प्रॉक्सी तानाशाही के दौर में भावी नेतृत्व पर गंभीर मंथन की ज़रूरत


अनेक असहमतियों के बावजूद मुझे इस सच्चाई को मानने में संकोच नहीं है कि देश की ग्रांड ओल्ड पार्टी कांग्रेस की उपस्थिति राष्ट्रीय स्तर पर है। यद्यपि इसने कई गलतियां की हैं लेकिन भारत के मूलभूत चरित्र को अक्षुण रखा है; बहुलतावाद, लोकतंत्र, समवेशी भारत; हाशिये के समाजों की रक्षा; प्रतिस्पर्धात्मक राजनीतिक को सक्रिय रखना; गुटनिरपेक्षता जैसी विरासत को कैसे भुलाया जा सकता है।


रामशरण जोशी रामशरण जोशी
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किसी भी जीवंत लोकतंत्र की बुनियादी ज़रूरतें होती हैं लोकसम्मत संविधान, गतिशील प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति, विवेकशील -तर्कशील नागरिक, समावेशी वातावरण और विषमतामुक्त विकासोन्मुखता। इन बुनियादी ज़रूरतों के अभाव में भारतीय लोकतंत्र संकटग्रस्त होता जा रहा है। राज्य से जिस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षाएं रहती हैं वे वर्तमान नेतृत्व के दौर में अदृश्य है।

संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकार सिकुड़ते जा रहे हैं. नागरिक चेतना को जाग्रत करनेवाले एक्टिविस्ट जेलों में ठूस दिए जाते हैं या उन पर राज-द्रोह -देश द्रोह -राष्ट्र विरोधी होने के लेबल चस्पा दिए जाते हैं।

पिछले ही दिनों आला अदालत के न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने सत्ता से सच बोलने का आहवान किया था। न्यायाधीश का सामायिक आहवान इस ज़रूरत को रेखांकित करता है कि लोकवृत में सच का अकाल दिखाई दे रहा है; सच बोलने की क्षमता और अपेक्षा, दोनों ही सूखती जा रही हैं; पोस्ट ट्रुथ पॉलिटिक्स (उत्तर सत्य राजनीति) व पोस्ट ट्रुथ मीडिया ( उत्तर सत्य मीडिया ) का बसंत सत्ता के कारिंदों पर उतरा हुआ है, सुविधापूर्वक सत्य का असत्य में और असत्य का सत्य में रूपांतरण ‘राजधर्म’ के रूप में दिखाई दे रहा है। ऐसे राजधर्म के चलते लोकतंत्र और लचर होता जा रहा है।

राजधर्म ने देश की जनता को एक तरह से मुफ्तखोर की कतार में लेकर खड़ा कर दिया है; मुफ्त कोरोना टीका; मुफ्त 5 किलो अन्न। सार्वजनिक स्थलों पर गरीबों के लिए प्रधानमंत्री का ‘मुफ्त’ का सन्देश इतराता खड़ा दिखाई देगा। अब तो प्रधानमंत्री का जन्म दिन 21 दिनों तक ‘गरीबों का मसीहा’ के रूप में देश भर में मनाया जायेगा। यह पहला मौका है जब उन्हें ‘गरीबों का मसीहा’ के रूप में जनमानस में उतारा जायेगा क्योंकि अगले वर्ष उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में चुनाव हैं। उत्तर प्रदेश का चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणामों पर मोदी-शाह सत्ता का अस्तित्व टिका हुआ है। इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गरीबों का मसीहा के चेहरे में चित्रित करना भाजपा के लिए अनिवार्य हो गया है। कोई विकल्प नहीं है इसके पास क्योंकि कोरोना -2 की लहर में मोदी और योगी, दोनों सरकारों की खासी फ़ज़ीहत हो चुकी है; ऑक्सीजन गैस के अभाव में कोई मौत नहीं हुई, इससे बड़ा असत्य क्या हो सकता है?; बेरोज़गारी के आंकड़ों को छुपाना; आला अदालत द्वारा किसान आंदोलन पर गठित समिति की सिफारिशों को जारी नहीं करना, किसान आंदोलन के प्रति उपेक्षाभाव जैसी घटनाएं इस बात का सुबूत है कि सत्य, मुद्दों और समाधान से पलायन करना चाहती है सरकार। दूसरे शब्दों में ‘भगोड़ा चरित्र’ बना हुआ है।

