम हमेशा के लिए एक फसाद खड़ा कर रहे हैं. नेहरू जो कह रहे थे, उसे हमने बाद में सही होते देखा.
सरकार वहां से मूर्तियों को तुरंत हटाना चाहती थी. लेकिन ताज्जुब की बात है कि सरकारी आदेश के बावजूद फैजाबाद के डीएम ने मूर्तियां हटाने से इनकार कर दिया. आज भी यह सोचकर ताज्जुब होता है कि खुद प्रधानमंत्री जिस मामले में दिलचस्पी ले रहा हो, उस मामले में सरकारी आदेश की तामील न हो सके. कहीं ऐसा तो नहीं कि बीच में कुछ और बड़े ताकतवर लोग थे, जो चीजों को रोक रहे थे.
26 दिसंबर 1949 को नेहरू ने पंत को टेलीग्राम किया, ‘‘मैं अयोध्या के घटनाक्रम से चिंतित हूं. मैं उम्मीद करता हूं कि आप जल्दी से जल्दी इस मामले में खुद दखल देंगे. वहां खतरनाक उदाहरण पेश किए जा रहे हैं. जिनके बुरे परिणाम होंगे.’’
इस पत्र के साथ नेहरू वांग्मय के संपादक ने पाद टिप्पणी दर्ज की, ‘‘21-22 दिसंबर की रात संयुक्त प्रांत के फैजाबाद जिले के अयोध्या कस्बे में बाबरी मस्जिद में अंधविश्वास पूर्वक भगवान राम और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापति कर दी गईं. ऐसा दावा किया जाता था की मस्जिद 16वीं सदी के हिंदू मंदिर को गिरा कर बनाई गई. और यह मंदिर भगवान राम का जन्म स्थान है. सरकार ने उस इलाके को विवादित घोषित कर दिया और ताला लगा दिया.’’
7 जनवरी 1950 को नेहरू जी ने भारत के गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को पत्र लिखा:
‘‘मैंने पिछली रात पंत जी को अयोध्या के बारे में लिखा और यह पत्र एक आदमी के हाथ से लखनऊ भेजा. बाद में पंडित जी ने मुझे फोन किया. उन्होंने कहा कि वह बहुत चिंतित हैं और वह खुद इस मामले को देख रहे हैं. वह कार्यवाही करना चाहते हैं, लेकिन वह चाहते थे कि कोई प्रतिष्ठित हिंदू पूरे मामले को अयोध्या के लोगों को समझा दे. मैंने उनको आपके पत्र के बारे में बता दिया, जो आपने मुझे सुबह भेजा है. वल्लभभाई भी कल पंत जी की निवेदन पर लखनऊ जा रहे हैं. वह संसद के चुनावों के सिलसिले में वहां जा रहे हैं.’’
इसके बाद अयोध्या के मामले में 16 जनवरी 1950 को फैज़ाबाद के सिविल जज की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया गया.
5 फरवरी 1950 को नेहरू जी ने फिर पंतजी को पत्र लिखा:
‘‘मुझे बहुत खुशी होगी, अगर आप मुझे अयोध्या के हालात के बारे में सूचना देते रहें. आप जानते ही हैं कि इस मामले से पूरे भारत और खासकर कश्मीर में जो असर पैदा होगा, उसको लेकर मैं बहुत चिंतित हूं. मैंने आपको सुझाव दिया था कि अगर जरूरत पड़े तो मैं अयोध्या चला जाऊंगा. अगर आपको लगता है कि मुझे जाना चाहिए तो मैं तारीख तय करूं. हालांकि मैं बुरी तरह व्यस्त हूं.’’
पंतजी ने 9 फरवरी 1950 को जवाब दिया कि अयोध्या के हालात में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं है. उन्होंने लिखा कि मुसलमान इस मामले को अयोध्या से बाहर ट्रांसफर करने के लिए हाईकोर्ट जाना चाहते हैं. नेहरू की अयोध्या आने के प्रस्ताव पर पंत ने लिखा, ‘‘अगर समय उपयुक्त होता तो मैंने खुद ही आपसे अयोध्या आने का आग्रह किया होता.’’
जब अयोध्या में यह सब हो रहा था, तब तक पश्चिम और पूर्वी बंगाल सांप्रदायिकता की बाढ़ से उबरे नहीं थे. पाकिस्तान वाले बंगाल से बड़े पैमाने पर हिंदुओं को पलायन के लिए विवश किया जा रहा था. भारत के बंगाल से भी मुसलमान पलायन करने को मजबूर थे, लेकिन उनकी संख्या कम थी. यह वह दौर था जब नेहरू ने सरदार पटेल से यहां तक कह चुके थे कि वह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर बंगाल जाकर वहां के हालात सुधारना चाहते हैं. उस पर अयोध्या की इस घटना ने सांप्रदायिकता के नए शोले भड़का दिए थे.
ऐसे हालात में 5 मार्च 1950 को पंडित नेहरू ने केजी मशरूवाला को पत्र लिखा:
मेरे प्यारे किशोरी भाई,
4 मार्च के आपके पत्र के लिए धन्यवाद. मैं संक्षेप में आपको जवाब दे रहा हूं. कल सुबह मैं कोलकाता जा रहा हूं.
मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि भारतीय प्रेस आरोपों से परे नहीं है. मैंने उस अरसे का जिक्र किया, जब उसने कुछ बेहतर रुख अपनाया था. उसके बाद से इसका स्तर लगातार गिरता गया है, हालांकि पाकिस्तान के प्रेस का स्तर इससे भी बुरा है. पश्चिम बंगाल की सरकार ने कोलकाता के प्रेस को कुछ हद तक अतिवादी होने से रोका है, लेकिन कोलकाता में इतनी ज्यादा उत्तेजना है कि उन्हें धीरज बंधाना कठिन है. खुले तौर पर लड़ाई की बातें कही जा रही हैं और जिस तरह के पोस्टर कोलकाता में लगाए गए हैं, वह बहुत बुरा है.
इस बात में कोई संदेह नहीं है की पूर्वी बंगाल में हिंदुओं के साथ बुरा से बुरा व्यवहार किया जा रहा है. कोलकाता में रह रहे मुसलमान भी आतंक के वातावरण में रह रहे हैं, हालांकि यहां कुछ ही लोग मारे गए हैं. पूर्वी बंगाल से बड़े पैमाने पर लोग पश्चिम बंगाल आ रहे हैं, जबकि पश्चिम बंगाल से और असम से कम संख्या में लोग पूर्वी बंगाल जा रहे हैं.
आपने अयोध्या की मस्जिद का जिक्र किया. यह वाकया दो या तीन महीने पहले हुआ और मैं इसको लेकर बहुत बुरी तरह चिंतित हूं. संयुक्त प्रांत सरकार ने इस मामले में बड़े-बड़े दावे किए, लेकिन असल में किया बहुत कम. फैजाबाद के जिला अधिकारी ने दुर्व्यवहार किया और इस घटना को होने से रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया. यह सही नहीं है कि बाबा राघवदास ने यह शुरू किया, लेकिन यह सच है कि यह सब होने के बाद उन्होंने इसे अपनी सहमति दे दी. यूपी में कई कांग्रेसियों और पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने इस घटना की कई मौकों पर निंदा की, लेकिन वह कोई फैसलाकुन कार्रवाई करने से बचते रहे. संभवत: वह ऐसा बड़े पैमाने पर दंगे फैलने के डर से कर रहे हैं. मैं इससे बुरी तरह अशांत हूं. मैंने बार-बार पंडित जी का ध्यान इस तरफ खींचा है.
मैं इस बारे में बिल्कुल आश्वस्त हूं कि अगर हमने अपनी तरफ से उचित व्यवहार किया होता तो पाकिस्तान से निपटना आसान हो गया होता. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है तो आज बहुत से कांग्रेसी भी सांप्रदायिक हो गए हैं और इसकी प्रतिक्रिया भारत में मुसलमानों के प्रति उनके व्यवहार में दिखती है. मुझे समझ नहीं आ रहा कि देश में बेहतर वातावरण बनाने के लिए हम क्या कर सकते हैं. कोरी सद्भावना की बातें लोगों में खीझ पैदा करती हैं, खासकर तब जब वे उत्तेजित हों. बापू यह काम कर सकते थे, लेकिन हम लोग इस तरह के काम करने के लिए बहुत छोटे हैं. मुझे डर है कि मौजूदा माहौल में बापू के शांति मार्च के नक्शे कदम पर भी चलने की कोई संभावना नहीं है.’’
दरअसल हुआ यह था कि बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रखे जाने के समय 1930 बैच के आइसीएस के के नायर फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट थे. तत्कालीन चीफ सेक्रेटरी और इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस ने मस्जिद से मूर्तियां हटाने का आदेश दिया लेकिन नायर ने आदेश मानने से मना कर दिया. नायर ने कहा कि वह अपने अधिकार क्षेत्र में ऐसा आदेश लागू नहीं कर सकते, क्योंकि वह इस बारे में पूरी तरह वाकिफ हैं कि इससे बेगुनाह जिंदगियों को कितनी तकलीफें झेलनी पड़ेंगी. नायर को तत्काल वहां से हटा दिया गया था.
नेहरू अपने पत्र में जिन राघवदास का जिक्र कर रहे हैं, उनका पूरा नाम राघवेंद्र शेषअप्पा पाचापुरकर उर्फ बाबा राघवदास था. उन्होंने 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ज्वाइन की थी. उन्होंने गोरखपुर को अपना मुख्यालय बनाया. वह राजनैतिक, नैतिक, सामाजिक और शैक्षणिक उद्धार के लिए काम करते थे. वह 1946 में यूपी विधानसभा के लिए चुने गए. उन्होंने राष्ट्रवाद, हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करना, समाज सुधार, सांप्रदायिक एकता, सभी जातियों की समानता, गीता प्रेस की शुरुआत जैसे काम किए. वह भूदान और खादी के काम से भी जुड़े थे.
अयोध्या विवाद को लेकर नेहरू की यह टिप्पणी कि संयुक्त प्रांत की सरकार ने बड़े-बड़े दावे किए, लेकिन असल में किया कुछ भी नहीं. नेहरू का यह कहना कि संयुक्त प्रांत सरकार ने कोई निर्णायक कार्रवाई नहीं की. और पत्र के अंत में यह कहना कि बहुत से कांग्रेसी भी पाकिस्तान के मुद्दे को लेकर भारत में मुसलमानों के प्रति सांप्रदायिक हो गए थे. बताता है कि इस मामले में नेहरू कितने अकेले पड़ गए थे. उनके अपने लोग उनकी सुनने को तैयार नहीं थे. और उसके बाद ठीक वही नतीजे अयोध्या के मामले को लेकर सामने आते रहे, जिनकी चेतावनी नेहरू दे रहे थे.
17 अप्रैल 1950 पंडित नेहरू ने फिर गोविंद बल्लभ पंत को पत्र लिखा:
शाहजहांपुर के बारे में आपके पत्र के लिए शुक्रिया. मुझे पूरा भरोसा है कि उत्तर प्रदेश में हाल ही में पेश आई दिक्कतों के बारे में आपकी सरकार ने सख्त और कारगर कदम उठाए होंगे. मुझे यह जानकर खुशी है कि आप की कार्रवाई और आपने जो समझौता किया, उसके फलस्वरूप हालात अब स्थिरता की ओर बढ़ रहे हैं.
यूपी में हाल ही में हुई घटनाओं ने मुझे बुरी तरह दुखी किया है. या यों कहें कि लंबे समय से मैं जो महसूस कर रहा हूं, यह उसका मिलाजुला असर है. लोगों की मौत और हत्याओं की खबर बहुत दुखदायी होती है, लेकिन इससे मैं उतना परेशान नहीं होता. जो चीज मेरा दिल को कचोटती है, वह है मानव मूल्यों को पूरी तरह पतन. और हद तो तब हो जाती है, जब इस तरह की हरकतों को वाजिब ठहराया जाता है.
मैं लंबे समय से महसूस कर रहा हूं कि सांप्रदायिकता के लिहाज से यूपी का माहौल बुरी तरह बिगड़ता जा रहा है. बल्कि यूपी मेरे लिए एक अजनबी जमीन होती जा रही है. मैं खुद को उसमें फिट नहीं पाता. यूपी कांग्रेस कमेटी, जिसके साथ में 35 साल तक जुड़ा रहा, अब इस तरह काम कर रही है, जिसे देखकर मैं आश्चर्य में पड़ जाता हूं. इसकी आवाज उस कांग्रेस की आवाज नहीं है, जिसे मैं जानता हूं, बल्कि यह आवाज उस तरह की है जिसका मैं पूरी जिंदगी विरोध करता रहा हूं. पुरुषोत्तम दास टंडन, जिनसे मुझे दिली मोहब्बत है और जिनका मैं सम्मान करता हूं, वह लगातार भाषण दे रहे हैं. वह भाषण मुझे कांग्रेस के बुनियादी उसूलों के खिलाफ नजर आते हैं. विशंभर दयाल त्रिपाठी जैसे दूसरे कांग्रेस मेंबर इस तरह के आपत्तिजनक भाषण दे रहे हैं, जैसे भाषण हिंदू महासभा के लोग देते हैं.’’ पाठक जानते ही होंगे कि पुरुषोत्तमदास टंडन को नेहरू के लाख विरोध के बावजूद सरदार पटेल ने कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया था. पटेल की मृत्यु के बाद ही नेहरू टंडन का इस्तीफा कराने में कामयाब हो पाए थे.
