चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।
भारत में दलित चेतना को यहां लोकतांत्रिक समाज की स्थापना की बुनियादी शर्त की तरह लिया जाना चाहिए। डॉ. भीमराव आंबेडकर के यहां भी इसका जिक्र इसी रूप में आता है। लेकिन आज की विडंबना यह है कि एक अर्से से देश में दलित चेतना की पर्याय मानी जा रही बीएसपी सुप्रीमो मायावती द्वारा देश भर में हिंदुत्व पोषित हिंसक ब्राह्मण चेतना के प्रतीक पुरुष परशुराम की मूर्तियां लगाए जाने की खबर चर्चा में है। अगर किसी को लगता हो कि उत्तर प्रदेश या भारत के कई अन्य राज्यों में शीर्ष दलित नेता के तौर पर मायावती का कद ऐसे उलटबांसी नुमा कदमों से कुछ छोटा हुआ है तो यह उसकी भूल है। दलित चेतना के अगुआ की भूमिका में रहते हुए भी आप सर्वाधिक प्रतिगामी ब्राह्मण चेतना के लिए काम कर सकते हैं। बिना पलक झपकाए डॉ. आंबेडकर और ब्रह्मर्षि परशुराम दोनों के नाम का जाप एक साथ कर सकते हैं। भारत की मुख्यधारा दलित चेतना के हाल पर यह खुद में एक टिप्पणी है।
1920 के दशक से शुरू करके अबतक भारत के अलग-अलग इलाकों में दलित चेतना के अलग-अलग रूप देखने को मिले हैं। शुरू में इसके जमीनी मुद्दे तालाब-कुएं से पानी लेने और मंदिर प्रवेश तक सीमित थे। फिर हिंदू और मुसलमान की तरह अलग तीसरा निर्वाचक मंडल माने जाने की मांग के रूप में इस चेतना का प्रखर राजनीतिकरण हुआ। पूना पैक्ट के उन दिनों के बाद लगातार राजनीतिक विफलताओं से पैदा हुई लगभग चालीस साल की तंद्रा तोड़कर मा. कांशीराम के नेतृत्व में दलित-अति पिछड़ा गोलबंदी और चुनावी उम्मीदवारी में दबंग पिछड़ों को आगे रखकर एक मजबूत राजनीतिक विकल्प के रूप में खड़ा होना नब्बे के दशक के पहले हिस्से में दलित चेतना की बड़ी उपलब्धि रही। तब से अब तक हम इसके पतन की ही दास्तान सुन रहे हैं, हालांकि इसी दौर में ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ के नारे के साथ बहुजन समाज पार्टी ने यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार भी चला ली।
यहां हमारी कोशिश इसी दौरान, बल्कि सत्तर के दशक से शुरू होकर अभी तक जारी दलित चेतना की एक अलग धारा पर बात करने की है, जिसके बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं होती। उससे भी अजीब बात यह कि इस राजनीतिक धारा को अपनी इस विशिष्ट सामाजिक भूमिका को लेकर बात करना कभी कुछ खास जरूरी भी नहीं लगता। यह धारा है बिहार के नक्सल आंदोलन की, जिसका नेतृत्व सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) करती आ रही है। निश्चित रूप से इसे पारंपरिक अर्थों में दलित चेतना की धारा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह एक रेडिकल कम्यूनिस्ट धारा है। डॉ. आंबेडकर की राय कम्यूनिस्टों के बारे में ज्यादा अच्छी नहीं थी, जिसके कई कारण थे। इन कारणों में कुछ का कोई समाधान आगे भी संभव नहीं है। मसलन, कम्यूनिस्टों के लिए समानता का महत्व हमेशा स्वतंत्रता से ज्यादा रहेगा। लेकिन कम्यूनिस्टों से डॉ. आंबेडकर के मतभेदों में कम से कम एक ऐसा जरूर है, जो नक्सलवादियों पर लागू नहीं होता और यही उनको देश की पारंपरिक कम्यूनिस्ट धारा से अलग भी करता है।
डॉ. आंबेडकर की कम्यूनिस्टों से सबसे बड़ी नाराजगी उनके द्वारा जाति प्रश्न को खारिज किए जाने या कम से कम इसे प्राथमिकता पर न लिए जाने को लेकर थी, जिसका कुछ संबंध औद्योगिक मजदूरों और किसानों को भूमिहीन किसानों और खेत मजदूरों से ज्यादा तरजीह देने की उनकी रणनीतिक समझ से भी था। नक्सलवादी धारा का आधार इसकी शुरुआत से ही गरीब-भूमिहीन किसान और खेत मजदूर रहे हैं और सामंतवाद का खात्मा इसकी प्राथमिकताओं में सर्वोपरि रहा है, लिहाजा बाकी कम्यूनिस्ट धाराओं से परिप्रेक्ष्य की भिन्नता इसके लिए स्वाभाविक है। लेकिन ये बातें तो बंगाल और आंध्र प्रदेश, बल्कि अभी छत्तीसगढ़ के नक्सल आंदोलन पर भी लागू होती हैं। दलित चेतना जैसी ठेठ भारतीय परिघटना के मामले में बिहार का नक्सलवाद इनसे अलग कैसे है?
