28 सितंबर को शहीदे आज़म भगत सिंह का जन्मदिवस है। भगत सिंह ने तमाम विषयों पर बेबाकी से क़लम चलाई थी और अपने समय के अख़बारों की भूमिका की भी शिनाख़्त की थी। उन्होंने जैसा चित्र खींचा था, हालात आज भी वैसे ही हैं। फ़र्क इतना है कि अब सिर्फ़ अख़बार नहीं, टीवी चैनल और न्यूज़ वेबसाइटों का भी बड़ा हिस्सा यानी पूरा मीडिया वही कर रहा है जिसे देखकर भगत सिंह की आँखों से रक्त के आँसू बहने लगते थे और दिल में सवाल उठता था कि ‘भारत का बनेगा क्या ?”
पढ़िये 1928 में क्या लिख गये थे भगत सिंह और 2016 से उसकी तुलना कीजिए–
“पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था ! आज बहुत ही गन्दा हो गया है ! यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं ! एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं ! ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो !
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है !
यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या”?
– भगत सिंह, 1928