बहरहाल पत्र में नेहरू आगे कहते हैं, ‘‘अनुशासनात्मक कार्रवाई के बारे में हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन सांप्रदायिकता के मामले में कांग्रेस की नीति में जो बुनियादी बिगाड़ आ रहा है, उसे हम लगातार स्वीकार किए जा रहे हैं.
अगर समुद्र ही अपना खारापन छोड़ दे, तो फिर खारापन लाएंगे कहां से.
मैं लंबे समय से यूपी नहीं आया हूं, इसकी एक वजह तो यह है कि मेरे पास वक्त की कमी है, लेकिन असली वजह यह है कि मुझे वहां आने में हिचक होने लगी है. मैं अपने पुराने सहयोगियों के साथ विवाद में पड़ना नहीं चाहता और लेकिन मैं वहां बुरी तरह असहज महसूस करता हूं. मैं देखता हूं कि जो लोग कभी कांग्रेस के स्तंभ हुआ करते थे, आज सांप्रदायिकता ने उनके दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया है. यह एक किस्म का लकवा है, जिसमें मरीज को पता तक नहीं है कि वह लकवाग्रस्त है. मस्जिद और मंदिर के मामले में जो कुछ भी अयोध्या में हुआ और होटल के मामले में फैजाबाद में जो हुआ, वह बहुत बुरा है. लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि यह सब चीजें हुईं और हमारे अपने लोगों की मंजूरी सी हुईं और वे लगातार यह काम कर रहे हैं.
मुझे लगता है कि कुछ वजहों से बल्कि सियासी वजहों से हम इस बीमारी के बारे में बहुत ज्यादा काहिल हो गए हैं. यह पूरे देश में और हमारे अपने प्रांत में फैल रही है. कई बार मुझे लगता है कि मैं सारे काम छोड़ कर इसी मुद्दे पर काम में जुट जाऊं. हो सकता है एक दिन मैं यही करूं. अगर मैं यह करता हूं तो यह क्रूसेड होगा और मैं अपनी पूरी ताकत से इस काम में लगूंगा.
यूपी में कानून का राज स्थापित हो गया है. कोई घटनाएं सामने नहीं आ रही हैं. यहां से लोगों के जाने का सिलसिला कम हो गया है या लगभग रुक गया है. यह सब बहुत अच्छा है, लेकिन मुझे जो रिपोर्ट मिल रही हैं वह बताती हैं कि भले ही कोई बड़ी घटना न हो रही हो, लेकिन सामान्य माहौल वहां के असली हालात को बताता है. एक दिन एक मुसलमान एक शहर में सड़क पर चला जा रहा था, उसको तमाचा मारा गया और कहा गया कि पाकिस्तान चले जाओ या फिर उसको थप्पड़ मारा जाता है या उसकी दाढ़ी खींची जाती है. गलियों में मुसलमान औरतों पर भद्दी टिप्पणियां की जा रही हैं और उन पर ‘पाकिस्तान जाओ’ जैसे फिकरे कसे जा रहे हैं. हो सकता है कि यह काम कुछ ही लोग कर रहे हों, लेकिन यह बात तो है ही कि हमने एक ऐसे वातावरण का फैलना बर्दाश्त किया, जिसमें इस तरह की चीजें हो रही हैं और दूसरे उन्हें देख रहे हैं और मंजूरी दे रहे हैं.
मेरा दिल कहता है कि जो लोग कांग्रेस में काम कर रहे हैं, उनके दिल अभी भी काफी हद तक मजबूत हैं और उन्हें हम अपनी बात समझा सकते हैं, लेकिन नेतृत्व कमजोर है और वह लगातार गलत चीजों के साथ समझौता कर रहा है. यही वजह है कि हमारे कार्यकर्ता भटक रहे हैं.
हमारी बड़ी-बड़ी बातों से कोई देश हमारे बारे में कुछ भी सोचता रहे, लेकिन हकीकत यही है कि हम पिछड़े हुए लोग हैं, जो संस्कृति के मामले में सबसे ज्यादा पिछड़े हुए हैं. वही लोग संस्कृति के बारे में सबसे ज्यादा बात कर रहे हैं, जिनके अंदर इसका एक कतरा तक नहीं है.’’
22 अप्रैल को पंत ने जवाबी पत्र में लिखा: प्रांत के कुछ भागों में जो ज्यादतियां हुई हैं, उनके लिए मैं शर्मिंदा हूं. हालात मोटे तौर पर सामान्य हो रहे हैं, लेकिन यह तथ्य कि हम हालात को इस कदर बिगड़ने से रोक नहीं सके, मुझे लगातार शर्मिंदा कर रहा है.’’
नेहरू जी के पत्र में होटल का जिक्र आया है. दरअसल, फैजाबाद में एक मुस्लिम के होटल को प्रशासन ने खाली करा लिया और अगले ही दिन एक हिंदू ने उस पर कब्ज़ा कर लिया था.
ये सब चीजें नेहरू और हिंदुस्तान के लिए नासूर बनती जा रही थीं. 18 मई 1950 को नेहरू ने बिधान चंद्र रॉय को पत्र लिखा:
16 मई के आपके पत्र के लिए धन्यवाद. इस पत्र में आपने मुझे ढाका में आपकी बैठक के बारे में जानकारी दी. ऐसा लगता है कि बैठक काफी अच्छी रही. यह बात स्पष्ट है कि आप जिन मुश्किलों का सामना कर रहे हैं, उसमें कुछ व्यवहारिक दिक्कतें हैं, लेकिन उससे भी बड़ी चुनौती मनोवैज्ञानिक दिक्कतों की है, क्योंकि दोनों ही पक्षों के मन में संदेह घर कर गया है.
आपकी यह बात सही है कि मौलवी और मौलाना परेशानी खड़ी कर सकते हैं. दूसरी वजहों के अलावा इसका एक आर्थिक कारण भी है, क्योंकि जहां भी मुस्लिम पर्सनल लॉ मौजूद है, वहां वे काजी या किसी किस्म के न्यायिक अधिकारी बनना चाहते हैं. लेकिन हमारे पास अपने मौलवी और मौलाना भी हैं. यह बात अलग है कि हम उन्हें दूसरे नाम से पुकारते हैं.
आपने दो मामले बताए, जहां हमारे उत्साही लोगों ने घुड़दौड़ और शराब पर हमला किया, लेकिन इससे भी बुरी बात यह है कि हमारे सनातनी लोग सांप्रदायिक या अर्ध सांप्रदायिक मुद्दे उछाल रहे हैं. इसके चलते यूपी के एक हिस्से में अच्छा खासा तनाव फैल गया है. अयोध्या में बाबर द्वारा बनाई गई एक पुरानी मस्जिद पर वहां के पंडा और सनातनी लोगों के नेतृत्व वाली भीड़ ने कब्जा कर लिया. मैं बड़े दुख के साथ कहता हूं कि यूपी सरकार ने हालात से निपटने में बहुत कमजोरी दिखाई. आपने गौर किया होगा कि यूपी से बड़े पैमाने पर मुसलमानों का पलायन हुआ है. यूपी, दिल्ली और राजस्थान के कुछ हिस्सों से तकरीबन एक लाख मुसलमान पश्चिमी पाकिस्तान गए हैं. यूपी में घटनाओं की शक्ल में ज्यादा कुछ नहीं हुआ, जो कुछ हुआ वह मार्च में होली के दौरान हुआ. लेकिन इसके बावजूद पलायन हो रहा है और इस बात में कोई शक नहीं है कि यूपी के कई जिलों में मुसलमानों पर जबरदस्त दबाव है और उनके मन में असुरक्षा की भावना बैठ गई है. इससे कोई भी समझ सकता है कि पूर्वी बंगाल के हिंदुओं पर कितना दबाव बढ़ गया होगा.’’
