आजकल आरएसएस और उससे जुड़े संगठन भगत सिंह और तमाम दूसरे क्रांतिकारियों का नाम बड़े ज़ोर-शोर से लेता है। लेकिन हक़ीक़त ये है कि आज़ादी की यह क्रांतिकारी धारा जिस भारत का सपना देखती थी, आरएसएस उससे बिलकुल उलट सपना देखता है। भगत सिंह मज़दूरों का समाजवादी राज स्थापित करना चाहते थे और पक्के नास्तिक थे। आरएसएस के संस्थापक डॉ.हेडगवार ने उस समय स्वयंसवेकों को भगत सिंह के प्रभाव से बचाने के लिए काफ़ी प्रयास किया। यही नहीं, आगे चल कर दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने भी भगत सिंह के आंदोलन की निंदा की। पढ़िये यह महत्वपूर्ण लेख-
“जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी, तब हम कुछ दोस्त इतने उत्साहित थे कि हमने साथ में कसम ली थी कि हम भी कुछ खतरनाक करेंगे और ऐसा करने के लिए घर से भागने का फैसला भी ले लिया था. पर ऐसे डॉक्टर जी (हेडगेवार) को बताए बिना घर से भागना हमें ठीक नहीं लग रहा था तो हमने डॉक्टर जी को अपने निर्णय से अवगत कराने की सोची और उन्हें यह बताने की जिम्मेदारी दोस्तों ने मुझे सौंपी. हम साथ में डॉक्टर जी के पास पहुंचे और बहुत साहस के साथ मैंने अपने विचार उनके सामने रखने शुरू किए. ये जानने के बाद इस योजना को रद्द करने और हमें संघ के काम की श्रेष्ठता बताने के लिए डॉक्टर जी ने हमारे साथ एक मीटिंग की. ये मीटिंग सात दिनों तक हुई और ये रात में भी दस बजे से तीन बजे तक हुआ करती थी. डॉक्टर जी के शानदार विचारों और बहुमूल्य नेतृत्व ने हमारे विचारों और जीवन के आदर्शों में आधारभूत परिवर्तन किया. उस दिन से हमने ऐसे बिना सोचे-समझे योजनाएं बनाना बंद कर दीं. हमारे जीवन को नई दिशा मिली थी और हमने अपना दिमाग संघ के कामों में लगा दिया.”—मधुकर दत्तात्रेय देवरस ( संघ के तीसरे प्रमुख)
( स्मृतिकण- परम पूज्य डॉ. हेडगेवार के जीवन की विभिन्न घटनाओं का संकलन, आरएसएस प्रकाशन विभाग, नागपुर, 1962, पेज- 47-48)
23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को अंग्रेज़ सरकार ने लाहौर जेल में फांसी पर चढ़ाया था. अंग्रेज हुक्मरानों को लगा था कि क्रांतिकारियों को मार देने से उनके, भारत को एक आजाद धर्मनिरपेक्ष और समतावादी देश बनाने के विचार और सपनों का भी अंत हो जाएगा. हालांकि ऐसा सोचना साफ तौर पर उनकी गलती थी क्योंकि आज भी ये क्रांतिकारी और उनके आदर्श इस देश के लोगों के जेहन में जिंदा हैं.
हालांकि, उनकी 85वीं बरसी पर हमें ये भी देखना चाहिए कि भले ही उन्हें फांसी ब्रिटिश हुकूमत ने दी थी पर आजादी के पहले के कुछ ऐसे संगठन जैसे हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और मुस्लिम लीग भी थे जो न इन क्रांतिकारियों के आदर्शों से कोई इत्तेफाक रखते थे बल्कि इनकी फांसी पर भी चुप्पी साधे रहे. पर दिलचस्प पहलू यह है कि इन तीनों सांप्रदायिक संगठनों में से आरएसएस, जो अंग्रेजों के खिलाफ हुए उस पूरे संघर्ष के दौरान खामोश बना रहा, पिछले कुछ समय से ऐसा साहित्य सामने ला रहा है जो दावा करता है कि आजादी की लड़ाई के दौर में उनका इन क्रांतिकारियों से जुड़ाव रहा था. एनडीए के शासन काल में जब संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी देश चला रहे थे तब एक आश्चर्यजनक दावा किया गया कि संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार 1925 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु से मिले थे और इन क्रांतिकारियों की बैठकों में भी भाग लिया करते थे और राजगुरु जब सांडर्स की हत्या के बाद भूमिगत हुए थे तब उन्हें आश्रय भी दिया था. (देखें- डॉ केशव बलिराम हेडगेवार : राकेश सिन्हा, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, पेज- 160)
साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज- भगत सिंह
2007 में इतिहास में पहली बार संघ के हिंदी मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ में भगत सिंह पर विशेष अंक निकाला गया. यहां गौर करने वाली बात यह है कि विभाजन के पूर्व छपे आरएसएस के किसी भी साहित्य में हमें इन शहीदों का कोई जिक्र नहीं मिलता जबकि संघ की किताबों में ऐसी कई कहानियां हैं जो उनके भगत सिंह जैसे इन क्रांतिकारियों के प्रति बेपरवाह रवैये को दिखाती हैं. मधुकर दत्तात्रेय देवरस, संघ के तीसरे प्रमुख, जिन्हें बालासाहब देवरस के नाम से भी जाना जाता है, ने तो एक ऐसी घटना का जिक्र भी किया है, जहां हेडगेवार ने उन्हें और उनके अन्य साथियों को भगत सिंह और उनके कामरेड साथियों के रास्ते पर चलने से बचाया था. यहां भी दिलचस्प बात यह है कि संघ ने खुद ही इस घटना को प्रकाशित किया था:
‘कॉलेज की पढ़ाई के समय हम (युवा) सामान्यत: भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के आदर्शों से प्रभावित थे. कई बार मन में आता कि भगत सिंह का अनुकरण करते हुए हमें भी कोई न कोई बहादुरी का काम करना चाहिए. हम आरएसएस की तरफ कम ही आकर्षित थे क्योंकि वर्तमान राजनीति, क्रांति जैसी जो बातें युवाओं को आकर्षित करती हैं, पर संघ में कम ही चर्चा की जाती है. जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी, तब हम कुछ दोस्त इतने उत्साहित थे कि हमने साथ में कसम ली थी कि हम भी कुछ खतरनाक करेंगे और ऐसा करने के लिए घर से भागने का फैसला भी ले लिया था. पर ऐसे डॉक्टर जी (हेडगेवार) को बताए बिना घर से भागना हमें ठीक नहीं लग रहा था तो हमने डॉक्टर जी को अपने निर्णय से अवगत कराने की सोची और उन्हें यह बताने की जिम्मेदारी दोस्तों ने मुझे सौंपी. हम साथ में डॉक्टर जी के पास पहुंचे और बहुत साहस के साथ मैंने अपने विचार उनके सामने रखने शुरू किए. ये जानने के बाद इस योजना को रद्द करने और हमें संघ के काम की श्रेष्ठता बताने के लिए डॉक्टर जी ने हमारे साथ एक मीटिंग की. ये मीटिंग सात दिनों तक हुई और ये रात में भी दस बजे से तीन बजे तक हुआ करती थी. डॉक्टर जी के शानदार विचारों और बहुमूल्य नेतृत्व ने हमारे विचारों और जीवन के आदर्शों में आधारभूत परिवर्तन किया. उस दिन से हमने ऐसे बिना सोचे-समझे योजनाएं बनाना बंद कर दीं. हमारे जीवन को नई दिशा मिली थी और हमने अपना दिमाग संघ के कामों में लगा दिया.’ (देखें- स्मृतिकण- परम पूज्य डॉ. हेडगेवार के जीवन की विभिन्न घटनाओं का संकलन, आरएसएस प्रकाशन विभाग, नागपुर, 1962, पेज- 47-48)
मैं नास्तिक क्यों हूँ- भगत सिंह
इसके अलावा भी आरएसएस के ही दस्तावेजों में ही कई प्रमाण हैं जो बताते हैं कि आरएसएस भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके क्रांतिकारी साथियों के आंदोलनों की आलोचना किया करता था. ‘बंच ऑफ थॉट्स’ (गोलवलकर के भाषण और लेखों का संकलन, जिसे संघ में पवित्र ग्रंथ माना जाता है) के कई अंश हैं जहां उन्होंने शहादत की परंपरा की निंदा की है.
