कांग्रेस को केंद्र में लाकर ही विपक्षी मोर्चा कर सकता है तानाशाही का अंत!


अगर विपक्ष एक नहीं हो पाता है और कारपोरेट घरानों व आरएसएस के समर्थन से अगले चुनाव में भाजपा फिर से सत्ता में आने में सफल हो जाती है तो देश के हालात कैसे बनेंगे यह कल्पना करना भी मुश्किल है. अतः यह आवश्यक है कि क्षेत्रीय पार्टियों और राष्ट्रीय पार्टियों के बीच सेतु का निर्माण किया जाए. अगर हमें मुसलमानों, ईसाईयों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के बढ़ते हाशिएकरण को रोकना है और साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के बढ़ते कदमों को थामना है तो विपक्षी पार्टियों को एक न्यूनतम सांझा कार्यक्रम पर राजी होना ही होगा.


राम पुनियानी राम पुनियानी
ओप-एड Published On :


आज के भारत की तुलना एक दशक पहले के भारत से करने पर हैरानी होती है. लोकसभा (2014) में भाजपा के बहुमत हासिल करने से राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिदृश्य में प्रतिकूल परिवर्तन हुए हैं. बढ़ती महंगाई, अर्थव्यवस्था की बदहाली और जीडीपी की वृद्धि दर का न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाना, हंगर इडेक्स में भारत की स्थिति में गिरावट और गरीबी-बेरोजगारी में जबरदस्त वृद्धि और इसके समांतर कारपोरेट क्षेत्र की हैरतअंगेज उन्नति, नागरिकों की आर्थिक दुर्दशा को दर्शाते हैं. लोकतांत्रिक मूल्यों, संसदीय परंपराओं और प्रजातांत्रिक संस्थाओं जैसे चुनाव आयोग, प्रवर्तन निदेशालय व सीबीआई की स्वायत्ता का क्षरण और न्यायपालिका के एक हिस्से की भारतीय संविधान के मूल्यों की रक्षा करने में विफलता – ये सब जनता के सामने हैं. भारत का संघात्मक ढ़ांचा भी खतरे में है और कई क्षेत्रीय पार्टियों और राज्यों को ऐसा लग रहा है कि केन्द्र उनके अधिकार क्षेत्र पर अतिक्रमण कर रहा है. कोरोना टीकाकरण अभियान इसका एक उदाहरण है.

दलित, आदिवासी और धार्मिक अल्पसंख्यक कई तरह की तकलीफें भोग रहे हैं. सत्ताधारी दल सीएए लागू करने पर आमादा है. ऐसे में समाज के कई तबकों को लग रहा है कि देश को अब एक ऐसी केन्द्र सरकार की जरूरत है जो भारतीय संविधान के प्रावधानों और मंशा के अनुरूप काम करे और जिसकी बहुवाद और समावेशिता में आस्था हो.

भाजपा को आरएसएस का पूर्ण समर्थन प्राप्त है. संघ के लाखों स्वयंसेवक और सैकड़ों प्रचारक भाजपा के हितों के लिए काम कर रहे हैं. उनका दावा तो यही होता है कि वे एक सांस्कृतिक संस्था के अनुयायी और कार्यकर्ता हैं परंतु कोई भी चुनाव आते ही वे भाजपा के पक्ष में मैदान में कूद पड़ते हैं. मीडिया का एक बड़ा हिस्सा और संघ व भाजपा से जुड़े आईटी योद्धा पार्टी की चुनाव में विजय सुनिश्चित करने के लिए हर संभव कवायद करते हैं. कारपोरेट क्षेत्र भी भाजपा का जबरदस्त हिमायती है. पिछले कई दशकों से हमारे देश के कारपोरेट शहंशाह मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखने के लिए हर संभव प्रयास करते रहे हैं. इसके अलावा भाजपा ने चुनावों में जीत हासिल करने के लिए एक बहुत बड़ी मशीनरी खड़ी कर ली है जो विपरीत परिस्थितियों में भी पार्टी की विजय सुनिश्चित करने के लिए दिन-रात काम करती है. भाजपा ने चुनाव में बहुमत न पाने पर भी राज्यों में अपनी सरकारें बनाने की कला में महारत हासिल कर ली है. भाजपा साम-दाम-दंड-भेद से विधायकों को अपने पाले में लाने में सफल रही है. गोवा, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में उसने इसी तरह अपनी सरकारें बनाईं.

भाजपा चुनाव में सफलता के लिए किसी से भी गठबंधन करने को प्रस्तुत रहती है और उसके पास अथाह संसाधन हैं. रामविलास पासवान को पार्टी ने किस तरह लगातार अपने साथ बनाए रखा, यह इसका उदाहरण है. अन्य पार्टियों के महत्वाकांक्षी नेताओं को भी पार्टी अपने साथ लेने में सफल रही है. ज्योतिरादित्य सिंधिया ऐसे ही एक नेता हैं.

इस प्रकार देश के नागरिकों के एक बड़े हिस्से में व्यापक असंतोष के बाद भी पार्टी न केवल केन्द्र में सत्ता पर अपनी पकड़ को और मजबूत कर पाई है वरन् कई राज्यों में भी चुनावी असफलताओं के बावजूद वह सत्ता में आ गई है. परंतु बंगाल ने यह दिखा दिया है कि चाहे कोई पार्टी कितने ही संसाधन झोंक दे जनता फिर भी उसे नकार देती है.

दूसरी ओर विपक्षी पार्टियां अभी भी यह नहीं समझ सकी हैं कि बहुवादी प्रजातांत्रिक एजेंडा के आधार पर उनकी एकता ही भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकती है. असम में चुनाव के नतीजों से विपक्षी पार्टियों की आंखें खुल जानी चाहिए. वहां कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन ने भाजपा-नीत गठबंधन से अधिक मत प्राप्त किए परंतु फिर भी सरकार भाजपा की बनी. इसका एक मुख्य कारण था यह था कि समान नहीं तो मिलते-जुलते एजेंडा के बावजूद, विपक्षी पार्टियां एक मंच पर नहीं आ सकीं. अखिल गोगोई की पार्टी, जिसने अलग चुनाव लड़ा, ने चुनाव नतीजों को प्रभावित किया.

कई विपक्षी पार्टियां गठबंधन का भाग बनने की इच्छा तो व्यक्त करती हैं परंतु वे इतनी असंभव शर्तें रखती हैं कि प्रजातांत्रिक मूल्यों के समर्थक लोगों के मत बंट जाते हैं और इससे भाजपा को लाभ होता है. पंजाब और गोवा में पिछले विधानसभा चुनावों में आप और कांग्रेस के बीच समझौता न हो पाना इसका उदाहरण है.

इस पृष्ठभूमि में आगे की राह क्या हो? “द टाईम्स ऑफ़ इंडिया” में हाल में प्रकाशित अपने लेख में जदयू सांसद पवन वर्मा ने यह तर्क दिया कि क्षेत्रीय पार्टियों का अखिल भारतीय जनाधार नहीं है और इसलिए किसी भी प्रभावी विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस की उपस्थिति अनिवार्य और केन्द्रीय है. वे लिखते हैं “केरल और असम एक दूसरे से सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं परंतु दोनों राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है. भले ही कांग्रेस को पिछले लोकसभा चुनाव में केवल 52 सीटें मिली हों परंतु 12 करोड़ भारतीयों ने उसे अपना मत दिया था (भाजपा को 22 करोड़ वोट मिले थे). कुल वोटों में कांग्रेस की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत थी.’’

आज सभी को यह अहसास हो रहा है कि देश को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के संयुक्त गठबंधन की जरूरत है. कोरोना महामारी से निपटने में जिस तरह की गंभीर गड़बड़िया हुई हैं, उसने बहुत मेहनत से बनाई गई मोदी की छवि को चूर-चूर कर दिया हैै. जो लोग अब भी तोते की तरह यह दुहरा रहे हैं कि “जीतेगा तो मोदी ही” उन्हें भी यह एहसास है कि मोदी के तानाशाहीपूर्ण रवैये और वर्तमान सत्ताधारी दल की साम्प्रदायिक राष्ट्रवादी नीतियों के चलते देश बर्बादी की कगार पर पहुंच गया है. समस्या यह है कि विपक्षी दल बंटे हुए हैं और उनके नेताओं के अहं और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के चलते प्रभावी गठबंधन नहीं बन पा रहा है. इसके नतीजे में चुनावों में त्रिकोणीय संघर्ष हो रहे हैं जिसका लाभ भाजपा को मिल रहा है.

भारत के सबसे पुराने राजनैतिक दल, जिसने देश को स्वाधीनता दिलवाने में केन्द्रीय भूमिका अदा की थी, के नेतृत्व को भी यह समझना चाहिए कि उसे संवैधानिक मूल्यों और सिद्धांतों के ढ़ांचे के भीतर रहते हुए क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को भी जगह देनी होगी. उसे एक समावेषी आर्थिक एजेंडा विकसित करना होगा जैसा कि यूपीए-1 के कार्यकाल में किया गया था. उस समय कांग्रेस ने वामपंथी दलों के समर्थन से देश की सरकार चलाई थी और उस दौर में आमजनों को कई क्रांतिकारी अधिकार दिए गए थे.

अगर विपक्ष एक नहीं हो पाता है और कारपोरेट घरानों व आरएसएस के समर्थन से अगले चुनाव में भाजपा फिर से सत्ता में आने में सफल हो जाती है तो देश के हालात कैसे बनेंगे यह कल्पना करना भी मुश्किल है. अतः यह आवश्यक है कि क्षेत्रीय पार्टियों और राष्ट्रीय पार्टियों के बीच सेतु का निर्माण किया जाए. अगर हमें मुसलमानों, ईसाईयों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के बढ़ते हाशिएकरण को रोकना है और साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के बढ़ते कदमों को थामना है तो विपक्षी पार्टियों को एक न्यूनतम सांझा कार्यक्रम पर राजी होना ही होगा.

समावेशी भारतीय राष्ट्रवाद के मूल्यों में विष्वास रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों को भी इस तरह की पहल का खुले दिल से समर्थन करना चाहिए. युवा विद्यार्थियों और युवा नेताओं के सार्थक प्रयासों को सलाम करते हुए सामाजिक संगठनों को अपनी जगह बनाए रखनी होगी.

लेखक राम पुनियानी, आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर हैं और मानवाधिकार-सौहार्द कार्यकर्ता-लेखक के तौर पर सक्रिय हैं।

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)