जब सत्ताधीश स्वयं के अहंकार से घिर जाते हैं तब उनका अधिनायकवादी चेहरा उभरने लगता है। तानाशाही प्रवृतियां उनकी असफलताओं का कवच बनने लगती हैं। चरम राष्ट्रवाद, धार्मिक -मज़हबी कट्टरता, सैन्यवाद, संवेदनशील व विभाजनकारी मुद्दे उनके हथियार बन जाते हैं। तीसरी दुनिया के शासकों का यह ‘पैटर्न’ बनता जा रहा है; म्यांमार, पाकिस्तान, अफगानिस्तान , श्रीलंका, ब्राज़ील जैसे देश इसकी मिसालें हैं. निश्चित ही भारत इसका अपवाद नहीं है. इसलिए ‘सेडिशन चार्ज’ को ज़िंदा रखा जा रहा है जबकि अदालतें सरकार को फटकार लगा चुकी हैं. दिल्ली की एक अदालत ने खिन्नता के साथ यह तक कह दिया कि “हम तालिबान के राज्य में नहीं हैं।” यानि ऐसी स्थितियां निर्मित की जा रहीं हैं जिसमें लोकतंत्र का डीएम घुटने लगे।

जब देश का परिदृश्य ऐसा हो तब प्रतिपक्ष और विपक्षी नेताओं से उम्मीद रखी जाती है कि वे अग्नि परीक्षा के लिए कमर कसें। इस माहौल में यह देखना होगा कि कौन सी शक्तियां और जनप्रतिनिधि देश के लोकतंत्र, बहुलतावाद, संविधान , नागरिक अधिकारों और नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करने की क्षमता रखता है। अनेक असहमतियों के बावजूद मुझे इस सच्चाई को मानने में संकोच नहीं है कि देश की ग्रांड ओल्ड पार्टी कांग्रेस की उपस्थिति राष्ट्रीय स्तर पर है। यद्यपि इसने कई गलतियां की हैं लेकिन भारत के मूलभूत चरित्र को अक्षुण रखा है; बहुलतावाद, लोकतंत्र, समवेशी भारत; हाशिये के समाजों की रक्षा; प्रतिस्पर्धात्मक राजनीतिक को सक्रिय रखना; गुटनिरपेक्षता जैसी विरासत को कैसे भुलाया जा सकता है। यह भी सही है कि 1975 की आपातकाल जैसी विसंगति को भी नहीं भुलाया जा सकता। लेकिन, आज लोकतंत्र पर कैसे आघात हो रहे हैं, कौन कर रहा है, कौन सामाजिक-सांस्कृतिक -आर्थिक संतुलन में असंतुलन पैदा कर रहा है, इसे भी समझने की ज़रूरत है। राष्ट्रीय असहमति की कौन धुरी बन सकता है, इसकी क्षमता किसमें है, इसे भी समझने -परखने की ज़रूरत है।

आनेवाला समय युवा व भरोसेमंद नेतृत्व का है। जब नेतृत्व की बात उठती है तो ज़ाहिर है यह भी देखने की ज़रूरत है कि किसमें भारत के ‘मर्म’ की रक्षा की क्षमता है। भारत के मूलचरित्र, लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए मैदान में अहिंसात्मक ढंग से संघर्षरत कौन है? कौन मोदीजी की आँखों में आँखें डाल कर बोल सकता है? किसकी राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता है या पहचान है ? यद्यपि, क्षेत्रीय स्तर पर अच्छे नेतृत्व उभर रहे है हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष की पहचान कौन बन सकता है, इस पर भी विचार किया जाना चाहिए। आमतौर पर कह दिया जाता है कि मोदी जी का कोई विकल्प नहीं है। यही धारणा नेहरू, इंदिरा गांधी, अटलबिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह के लिए बनी थी, लेकिन क्या हुआ? समय ने विकल्प पैदा किया। नेतृत्व सामने आये। इसलिए ‘टीना फैक्टर’ के भरोसे नहीं रहना चाहिए। यह देखना होगा कि पिछले सालों में किसने जनता व विपक्ष की आवाज़ को सतत बुलंद किया है? किसने छद्म तानाशाही से टक्कर ली है, इस सवाल पर गंभीर मंथन की ज़रूरत है?

लेखक देश के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं।