प्रताप भानु मेहता
विकास दुबे की मुठभेड़ में मौत और बाद का घटनाचक्र उत्तर प्रदेश में शासन-प्रशासन के मौजूदा हाल, ख़ासतौर पर ‘पुलिस सुधार’ पर रोशनी डालता है। आदित्यनाथ का राजनीतिक निपटान अनूठा है। कई भारतीय राज्य दंडहीनता को बरदाश्त करते हैं और कानून के शासन को निलंबित कर देते हैं। लेकिन आदित्यनाथ का शासन खुले तौर पर विचारधारात्मक रूप से ‘ठोंक दो’ नीति ( इस कथन को मुख्यमंत्री द्वारा कहा गया बताया जाता है- “अगर अपराध करेंगे तो ठोक दिए जाएंगे”) के लिए प्रतिबद्ध है।
जिस तरह से खुद मुख्यमंत्री के विरुद्ध मामले वापस लिए गए, उससे भी इस नीति को बल मिला। यह और खतरनाक तरीके से तब सामने आया जब नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध प्रतिरोध को दबाने के लिए मनमाने तरीके से लोगों की संपत्तियां जब्त की गई, जिसके पीछे कोई कानूनी आधार नहीं था। जो भी था वह केवल पूर्वाग्रह था। स्वतंत्र पत्रकार नेहा दीक्षित साहस के साथ उत्तर प्रदेश पुलिस की हिंसा की उस दौर की रिपोर्टिंग करती रही थीं, जब फरवरी 2018 में खुद पुलिस ने स्वीकार किया था कि 1 दिन में मुठभेड़ में 40 लोग मारे जाते थे। उत्तर प्रदेश पुलिस तरह-तरह के अपराधों पर इस तरह से रासुका लगा रही थी मानो ऐसा करना छोटा मोटा दंड लगाना हो। कहीं भी, कभी भी राज्य की हिंसा को इतना विचारधारात्मक औचित्य नहीं प्रदान किया गया है। कानून को कुचलते हुए आदेश देना आदित्यनाथ की विचारधारात्मक सफलता है।
अतः जबकि विकास दुबे की हत्या जैसे दूसरे मामले भी हैं, यहाँ एक विचारधारात्मक संदर्भ भी है। दुबे एक ऐसा गैंगस्टर था जो उत्तर प्रदेश की राजनीति की नीचता और भयंकरता का प्रतिनिधित्व करता था। उसने 8 पुलिस वालों की हत्या की और कई जघन्य अपराधों का आरोपी था। लेकिन वह राजनीतिक और सामाजिक सत्ता तंत्र का भी हिस्सा था जिसकी वह सेवा करता था। एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति में जिसमें कानून के शासन की मांग निष्ठुरता समझी जाती हो और बदला लेने को मानवीयता, तो कोई भी इस तरह की हत्या की उपेक्षा नहीं कर सकता। बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि हम निम्नलिखित तीन बिंदुओं की उपेक्षा ना करें-
प्रथमतः उदार लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में कानूनेतर हत्या का कोई स्थान नहीं है।
दूसरे, इस तरह के मामलों में प्रायःजो कारण बताए जाते हैं, बावजूद इसके कि उनमें कुछ सत्य का अंश हो सकता है, वह प्रभावी नहीं होते। इन मामलों में पुलिस की यह दलील और कुंठा कि उनके सहकर्मी साथी मारे गए थे या न्यायपालिका पर विश्वास ना होने का तर्क उचित नहीं है। एक बात स्पष्ट है कि भारतीय राज्य में अपने वांछित अपराधियों को रखने की क्षमता बहुत ऊंचे स्तर की है, यह हम समय-समय पर देखते रहे हैं इसलिए न्यायिक दुर्बलता का बहाना मत बनाइए। न्यायिक निर्बलता के पीछे कोई ना कोई राजनीतिक हाथ होता है । उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार सहित किसी की भी दिलचस्पी इसमें नहीं थी कि दुबे के राजनीतिक संबंधों की जांच हो।
तीसरे, इस पिटी पिटाई मान्यता पर सवाल उठाना चाहिए जो कि आदित्यनाथ के समर्थन में है कि कानून व्यवस्था के लिए इस तरह की मजबूत राज्य शक्ति जरूरी है। ठोंको राज न तो कानून व्यवस्था की देन है न ही दीर्घ अवधि में यह उत्तर प्रदेश में हिंसा को कम करेगा। अगर यह कर सकता तो फिर यह असाधारण घटनाओं की श्रृंखला कैसे बनी? लेकिन फिलहाल एक बड़ी समस्या है। इस कांड की घटनाओं की पूरी श्रृंखला पुलिस सुधारों की मांग की ओर ले जाएगी। पुलिस को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाइए ।पुलिस के प्रशिक्षण में निवेश करिए। न्यायिक व्यवस्था को मजबूत करिए। लेकिन पुलिस सुधार के बारे में सत्य वही है जो गांधी ने पाश्चात्य सभ्यता के बारे में कहा था। निम्नलिखित कारणों से वास्तव में कोई भी यह चाहता नहीं है।
