न्यायपालिका में जवाबदेही और पारदर्शिता : जस्टिस अजित प्रकाश शाह

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बीते 28 जुलाई 2019  को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में रोसालिंड विल्सन मेमोरियल लेक्चर के दौरान न्यायमूर्ति ए पी शाह ने “जजों का आंकलन करना: जवाबदेही और पारदर्शिता की ज़रुरत” (Judging the Judges: Need for Accountability and Transparency) विषय पर व्याख्यान दिया था. प्रस्तुत है उस व्याख्यान की मुख्य बातें : 

अपने व्याख्यान के दौरान, न्यायमूर्ति शाह ने जवाबदेही और न्यायिक स्वतंत्रता के बीच संबंध के बारे में, भारत में जजों के मूल्यांकन के मौजूदा तंत्र, और इस व्यव्वस्था में बदलाव लाने के लिए रोड-मैप को कैसे बदला जा सकता है ताकि न्यायिक पारदर्शिता और जवाबदेही को और भी सुनिश्चित किया जा सके, आदि विषयों पर प्रकाश डाला.

शुरू में ही, न्यायमूर्ति शाह ने भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीडन के आरोपों का ज़िक्र किया जो इस विषय के चयन में एक साधक के सामान हैं. उन विभिन्न विसंगतियों पर भी उन्होंने प्रकाश डाला जो इन आरोपों को संबोधित करने के दौरान उभर कर सामने आईं.

सुप्रीम कोर्ट के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश, न्यायमूर्ति ए के पटनायक की अध्यक्षता में एक समिति का गठन अंततः मुख्य न्यायाधीश गोगोई के खिलाफ एक साजिश की संभावना की जांच के लिए ही किया गया था. जैसा कि न्यायमूर्ति शाह ने अपने व्याख्यान में इंगित किया, इस जांच में आज तक कुछ भी निकल कर सामने नहीं आया है.

मुख्य न्यायाधीश गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीडन के आरोपों की जांच हेतु न्यायाधीशों का एक इन-हाउस विशेष पैनल गठित किया गया था. महज़ चार दिनों की बैठक के बाद इस पैनल ने अंततः निष्कर्ष निकाला कि इस कर्मचारी द्वारा लगाये गए यौन उत्पीडन के आरोपों में कोई सार और सच्चाई नहीं है.

घटनाक्रम के संदर्भ में, न्यायमूर्ति शाह ने नोट किया कि, “यह मुद्दा अभी भी सटीक जवाब का इंतज़ार कर रहा है; और इससे सम्बंधित घटनाक्रमों ने ख़ास तौर पर इन-हाउस तंत्र में तमाम खामियों को उजागर किया है, जो ऐसे मामलों को सुलझाने के लिए नियोजित हैं.”

न्यायिक आचरण की आवश्यकता के बारे में बोलते हुए न्यायमूर्ति शाह ने अपने व्याख्यान में कहा कि, “न्यायिक आचरण (judicial behavior) के तमाम पहलुओं पर हमारे पास कोई स्पष्टता नहीं है. इस सम्बन्ध में पिछले साल की विवादस्पद प्रेस वार्ता इसका एक ज्वलंत उदाहरण है. पूर्वाग्रह और व्यक्तिगत हितों के टकराव से सम्बंधित आचरण के बारे में भी स्पष्टता नहीं है. आप इसे चाहें किसी भी कसौटी पर कसें, पिछले तीन क्रमिक मुख्य न्यायाधीशों ने ‘अपने मामले में कोई भी व्यक्ति खुद ही न्यायाधीश न होने’ के सिद्धांत (no man being a judge in his own case) का उल्लंघन किया. इन मसलों को तदर्थ व्याख्या के सहारे नहीं समझा जा सकता है, बल्कि इन्हें नियमों और दिशा निर्देशों के ज़रिये ही स्पष्ट किया जा सकता है.”

