कोरोना से मौतों पर मुआवज़ा: सरकार अंत तक आनाकानी ही क्यों करती रही?


आम देशवासियों को कोरोना या उसकी पाबन्दियों की मार से राहत दिलाना कभी इस सरकार की प्राथमिकताओं में रहा ही नहीं, तो कौन कह सकता है कि उसने उस लोक का साथ नहीं छोड़ दिया है, जिसकी प्रिय होने का वह दावा करती रहती है? याद कीजिए, चौतरफा दबाव से पहले वह हर देशवासी के मुफ्त टीकाकरण के लिए भी तैयार नहीं थी।


कृष्ण प्रताप सिंह कृष्ण प्रताप सिंह
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अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने कोरोना से जानें गंवाने वाले देशवासियों के परिजनों को मुआवजा देने में आनाकानी की केन्द्र सरकार की एक भी दलील नहीं मानी। न यह कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून की धारा-12, जिसमें आपदा से मृत्यु पर मुआवजा देने का प्रावधान है, उसके लिए बाध्यकारी नहीं है और न यह कि केन्द्र व राज्य सरकारें इस मुआवजे का बोझ नहीं उठा सकतीं, क्योंकि वे पहले ही कोरोना से निपटने में आ रहे भारी खर्च से हलकान हैं। न्यायालय ने यह दलील भी नहीं ही स्वीकार की कि सरकार के समक्ष संसाधनों की कमी से भी बड़ा सवाल उनके तर्कसंगत, विवेकपूर्ण और सर्वोत्तम यानी मुआवजे से बेहतर इस्तेमाल का है-स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत करने का, ताकि भविष्य में आने वाले ऐसे किसी संकट का बेहतर ढंग से मुकाबला किया जा सके।

इस तरह की दलीलों से साफ था कि सरकार को मुआवजा देना राजकोष का तर्कसंगत और विवेकपूर्ण इस्तेमाल नहीं लग रहा था। लेकिन न्यायालय ने उसकी ‘गलतफहमी’ दूर करते हुए यह स्पष्ट करने में भी कोई कोताही नहीं की कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून की धारा-12 में प्रयुक्त अंग्रेजी का ‘शैल’ शब्द मुआवजे की अनिवार्यता को दर्शाता है और सरकार इस अनिवार्यता से बचकर नहीं जा सकती।

हां, उसने सरकार की इस दलील के प्रति उसके तथ्यसम्मत न होने के बावजूद थोड़ी रहमदिली जरूर दिखाई कि सारे मृतकों के परिजनों को मुआवजा देने में उसका राष्ट्रीय आपदा राहत कोष ही खाली हो जायेगा। इसलिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को विफल करार देते हुए भी उसने उसे यह तय करने का अधिकार दे दिया कि वह याचियों की मांग के अनुसार चार लाख रुपये नहीं तो कितना मुआवजा देगा और कैसे? उसने प्राधिकरण को इसके लिए छः हफ्तों में दिशानिर्देश तैयार कर न्यूनतम मुआवजे की सिफारिश का निर्देश भी दिया है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके बाद केन्द्र सरकार को यह बात पूरी तरह समझ में आ जायेगी कि वह देशवासियों के जान-माल समेत सारे लोकतांत्रिक अधिकारों की संवैधानिक संरक्षक है और इस रूप में कोरोना से अपनों को खोने वालों को मुआवजा देना उसका संवैधानिक दायित्व है। इस कारण और कि उनमें से अनेक कोरोना के साथ अस्पतालों में बेडों, दवाओं, इंजेक्शनों और आक्सीजन वगैरह के अभाव यानी सरकार के महामारी प्रबंधन में गड़बड़ियों के कारण अपनी जान से गये। ये गड़बड़ियां न होतीं तो बहुत संभव है कि उनकी घुटती हुई सांसें लौट आतीं और वे हमारे बीच होते।