9 जुलाई 1950 को नेहरू जी ने संयुक्त प्रांत के गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को पत्र लिखा:
अक्षय ब्रह्मचारी (फैजाबाद जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष) कल मुझसे मिलने आए थे. उन्होंने अयोध्या में जो हुआ, उसके बारे में विस्तार से मुझे बताया. इसमें से बहुत सी बातें मैंने पहले सुनी थीं और बहुत सी बातें मेरे लिए नई थीं. आपको यह सब बातें अवश्य ही पहले से पता होंगी, इसलिए मैं उन्हें दोहरा नहीं रहा हूं. हालांकि मैंने अक्षय से कहा है कि इस मामले में वह आप के संपर्क में रहें.
जैसा कि आप जानते हैं कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद का मामला हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है. यह ऐसा मुद्दा है जो हमारी संपूर्ण नीति और प्रतिष्ठा पर गहराई से बुरा असर डाल रहा है, लेकिन इसके अलावा मुझे ऐसा लगता है कि अयोध्या में हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. इस बात का पूरा अंदेशा है कि इस तरह की समस्याएं मथुरा और दूसरे स्थानों पर फैल जाएं. मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात से हो रही है कि हमारा कांग्रेस संगठन इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहा है और राघवदास और विशंभर दयाल त्रिपाठी जैसे कई कद्दावर कांग्रेसी नेता उस तरह का प्रोपोगंडा चला रहे हैं, जिसे हम सिर्फ सांप्रदायिक कह सकते हैं और जो कांग्रेस की नीति के खिलाफ है.
अक्षय ने मुझे बताया कि अयोध्या में किसी मुसलमान का एक होटल है, स्टार होटल. इस होटल को धारा 144 के अंतर्गत दिसंबर में खाली करने का आदेश दिया गया और अगले ही दिन किसी हिंदू ने इस होटल पर कब्जा कर लिया. और उसके 4 दिन बाद उन्होंने इस में एक नया होटल शुरू कर दिया, जिसका नाम गोमती होटल रखा गया. यह चल रहा है. मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आ रही कि किस कानून के तहत, किस नीति के तहत, समझदारी के किस पैमाने के तहत, यह काम किया गया और किसने यह करने की अनुमति दी.
उसके बाद मुझे बताया गया कि अयोध्या में मुसलमानों को दफनाया जाना तकरीबन नामुमकिन हो गया है. अहमद अली नाम के किसी व्यक्ति की पत्नी का मामला मेरे सामने आया है, इसमें बताया गया कि किस तरह मैयत को एक कब्रिस्तान से दूसरे कब्रिस्तान ले जाना पड़ा और अंततः दफनाने के लिए शव को अयोध्या से बाहर भेजना पड़ा. बड़ी संख्या में मुसलमानों की कब्र खोदी गई हैं.
यह दो-एक बातें हैं जो अक्षय ने मुझे बताईं. मुझे डर है कि हम फिर किसी तबाही की तरफ बढ़ रहे हैं.’’
और हमने देखा कि तबाही आई. पहले मस्जिद में मूर्तियां रखी गईं, फिर मस्जिद गिरा दी गई. फिर मस्जिद शब्द गायब हुआ और विवादित ढांचा शब्द का जन्म हुआ. अब मस्जिद गिराने के मुकदमे की चर्चा गुम है और सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर फैसला आना है कि विवादित जमीन पर किसका मालिकाना हक है. यह सवाल पब्लिक डिसकोर्स से बाहर हो गया है कि वहां मस्जिद गिराई गई थी, तो उसे गिराने का इंसाफ कब होगा. जब सबने देखा है कि वहां मस्जिद थी और उसके गिरने से पहले उत्तर प्रदेश की सरकार ने बाकायदा हलफनामा देकर कहा था कि स्थल की रक्षा की जाएगी, तो अब इस तरह चर्चा कैसे हो रही है कि उस जगह पर किसका मालिकाना हक है.
कानून के नुक्तों में सांप्रदायिकता की इबारत लिखने की कोशिश की जा रही है. इस बात की किसी को फिक्र नहीं है कि मस्जिद गिराकर हमने दुनिया में अपनी वैसी ही छवि बना ली है, जैसी छवि अफगानिस्तान के बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं को गिराने वालों की बनी थी.
उस जमाने में नेहरू चेता रहे थे कि इससे पूरी दुनिया में हमारी छवि को धक्का लगेगा, लेकिन आज तो छवि की परिभाषाएं ही बदल गई हैं.
पुस्तक: नेहरू- मिथक और सत्य
लेखक: पीयूष बबेले
प्रकाशक: संवाद प्रकाशन मेरठ
मूल्य: 300 रुपये