जवाबदेही बनाम न्यायिक स्वतंत्रता
Accountability vis-a-vis Judicial Independence

विषय की विवेचना करते हुए न्यायमूर्ति शाह ने बताया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने एक मामले की सुनवाई के दौरान स्वम कहा था कि पारदर्शिता के नाम पर आप न्यायपालिका को नष्ट नहीं कर सकते हैं. ‘सूचना के अधिकार अधिनियम (The Right to Information Act) के अंतर्गत क्या मुख्य न्यायाधीश आते हैं कि नहीं’ विषय पर सुनवाई के दौरान उन्होंने यह कहा था. इस कथन पर अपना आश्चर्य दर्शाते हुए पूर्व न्यायाधीश ने कहा कि,

“न्यायिक स्वतंत्रता का मकसद अपने आप में एक अंत नहीं है, चाहें वह न्यायपालिका को एक संस्था के रूप में या वह एक व्यक्ति के रूप में किसी जज विशेष से सम्बंधित हो. यदि न्यायपालिका कानून का निष्पक्ष और निडर होकर प्रशासन नहीं कर सकती है, तो फिर और कुछ भी, किसी तौर पर मायने नहीं रखता है. न्यायिक स्वतंत्रता का मूल और ज़रूरी पहलू है – निष्पक्षता.”

न्यायाधीशों का खिलाफ शिकायतें: Complaints against judges

न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायतों से जूझने के लिए उच्च न्यापालिका द्वारा प्रयोग करने वाली इन-हाउस कार्य-प्रणाली में खामियों को संबोधित करते हुए नयायमूर्ति शाह ने कहा कि,

“इन-हाउस तंत्र में तमाम खामियां हैं. इनमें सबसे अहम् है कि इस प्रणाली के उपयोग का कोई भी वैधानिक आधार नहीं है, और निश्चित तौर पर इसे संवैधानिक शुभकामना नहीं मिली है. और ख़ास तौर पर, न्यायपालिका के भीतरी दायरे में भी इसे सीमित पवित्रता प्राप्त है – कोई भी न्यायाधीश इसलिए स्तीफा देने को तैयार नहीं हुआ कि समिति की रपट प्रतिकूल थी. सौमित्र सेन का मामला इसका सटीक उदाहरण है, जिसने एक न्यायाधीश होने पर भी इस रपट और उसकी सलाह की उपेक्षा की.”

शिकायतों के ही विषय पर न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि उन्हें अक्सर गंभीर तरीके से नहीं निपटाया जाता है,

“खुद मेरे सामने ऐसे कुछ मामले आये थे, जिनसे स्पष्ट था कि एक न्यायाधीश के खिलाफ गंभीर आरोप थे, जिनमें स्पष्ट तौर पर आगे जांच की ज़रुरत थी. इन-हाउस कमेटी गठित करने के भारत के मुख्य न्यायाधीश को विशेष आवेदन दिए गए थे. इन में से किसी भी आवेदन पर स्वीकृति प्रदान नहीं की गई. किसी को नहीं मालूम कि शिकायतों पर विचार भी किया जाता है या नहीं. किसी भी स्तर पर कोई भी शिकायत पूरी अदालत के सामने पेश नहीं होती है.”

“ निश्चित तौर पर मैं एक पैर पर खड़े होकर यह कहने के लिए कतई संकोच नहीं करूंगा कि प्राय: अधिकांश समय आगे प्रेषित शिकायतों की स्वीकृति तक प्रदान नहीं की जाती है, और निश्चित तौर पर कोई भी जांच नहीं होती है.”

दुर्व्यवहार के कमतर उदाहरणों के लिए सज़ा
Punishment for lesser instances of misbehavior

न्यायिक दुर्व्यवहार के कमतर उदाहरणों से जूझने के लिए एक तंत्र को शुरू करने की उन्होंने वकालत भी की, जो महाभियोग (impeachment) से परे हटकर है; वर्तमान में किताबों के अनुसार महाभियोग ही एकमात्र सज़ा के रूप में दर्शाया गया है. उन्होंने संयुक्त राष्ट्र अमरीका और यूनाइटेड किंगडम में अमल की जाने वाली कार्य-प्रणाली का हवाला दिया.