‘इस बात में तो कोई संदेह नहीं है कि ऐसे व्यक्ति जो शहादत को गले लगाते हैं, महान नायक हैं पर उनकी विचारधारा कुछ ज्यादा ही दिलेर है. वे औसतव्यक्तियों, जो खुद को किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं और डर कर बैठे रहते हैं, कुछ नहीं करते, से कहीं ऊपर हैं. पर फिर भी ऐसे लोगों को समाज के आदर्शों के रूप में नहीं रखा जा सकता. हम उनकी शहादत को महानता के उस चरम बिंदु के रूप में नहीं देख सकते, जिससे लोगों को प्रेरित होना चाहिए. क्योंकि वे अपने आदर्शों को पाने में विफल रहे और इस विफलता में उनका बड़ा दोष है.’ (देखें- बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 283)
गोलवलकर आरएसएस कैडर को यह बताते हैं कि केवल उन व्यक्तियों का सम्मान होना चाहिए जो अपने जीवन में सफल रहे हैं: ‘यह तो स्पष्ट है कि जो लोग अपने जीवन में विफल रहे हैं, उनमें कोई गंभीर खोट होगा. तो कोई ऐसा जो खुद हारा हुआ है, दूसरों को रास्ता दिखाते हुए सफलता के रास्ते पर कैसे ले जा सकता है?’ (देखें- बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 282) गोलवलकर की इस किताब में ‘वरशिपर्स ऑफ विक्ट्री’ (विजय के पूजक) शीर्षक से एक अध्याय है जिसमें वे खुलकर स्वीकारते हैं कि आरएसएस केवल उन्हें पूजता है जो विजयी रहे हैं.
धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम-भगत सिंह
‘अब हम देखते हैं कि इस धरती पर अब तक किस तरह के महान व्यक्तियों को पूजा गया है. क्या हमने किसी ऐसे को अपना आदर्श चुना है जो खुद ही अपने जीवन के लक्ष्य को पाने में असफल रहा हो? नहीं, कभी नहीं. हमारी परंपरा हमें सिर्फ उनकी प्रशंसा और पूजा करना सिखाती है जो अपने जीवन उद्देश्य में पूर्णत: सफल रहे हैं. परिस्थितियों के गुलाम कभी हमारे आदर्श नहीं रहे. वह नायक जो परिस्थितियों को अपने वश में कर ले, अपनी क्षमताओं और चरित्र के सहारे उन्हें बदल दे, अपने जीवन की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सफल हो, ही हमारा आदर्श रहा है. ऐसे महान लोग, जिन्होंने अपनी आत्मदीप्ति से आसपास के निराशा के अंधेरे को दूर किया, कुंठित हो चुके हृदयों को आत्मविश्वास से भरा, बेजान हो चुके जीवन में जीवट का संचार किया, सफलता और प्रेरणा के मानक को ऊपर उठाए रखा, हमारी संस्कृति हमें उन्हीं को पूजने की आज्ञा देती है.’ (देखें- बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 282)
गोलवलकर ने कहीं भगत सिंह का नाम नहीं लिया पर उनके जीवन-दर्शन के अनुसार चूंकि भगत सिंह और उनके साथी अपने जीवन का उद्देश्य पाने में सफल नहीं रहे इसलिए वे किसी सम्मान के अधिकारी नहीं हैं. उनके अनुसार ब्रिटिश हुक्मरान ही स्वाभाविक रूप से पूजा के योग्य थे क्योंकि वे भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को मारने में सफल रहे.