यह अलगाव बिहार की अपनी खासियत से, अपनी अलग वैचारिक जमीन से पैदा होता है, जिसे बारीकी से समझने की जरूरत है। राजनीतिक विमर्श की जातीय शब्दावली बिहार में 1930 के दशक से ही चली आ रही है, जब वहां यादव, कोइरी और कुर्मी जातियों के गठजोड़ के रूप में त्रिवेणी महासंघ का गठन हुआ था। राजनीतिक हलचलों की व्याख्या के लिए जातीय शब्दावली बिहार की ही देन है, जिसे बीएसपी ने बाद में नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। इसके विपरीत जातीय उत्पीड़न और जाति चेतना पश्चिम बंगाल में लंबे समय से एक दबी हुई परिघटना रही है, जबकि आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नक्सल आंदोलन आदिवासी संकेंद्रण वाले इलाकों में स्थित होने के कारण इस व्याकरण से ही बाहर चले जाते हैं। इन राज्यों से अलग बिहार में, खासकर भोजपुर, जहानाबाद और सिवान में सामंती उत्पीड़न का स्वरूप मुख्यतः जातीय उत्पीड़न वाला रहा है। लिहाजा यहां के नक्सल आंदोलन में जमीनी तौर पर, यानी गांवों में टहलते-घूमते दलित चेतना का कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष स्वरूप बिल्कुल साफ दिखता रहा है।
बिंदुवार देखें तो भोजपुर के नक्सल आंदोलन के आदि पुरुष कहलाने वाले मास्टर जगदीश महतो और बागी मिजाज के राम ईश्वर यादव ने इस आंदोलन से जुड़ने के पहले ‘हरिजनिस्तान’ बनाने का नारा दिया था। इस श्रेणी के तीसरे व्यक्तित्व, जो इनके ही गांव एकवारी (तरारी विकास खंड) से आते थे, अविभाजित भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़े कॉ. रामनरेश राम उर्फ मुखिया जी थे। सामान्य समय में शायद इन तीनों की गति अलग-अलग होती, लेकिन भयानक सामंती उत्पीड़न के क्रम में ये तीनों लगभग एक साथ सीपीआई-एमएल से जुड़े और इस पार्टी की सबसे अच्छी बात यह रही कि इसने इनको अपनी-अपनी शैली में काम करते रहने दिया। यह दौर बहुत लंबा नहीं चला। रामनरेश राम को छोड़कर बाकी दोनों नेता इमर्जेंसी के दौर में ही मार दिए गए, लेकिन अपने जुझारू आदर्शवाद से उन्होंने सीपीआई-एमएल के मुहावरे और कार्यशैली को देश की बाकी कम्यूनिस्ट पार्टियों से बहुत अलग कर दिया।
इस अंतर को समझाने के लिए दो बातें काफी रहेंगी। एक, यह प्रस्थापना कि ‘सशस्त्र किसान संघर्ष में लड़ाई के बड़े हथियार हमेशा खेतिहर सर्वहारा वर्ग के हाथों में रहेंगे’ और ‘पार्टी गरीब तबकों के बीच से पारंपरिक हथियारों से लैस जन मिलिशिया तैयार करने का प्रयास करेगी।’ और दूसरा, भोजपुर में अस्सी-नब्बे के दशकों का चर्चित नारा- ‘सवर्ण सामंती धाक को ध्वस्त करो।’ इसमें कोई शक नहीं कि भोजपुर में और बिहार के अन्य जिलों में भी समर्थक जनाधार का एक हिस्सा और कई अग्रणी कार्यकर्ता कथित ऊंची जातियों से आते हैं, लेकिन वर्ग संघर्ष के मुहावरे के रूप में सवर्ण सामंती धाक को ध्वस्त करने वाली बात को इनके बीच अपने खिलाफ लड़ाई के आह्वान की तरह नहीं लिया जाता। उच्च जातीय धाक आम तौर पर गुंडे-लंपटों के जरिये ही कायम होती है और जब-तब किसी गलती से फैलने वाले या फैलाए जाने वाले विभ्रम को छोड़ दें तो समाज की आम समझ ऐसे तत्वों के खिलाफ ही जाती है।
यह बात भी ध्यान रखने लायक है कि सवर्ण सामंती धाक को ध्वस्त करने का नारा भोजपुर तक ही सीमित रहा। सिवान में इसका इस्तेमाल करने की बात उठी थी, किया गया या नहीं, यह जानकारी मुझे नहीं है। इन भोजपुरी इलाकों को छोड़ दें तो मगध के लगभग सारे ही जिलों में सामंती धाक का स्वरूप ज्यादा व्यापक है और इसे सवर्णों तक सीमित करना कहीं यादव, कहीं कुर्मी और एक इलाके में पठानों के सामंती दबदबे को कम करके दिखाने जैसा होगा। दबंग जातिवादी राजनीति में पतित हुई अतीत की समाजवादी धाराओं की सबसे बड़ी गड़बड़ी यह रही कि वे ‘भूरा बाल साफ करो’ की फुसफुसाहट के साथ भूमिहारों, राजपूतों, ब्राह्मणों और लालाओं का दबदबा खत्म करने की बात कहकर पिछड़ों और दलितों का समर्थन लेने का सारा जतन करती हैं, लेकिन पालीगंज में यादव गुंडों द्वारा कुम्हारों पर ढाए गए तिसखोरा जनसंहार या सहरसा में मुसहरों की बस्ती जलाने पर बगलें झांकने लगती हैं।
यह एक तल्ख हकीकत है कि भारतीय समाज में दलित और प्रजा जातियों की सूची भूमिहीन किसान और खेत मजदूर वर्ग से लगभग पूरी तरह मेल खा जाती है। जब आपका संघर्ष उनके आत्मसम्मान से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित होता है तो आपकी पहचान ब्राह्मणवाद विरोधी या दलित चेतना के आंदोलन के रूप में की जा सकती है, और जब लड़ाई के मुद्दे जमीन और मजदूरी के इर्द-गिर्द बनते हैं तो आपको ठेठ कम्यूनिस्ट आंदोलन के रूप में पहचाना जा सकता है। बिहार में नक्सल आंदोलन के शुरुआती पंद्रह वर्षों में जमीन और मजदूरी से ज्यादा लड़ाइयां आत्मसम्मान के मुद्दों पर ही हुईं। कहीं किसी दलित स्त्री के साथ हुई बदतमीजी के खिलाफ तो कहीं दही या साग-भाजी बेचने गई पिछड़ी जाति की महिला पर की गई छींटाकशी के विरोध में। 1986 से इन लड़ाइयों को जन आंदोलन और फिर सीधी राजनीतिक लड़ाई का रूप देने की कोशिश की गई तो शुरू में इसमें भी बहुत अच्छी सफलता मिली लेकिन फिर जल्द ही इसका ‘सामाजिक न्याय’ की धारा के साथ टकराव हुआ और जनाधार दो हिस्सों में बंटा नजर आया।