“न्यायाधीश दर्जनों तरीकों के अन्य कई दुर्व्यवहार भी करते हैं, अदालत के भीतर और बाहर दोनों. महाभियोग की कार्यवाही प्रारंभ करने के लिए इस तरह की कार्रवाई पर्याप्त नहीं है, लेकिन ऐसे दुर्व्यवहार के लिए कुछ कार्यवाही तो करनी ज़रूरी है. निलंबन भी इसका एक विकल्प हो सकता है. किसी भी गंभीर आरोप की जांच के दौरान यदि विचाराधीन न्यायाधीश को कार्य जारी रखने की अनुमति है, तो यह कानून के शासन ( Rule of Law) के विचार को नकारता है.”

न्यायधीशों के खिलाफ शिकायतों के लिए गठित अनुशासन समिति:
Disciplinary Committee for complaints against judges

न्यायमूर्ति शाह ने बल देकर कहा कि न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायतों के निपटारे के लिए केन्द्रीय स्तर पर एक स्थायी अनुशासन समिति (Permanent Disciplinary Committee) का गठन हो.

“कार्यपालिका से कोई भी व्यक्ति इस समिति का सदस्य नहीं होना चाहिए. इस स्थायी व्यवस्था का एक सचिवालय होना चाहिए जो न्यायपालिका द्वारा ही गठित हो. यदि इस समिति को ऐसा लगता है कि दुर्व्यवहार का कोई कम या मामूली उदाहरण है, तो वे चेतावनी, फटकार या सलाह दे सकती है. यदि वे यह पाते हैं कि कोई मुख्य दुर्व्यवहार की घटना है, तो वह न्यायाधीश जांच अधिनियम (Judges Enquiry Act) के तहत एक न्यायिक जांच समिति के गठन का अनुरोध कर सकते हैं.

वर्तमान में, संसद में प्रस्ताव के आधार पर ही महाभियोग चलाया जा सकता है. इस नए कानून के तहत, किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ इस समिति की प्रतिकूल रपट ही महाभियोग की कार्यवाही तुरंत शुरू करने के लिए प्रयाप्त होनी चाहिए.”

मुख्य न्यायाधीश इससे बरी न हों:
Chief Justice not exempt

न्यायमूर्ति ए पी शाह ने कहा कि ऐसी प्रक्रिया से चीफ जस्टिस प्रतिरक्षा नहीं कर सकते. उन्होंने आगे कहा कि,

“जवाबदेही का कोई भी तंत्र हो, सभी न्यायाधीशों पर बराबर लागू होना चाहिए, चाहें उनका पद या हैसियत कुछ भी हो. विशाखा दिशानिर्देश (Vishakha Guidelines) को कैसे न्यायपालिका के लिए लागू किया जा सकता है, और सूचना के अधिकार (Right to Information) को किस हद तक अनुमति दी जा सकती है, आदि आदि को इस कानून और उसकी प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए….”

न्यायाधीशों के लिए निष्पादन मूल्यांकन पद्दति :
Performance Evaluation system for judges

इस बात को ध्यान में रखते हुए कि उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों के प्रदर्शन और क्षमता के मूल्यांकन के लिए कोई भी व्यवस्था नहीं है, न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि,

“जब तक कि कोई न्यायाधीश अपने प्रदर्शन पर नियमित तौर से रचनात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं करता है, ऐसा प्राय: असंभव ही है कि वह अपने बल-बूते पर सुधार के प्रयास करेगा. लगातार प्रदर्शन मूल्यांकन तंत्र के ज़रिये मानकों में खामियां, या अलग-अलग न्यायाधीशों द्वारा संदिग्ध आचरण तुरंत प्रकाश में आते हैं. व्यवहार और आचरण और प्रदर्शन के नमूनों को उपचारात्मक उपायों के ज़रिये संबोधित करना चाहिए, जैसे कि प्रशिक्षण कार्यक्रम में अनिवार्य हाज़िरी के ज़रिये.”