भारत की आजादी की लड़ाई के शहीदों के लिए इससे ज्यादा घटिया और कलंकित करने वाली बात सुनना मुश्किल है. किसी भी भारतीय, जो स्वतंत्रता संग्राम के इन शहीदों को प्रेम करता है, उनका सम्मान करता है उसके लिए डॉ. हेडगेवार और आरएसएस के, अंग्रेजों से लड़ने वाले इन क्रांतिकारियों के बारे में विचार सुनना बहुत चौंकाने वाला होगा. आरएसएस द्वारा प्रकाशित हेडगेवार की जीवनी के अनुसार, ‘ देशभक्ति केवल जेल जाना नहीं है. ऐसी सतही देशभक्ति से प्रभावित होना सही नहीं है. वे अनुरोध किया करते थे कि जब मौका मिलते ही लोग देश के लिए मरने की तैयारी कर रहे हैं, ऐसे में देश की आजादी के लिए लड़ते हुए जीवन जीने की इच्छा का होना बहुत जरूरी है.’ (देखें- संघ-वृक्ष के बीज- डॉ. केशवराव हेडगेवार, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली, 1994, पेज- 21)
फाँसी नहीं, गोली से उड़ाओ ! बस, ज़रा लेनिन से मिल लूँ-भगत सिंह
आरएसएस नेतृत्व के अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में अपना सब कुछ कुर्बान कर देने वाले शहीदों के प्रति रवैये के लिए ‘शर्मनाक’ शब्द भी नाकाफी है. 1857 में भारत के आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर आजादी की लड़ाई में एक शक्तिशाली प्रतीक बनकर उभरे थे. उनका मजाक बनाते हुए गोलवलकर कहते हैं: ‘1857 में भारत के तथाकथित आखिरी बादशाह ने युद्ध का बिगुल बजाते हुए कहा था, गाजियों में बू रहेगी, जब तलक ईमान की, तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की. पर आखिरकार क्या हुआ? ये तो हम जानते हैं.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन- एमएस गोलवलकर, खंड एक, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981, पेज- 121)
भगत सिंह के चार पत्रों में उठता प्यार और इन्क़लाब का ज्वार !
गोलवलकर के अगले कथन से यह और साफ हो जाता है कि वे देश पर सब कुछ कुर्बान करने वाले के बारे में क्या सोचते थे. अपनी मातृभूमि पर जान देने की इच्छा रखने वाले क्रांतिकारियों से यह सवाल पूछना मानो जैसे अंग्रेजों के ही प्रतिनिधि हों, उनके दुस्साहस को ही दिखाता है: ‘पर एक व्यक्ति को यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसा करने से देशहित पूरे हो रहे हैं? बलिदान से उस विचारधारा को बढ़ावा नहीं मिलता जिससे समाज अपना सबकुछ राष्ट्र के नाम कुर्बान करने के बारे में प्रेरित होता है. अब तक के अनुभव से तो यह कहा जा सकता है कि दिल में इस तरह की आग लेकर जीना एक आम आदमी के लिए असह्य है.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन- एमएस गोलवलकर, खंड एक, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981, पेज- 61-62)
शायद यही कारण है कि शहीद तो दूर आजादी की लड़ाई में आरएसएस ने एक भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं दिया. यह दुर्भाग्य ही है कि 1925 से लेकर 1947 तक लिखे आरएसएस के पूरे साहित्य में कहीं भी अंग्रेजों को चुनौती देती, उनकी आलोचना करती या उनके भारतीय जनता के साथ किए गए अमानवीय बर्ताव के विरोध में एक लाइन तक नहीं लिखी गई है. ऐसे में वे लोग जो हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई के गौरवशाली इतिहास और इन शहीदों की कुर्बानी से वाकिफ हैं, उन्हें हिंदुत्व कैंप, जिसने इस लड़ाई में धोखा दिया था, द्वारा हमारे इन नायकों की छवि के इस तरह से दुरुपयोग के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए. हम ब्रिटिश शासकों की इन सांप्रदायिक कठपुतलियों द्वारा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फिर से नहीं मरने दे सकते.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से अवकाशप्राप्त शिक्षक और प्रसिद्ध जन संस्कृतिकर्मी हैं। यह लेख 2016 में तहलका के अप्रैल अंक में छपा जब भगत सिहं की शहादत की 85वीं वर्षगाँठ थी।)
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