हर तरह से पुलिस भारतीय राज्य की सबसे अविश्वसनीय संस्था है। आप क्या सकते हैं कि पुलिस सुधार और विश्वास पैदा करेगा? जब विश्वास का स्तर अत्यंत कम होता है तो आप डरते हैं कि पुलिस का सुधार या इसका और अधिक सशक्तिकरण दमन की शक्ति को ही बढ़ाएगा। अगर आप पुलिस पर विश्वास नहीं करते हैं तो क्या आप वाकई इसे और सक्षम बनाना चाहेंगे? जब आप के अस्तित्व का ढांचा ही ऐसा है जिसमें लाखो निर्धन लोग राज्य निर्मित अवैधानिकता के अंचल में रहते हों, जैसा कि आज है, तो क्या आप पुलिस को और अधिक अधिकार देना चाहेंगे । शक्तिहीन समूह, जो पहले से ही पुलिस की ज्यादती के शिकार हैं, इस बात से भयभीत हैं कि पुलिस को और शक्ति देने से जो थोड़ा बहुत भी उनके पास सुलह समझौते की संभावना है, वह भी समाप्त हो जाएगी। और सुविधा प्राप्त वर्ग के पास सौदेबाजी की ताकत बढ़ जाएगी।
दूसरे लोकतंत्र में पुलिस की विचित्र स्थिति है। यह राजनीतिक शक्ति को संरक्षण में बदलकर प्रस्तुत करने का तंत्र है। कोई भी अपनी लाभदायक स्थिति छोड़ना नहीं चाहता , इसलिए पुलिस सुधार के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है । लेकिन यह भी स्पष्ट नहीं है कि विपक्ष भी इसको चाहता है । यह केवल इसलिए नहीं है कि अपनी बारी में वह भी इसका वैसा ही प्रयोग करना चाहता है बल्कि इसलिए भी कि एक तदर्थ वैधानिक ढांचा, जो कि समुदाय , पहचान, धनशक्ति, हिंसा आदि के आधार पर सौदेबाजी के तंत्र से, लोकतंत्र, शक्ति के विकेंद्रीकरण का तंत्र बन जाता है। कोई भी राज्य को हिंसा पर एकाधिकार नहीं देना चाहता। दुबे जैसे कई अपराधी कानून के शासन को दबा देते हैं लेकिन जनता उनको उस संधिगांठ के रूप में देखती है जो राज्य के प्रतिरोध के लिए लगाई जा सकती है । भारतीय लोकतंत्र केवल इसलिए ही नहीं बचा रहा कि यह कुछ मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध रहा बल्कि इसमें हिंसक शक्ति का वास्तविक विखंडन भी रहा, खासतौर से उत्तर प्रदेश और बिहार में। पुलिस सुधार का मतलब होगा खंडित शक्ति की पूरी नैतिक अर्थव्यवस्था को दबा देना।
और अंत में जैसा कि बीट्रिस जारेगुई ने पुलिस पर अपनी बढ़िया किताब ‘प्रोविजनल अथॉरिटी : पुलिस ऑर्डर एंड सिक्योरिटी इन इंडिया ‘ (शिकागो यूनिवर्सिटी प्रेस ) में इशारा किया है कि पुलिस की अजीबो ग़रीब स्थिति यह है कि एक तरफ़ तो वह हुक्म देने की हैसियत में है, लेकिन दूसरी तरफ़ तिहाई औकात भी नहीं है। उन्होंने बताया कि अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि वैश्विक स्तर के विपरीत भारत में ड्यूटी पर मारे जाने वाले पुलिस वालों की संख्या, उनके द्वारा मारे गए नागरिकों की संख्या से दोगुनी थी। ज्यादातर मौतें अपराधियों द्वारा नहीं बल्कि खराब कामकाजी दशाओं और उपेक्षा के कारण हुई। एक तरफ उनसे अपेक्षा की जाती है कि वह नेताओं के आदेशों पर चुप्पी साधे रहें और दूसरी ओर उनकी कर्तव्य मानकों के पूरा न करने की आलोचना की जाती है। जारेगुई कहती है कि इसलिए वे नैतिक अर्थ में हाशिए पर डाल दिए गए हैं। उनसे त्याग करने को कहा जाता है और नैतिक और कानूनी रूप से निंदित किया जाता है। वह अपनी भलाई की मांग नहीं कर सकते। इसलिए वास्तविक अर्थ में पुलिस सुधार न होने से अपराधियों और राज्य के मध्य की रेखा धुंधली ही रहेगी, जैसा कि उत्तर प्रदेश में है।
हमारे दौर के चर्चित पब्लिक इंटलेक्चुअल प्रतापभानु मेहता का यह लेख Thoki Raj: Creating order by trampling on law is one of the elements of Adityanath’s ideological success 11 जुलाई को इंडियन एक्सप्रेस में छपा। सभार प्रकाशित।
अनुवाद-आनंद मालवीय, जार्ज टाउन इलाहाबाद।