जश्न-ए-भगत सिंह-7
इस लेख का शीर्षक दो मसलों को जोड़कर बनाया गया है। लेनिन के आदर्शों पर भगत सिंह के भरोसे और ख़ुद को फाँसी नहीं गोली से उड़ाने की लिखित अपील।
भगत सिंह, सुखदेवा और राजगुरु की फाँसी के लिए 24 मार्च की सुबह का समय तय किया गया था, लेकिन देश में बढ़ते आक्रोश को देखते हुए उन्हें एक दिन पहले यानी 23 मार्च 1931 की शाम को ही लाहौर जेल में फाँसी दे दी गई। तीनों शहीदों ने ज़ोर-शोर से इन्क़लाब ज़िंदाबाद का नारा लगाया और फाँसी का फंदा चूम लिया। पूरे लाहौर में सनसनी थी। सरकार को डर था कि जेल में अंतिम संस्कार किया गया तो लोग जेल पर हमला कर सकते हैं। इसलिए जेल की एक दीवार तोड़कर शवों को चुपचाप रावी नदी के तट पर ले जाकर जला दिया गया।
उस वक़्त भगत सिंह का नाम बच्चे-बच्चे की ज़बान पर था। अंग्रेज़ सरकार की दस्तावेज़ों में दर्ज हुआ कि भगत सिंह की शोहरत गाँधी जी से ज़्यादा हो गई है। अंग्रेज़ सरकार सबसे ज़्यादा भगत सिंह से ख़ौफ़ खाती थी क्योंकि वे साफ़ तौर पर ख़ुद को ‘बोल्शेविक’ कहते थे और मार्क्सवादी सिद्धांतों के आधार पर समाज के निर्माण को अपना मक़सद बताते थे। जेल में रहने के दौरान साम्यवाद को लेकर उनका अध्ययन लगातार जारी था। ब्रिटिश ही नहीं, पूरी दुनिया के पूँजीवादी देश लेनिन के नेतृत्व में हुई रूसी क्रांति और उसके वैश्विक प्रभाव से आतंकित थे।
23 मार्च को भगत सिंह को फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिले थे। उन्होंने बाद में लिखा कि भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में पिंजड़े में बंद शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे.
‘इंक़लाब ज़िदाबाद!’
भगत सिंह ने मुस्करा कर मेरा स्वागत किया और पूछा कि आप मेरी किताब ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ लाए या नहीं ? जब मैंने उन्हे किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे मानो उनके पास अब ज़्यादा समय न बचा हो।
मैंने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बग़ैर कहा, “सिर्फ़ दो संदेश… साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इन्क़लाब ज़िदाबाद !”
इसके बाद भगत सिंह ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरू और सुभाष बोस को उनका धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने उनके केस में गहरी रुचि ली ।
मेहता के जाने के थोड़ी देर बाद जेल अफ़सरों ने तीनों क्रांतिकारियों को बता दिया कि उनको वक़्त से 12 घंटे पहले ही फांसी दी जा रही है। अगले दिन सुबह छह बजे की बजाय उन्हें उसी शाम सात बजे फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा.
जब यह ख़बर भगत सिंह को दी गई तो वे मेहता द्वारा दी गई किताब के कुछ पन्ने ही पढ़ पाए थे. उनके मुंह से निकला, ” क्या मुझे लेनिन की किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे ? ज़रा एक क्रांतिकारी की दूसरे क्रांतिकारी से मुलाक़ात तो ख़त्म होने दो।”
इसके पहले ‘लेनिन दिवस’ पर उन्होंने जो तार तीसरे इंटरनेशनल के लिए तैयार किया, वह भी बताता है कि वे देश को कैसा बनाना चाहते थे। अख़बारों में इसकी रिपोर्ट यूँ लिखी गई थी-
21 जनवरी, 1930 को लाहौर षड़यंत्र केस के सभी अभियुक्त अदालत में लाल रुमाल बांध कर उपस्थित हुए। जैसे ही मजिस्ट्रेट ने अपना आसन ग्रहण किया उन्होंने “समाजवादी क्रान्ति जिन्दाबाद,” “कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जिन्दाबाद,” “जनता जिन्दाबाद,” “लेनिन का नाम अमर रहेगा,” और “साम्राज्यवाद का नाश हो” के नारे लगाये। इसके बाद भगत सिंह ने अदालत में तार का मजमून पढ़ा और मजिस्ट्रेट से इसे तीसरे इंटरनेशनल को भिजवाने का आग्रह किया।
तार का मजमून—
लेनिन दिवस के अवसर पर हम उन सभी को हार्दिक अभिनन्दन भेजते हैं जो महान लेनिन के आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ भी कर रहे हैं। हम रूस द्वारा किये जा रहे महान प्रयोग की सफलता की कमाना करते हैं। सर्वहारा विजयी होगा। पूँजीवाद पराजित होगा। साम्राज्यवाद की मौत हो।
भगतसिंह (1931)
हमें फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ाया जाए
(फाँसी पर लटकाए जाने से 3 दिन पूर्व- 20 मार्च, 1931 को भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव ने पत्र लिखकर पंजाब के गवर्नर से माँग की थी की उन्हें युद्धबन्दी माना जाए तथा फाँसी पर लटकाने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए। यह पत्र इन राष्ट्रवीरों की प्रतिभा, राजनीतिक मेधा, साहस एव शौर्य की अमरगाथा का एक महत्वपूर्ण अध्याय है । )
प्रति,
गवर्नर पंजाब, शिमला
महोदय,
उचित सम्मान के साथ हम नीचे लिखी बातें आपकी सेवा में रख रहे हैं –
भारत की ब्रिटिश सरकार के सर्वोच्च अधिकारी वाइसराय ने एक विशेष अध्यादेश जारी करके लाहौर षड्यंत्र अभियोग की सुनवाई के लिए एक विशेष न्यायधिकरण (ट्रिब्यूनल) स्थापित किया था, जिसने 7 अक्तूबर, 1930 को हमें फाँसी का दण्ड सुनाया।हमारे विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप यह लगाया गया है कि हमने सम्राट जार्ज पंचम के विरुद्ध युद्ध किया है।