एक बड़ा सवाल बनता है कि भोजपुर के नक्सल आंदोलन को अगर दलित चेतना का एक रूप माना जाए तो संघर्ष के कई दशक गुजर जाने के बावजूद इसका भूगोल सिमटा हुआ क्यों है? देश तो क्या, बिहार के ही चप्पे-चप्पे पर इस खास प्रकार की दलित चेतना का विस्तार क्यों नहीं दिखाई पड़ता? यहां एक बात पहले ही साफ कर दी जाए कि भोजपुर के विशिष्ट सामंतवाद विरोधी संघर्ष के प्रभाव से बिहार की दलित चेतना में यह बदलाव तो हुआ है कि वहां बीएसपी के मिजाज की फर्जी दलित चेतना के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है। इस पार्टी के दो-एक विधायक बिहार विधानसभा के लिए जब-तब जरूर चुने गए हैं लेकिन उनकी पहचान किसी राजनीतिक व्यक्तित्व के बजाय यूपी के सीमावर्ती इलाकों के अपराधियों जैसी ही बनी रही। फिर भी इस चेतना का फैलाव न हो पाने का सवाल वाजिब है, और पहली नजर में इसकी दो वजहें समझ में आती हैं।
एक तो यह कि संघर्ष आधारित दलित चेतना कोई पूंजी-पव्वे के बल पर चलती रहने वाली चीज नहीं है, जो घर बैठे सुरक्षित बनी रहे और साथ में फैलती भी जाए। बाहरी दबावों के सामने इसे टिकाए रखने के लिए भी आंदोलन जरूरी है। दूसरी बात यह कि मर-मिटने की भावना के बावजूद बड़े दायरे में आ-जा सकने, अनजाने लोगों पर भी प्रभाव छोड़ सकने लायक दलित नेताओं की बड़ी कतार यह आंदोलन अपने बीच से पैदा नहीं कर पाया। यकीनन यह एक कठिन काम है। कमजोर तबकों के बीच से होलटाइमर कम निकलते हैं, और जो गिने-चुने निकलते भी हैं वे अपना जिला छोड़ने से कतराते हैं। लेकिन इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कृषि क्रांति में दलित चेतना की कोई भूमिका नक्सल आंदोलन की समझ से परे है। लिहाजा इसका विस्तार खुद में उसके लिए कोई प्राथमिकता नहीं है।
इधर कुछ दिनों से सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) के युवा संगठन ने ‘भगत सिंह और आंबेडकर के सपनों का भारत बनाने’ के नारे के साथ कुछ गतिविधियां शुरू की हैं, जिनका बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रभाव देखा गया है। इस नारे में एक नए मिजाज की दलित चेतना की इच्छा निहित है। और कम से कम इसके चलते इतना तो हुआ ही है कि कम्यूनिस्ट कतारों में डॉ. आंबेडकर को पूरी तरह दक्षिणपंथी चेतना का व्यक्ति मान लेने की जो गलतफहमी बनी हुई थी, वह दूर हुई है। दलित चेतना जैसी सामाजिक परिवर्तन की गैर-वर्गीय धारणाएं भी उनके राजनीतिक दर्शन का अंग बन रही हैं। लेकिन असल बात शीर्ष स्तर की समझ में बुनियादी बदलाव की है। दलित चेतना कोई वर्गीय उपकरण नहीं है, लेकिन भारतीय समाज का 20 प्रतिशत सबसे कमजोर तबका, जिसके सक्रिय हुए बिना देश में कोई भी प्रगतिशील क्रांति तो दूर, सामान्य लोकतांत्रिक ढांचा बनना भी संभव नहीं है, अपनी मुक्ति का रास्ता यहीं से गुजरते हुए देखता है। निस्संदेह, इसके भोजपुर मॉडल का पूरे देश के लिए विस्फोटक महत्व हो सकता है।
चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।