ऐसी प्रणाली की कमी को न्यायाधीशों को मूल्यांकन के लिए उपयुक्त समझा जाने के अपारदर्शी तरीके से उन्होंने जोड़ कर दर्शाया.

“जब सर्वोच्च न्यायालय पर न्यायाधीशों को पदुन्नोत किया जाता है, उस समय संभावित उम्मीदवारों के प्रदर्शन पर कभी ध्यान नहीं दिया जाता है, क्योंकि जानकारी आधारित निर्णय लेने के लिए किसी भी तरह की सामग्री उपलब्ध नहीं होती. पदोन्नति के फैसले मनमाने ढंग से होते हैं; कॉलेजियम के सदस्यों के बीच अक्सर नाम बदल दिए जाते हैं. पारदर्शिता का पूर्ण अभाव है; और शायद नामों पर अंतिम फैसला चाय की चुस्कियों के दौर में होता है, जैसा कि इलाहबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा था.”

आचार संहिता: Code of Conduct

न्यायमूर्ति ए पी शाह ने टिपण्णी की : न्यायिक मूल्यों पर पुन: कथन (Restatement of Judicial Values) जो सन १९९७ में जारी किया गया था, हालाँकि न्यायाधीशों के आचरण को नियंत्रित करता है, लेकिन वह अपर्याप्त है.

“न्यायाधीशों के पास कोई भी ऐसा पूर्व-निर्धारित नैतिक कोड उनके ज़हन में नहीं है जो उनके पीठ पर बैठते ही उनके आचरण को निर्देशित करता है. वास्तव में, वे उतने ही मानवीय हैं जैसे कि वकील, वादी, प्रतिवादी, अपराधी, गवाह और पुलिस जो उनके समक्ष हाज़िर होते हैं. महज़ उनके पद और कार्यालय के चरित्र के कारण उन्हें अधिक नैतिकता प्रदान करना गलत और खतरनाक है. उनके पूरे कार्य-जीवन के दौरान उन्हें उपयुक्त आचरण के बारे में लगातार याद दिलाते रहना होगा….”

इसी के साथ, उन्होंने न्यायाधीशों के खिलाफ आरोप मढ़ने में संयम का आह्वान किया, और न्यायाधीश को कोसने पर अपनी असहमति दर्शाई.

“इस पूरी प्रक्रिया में किसी-न-किसी मौके पर, यह भी ज़रूरी होता है कि हम न्यायाधीशों पर भरोसा रखें. मैं मानता हूं कि न्यायाधीशों को कोसने की प्रवृति या न्यायाधीशों पर लगातार हमले करना न्यायपालिका के लिए नुकसानदायक है. हरेक को मिल-जुलकर काम करना है, और न्यायिक साथियों के बीच कुछ भरोसे का आलम ज़रूरी है.”

अंग्रेजी में यहां पढ़ा जा सकता है:

Rosalind Wilson Memorial Lecture delivered by Justice (Retd) AP Shah at ICC
न्यायमूर्ति अजीत प्रकाश शाह

न्यायमूर्ति अजीत प्रकाश शाह, दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर मई 2008 से अवकाश प्राप्त होने तक फरवरी 2010 तक पदासीन रहे. दिसम्बर 1992 में बॉम्बे उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश नियुक्त किये गए, और 8 अप्रैल 1994 को वे बॉम्बे उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश नियुक्त हुए. 12 नवम्बर 2005 को उन्होंने मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का कार्यभार संभाला, जहाँ से 7 मई 2008 को दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर उनका तबादला हो गया. न्यायमूर्ति शाह बीसवें भारत के विधि आयोग के अध्यक्ष भी रहे.

 


अनुवाद: राजेन्द्र सायल