न्यायालय के इस निर्णय से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं-
पहली यह कि अंग्रेज जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा है। दूसरी यह है कि हमने निश्चित रूप में इस युद्ध में भाग लिया है। अत: हम युद्धबंदी हैं।
यद्यपि इनकी व्याख्या में बहुत सीमा तक अतिशयोक्ति से काम लिया गया हैं, तथापि हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि ऐसा करके हमें सम्मानित किया गया है। पहली बात के सम्बन्ध में हम तनिक विस्तार से प्रकाश डालना चाहते हैं। हम नहीं समझते कि प्रत्यक्ष रूप मे ऐसी कोई लड़ाई छिड़ी हुई है। हम नहीं जानते कि युद्ध छिड़ने से न्यायालय का आशय क्या है? परन्तु हम इस व्याख्या को स्वीकार करते हैं और साथ ही इसे इसके ठीक संदर्भ में समझाना चाहते हैं ।
युद्ध की स्थिति
हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है- चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नही पड़ता। यदि आपकी सरकार कुछ नेताओं या भारतीय समाज के मुखियों पर प्रभाव जमाने में सफल हो जाए, कुछ सुविधायें मिल जाये, अथवा समझौते हो जाएँ, इससे भी स्थिति नहीं बदल सकती, तथा जनता पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ता है। हमें इस बात की भी चिंता नही कि युवको को एक बार फिर धोखा दिया गया है और इस बात का भी भय नहीं है कि हमारे राजनीतिक नेता पथ-भ्रष्ट हो गए हैं और वे समझौते की बातचीत में इन निरपराध, बेघर और निराश्रित बलिदानियों को भूल गए हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य समझा जाता है। हमारे राजनीतिक नेता उन्हें अपना शत्रु मानते हैं, क्योंकि उनके विचार में वे हिंसा में विश्वास रखते हैं, हमारी वीरांगनाओं ने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया है। उन्होंने अपने पतियों को बलिवेदी पर भेंट किया, भाई भेंट किए, और जो कुछ भी उनके पास था सब न्यौछावर कर दिया। उन्होंने अपने आप को भी न्यौछावर कर दिया परन्तु आपकी सरकार उन्हें विद्रोही समझती है। आपके एजेण्ट भले ही झूठी कहानियाँ बनाकर उन्हें बदनाम कर दें और पार्टी की प्रसिद्धी को हानि पहुँचाने का प्रयास करें, परन्तु यह युद्ध चलता रहेगा।
युद्ध के विभिन्न स्वरूप
हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करे। किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले, कभी गुप्त दशा में चलती रहे, कभी भयानक रूप धारण कर ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाए कि जीवन और मृत्यु की बाजी लग जाए। चाहे कोई भी परिस्थिति हो, इसका प्रभाव आप पर पड़ेगा। यह आप की इच्छा है कि आप जिस परिस्थिति को चाहे चुन लें, परन्तु यह लड़ाई जारी रहेगी। इसमें छोटी -छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा। बहुत सभव है कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले। पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढाँचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नहीं हो जाती और मानवी सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नही हो जाता।
अन्तिम युद्ध
निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जाएगा और यह युद्ध निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद व पूँजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं। यही वह लड़ाई है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हम अपने पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया है और न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा। हमारी सेवाएँ इतिहास के उस अध्याय में लिखी जाएंगी जिसको यतीन्द्रनाथ दास और भगवतीचरण के बलिदानों ने विशेष रूप में प्रकाशमान कर दिया है। इनके बलिदान महान हैं। जहाँ तक हमारे भाग्य का संबंध है, हम जोरदार शब्दों में आपसे यह कहना चाहते हैं कि आपने हमें फाँसी पर लटकाने का निर्णय कर लिया है। आप ऐसा करेंगे ही,आपके हाथों में शक्ति है और आपको अधिकार भी प्राप्त है। परन्तु इस प्रकार आप जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धान्त ही अपना रहे हैं और आप उस पर कटिबद्ध हैं। हमारे अभियोग की सुनवाई इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि हमने कभी कोई प्रार्थना नहीं की और अब भी हम आपसे किसी प्रकार की दया की प्रार्थना नहीं करते। हम आप से केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही एक न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग है। इस स्थिति में हम युद्धबंदी हैं, अत: इस आधार पर हम आपसे माँग करते हैं कि हमारे प्रति युद्धबन्दियों-जैसा ही व्यवहार किया जाए और हमें फाँसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाए।
अब यह सिद्ध करना आप का काम है कि आपको उस निर्णय में विश्वास है जो आपकी सरकार के न्यायालय ने किया है। आप अपने कार्य द्वारा इस बात का प्रमाण दीजिए। हम विनयपूर्वक आप से प्रार्थना करते हैं कि आप अपने सेना-विभाग को आदेश दे दें कि हमें गोली से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाए।
भवदीय,
भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव
20 मार्च, 1931