यहां पल भर रुककर एक बात समझ लेनी चाहिए। यह कि न्यायालय द्वारा राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण को विफल करार देने का अर्थ क्या है? हम जानते हैं कि इस प्राधिकरण के अध्यक्ष खुद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी हैं और उन्होंने ही उसके सदस्यों का मनोनयन भी कर रखा है। इन सदस्यों में से एक को उपाध्यक्ष नामित कर कैबिनेट मन्त्री जबकि अन्य सदस्यों को राज्य मन्त्री का दर्जा दिया गया है। ऐसे में प्राधिकरण की विफलता का अर्थ निस्संदेह प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की विफलता है।

इसीलिए न्यायालय ने प्राधिकरण को कठघरे में खड़ा कर यह सवाल भी पूछा कि क्या उसने यह फैसला लिया है कि कोरोना से मौतों के मामले में परिजनों को चार लाख रुपये की अनुग्रह राशि नहीं दी जा सकती? नहीं दी जा सकती तो क्या मृतकों के परिजनों का दुख कम करने के लिए समान मुआवजे की किसी योजना पर भी विचार नहीं किया जा सकता? फिर, जवाब की प्रतीक्षा किये बिना ही उसने प्राधिकरण से इस पर विचार करके छः हफ्तों में गाइडलाइन जारी करने को कहा।

सरकार कई संक्रमितों के मृत्यु प्रमाण पत्रों में मौत का कारण कोरोना नहीं लिखा होने की आड़ लेकर उन्हें मुआवजे से वंचित न कर सके, इसके लिए न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसी हर मौत का प्रमाणपत्र जारी करते वक्त सही तिथि व मृत्यु की वजह लिखी जाए और परिजन इससे संतुष्ट न हों तो मौत का कारण सही करने के लिए उन्हें आसान सुविधा उपलब्ध करायी जाये। यकीनन, इस फैसले से उन लाखों देशवासियों को राहत मिलेगी, जिन्होंने महामारी के दौरान अपने किसी न किसी परिजन को खोया है। उनमें से कई अपने-अपने परिवारों के एकमात्र कमाने वाले सदस्य थे और उनके चले जाने के बाद भावनात्मक रूप से आहत उनके परिवारों के समक्ष लाचारी का अंधेरा भी छाया हुआ है। ऐसे में उन्हें हर संभव राहत पहुंचाने की ईमानदार कोशिश वक्त की मांग है और मुआवजा इस मांग को पूरी करने का एक आसान और उपयोगी तरीका है।

लेकिन इस फैसले के संदर्भ में समझ में न आने वाली सबसे बड़ी बात यह है कि खुद को सबसे लोकप्रिय बताने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार न्यायालय की देहरी पर पीड़ितों को इसके भुगतान से बचने के लिए हर पल आनाकानी करती ही क्यों नजर आई, जबकि विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस समेत कई हलकों से अरसे से इसकी मांग उठायी जा रही थी? क्यों सरकार ने सारे ज्ञात तथ्यों से परे जाकर इस भुगतान को सर्वथा असंभव करार देने की कोशिश की और यह तक कहने से गुरेज नहीं किया कि इससे न सिर्फ उसका कोष खाली हो जायेगा, बल्कि दूसरी बीमारियों से मौतों के लिए मुआवजे की मांग भी उठने लगेगी, जिसे पूरा न करना भेदभावपूर्ण होगा?

अगर उसकी आनाकानी, जैसा कि कई जानकार कह रहे हैं, इस डर से थी कि मुआवजे के एलान के बाद सारे मृतकों के परिजन मुआवजे का दावा करने और प्रकारांतर से मौतों के वास्तविक आंकड़े को सामने लाकर उसके इस दावे को झुठलाने लगेंगे कि दुनिया भर में भारत में कोरोना से जानें जाने का अनुपात सबसे कम है तो अब तो उसे इसके पार जाकर सच का सामना करना ही पड़ेगा।

उसकी यह विडम्बना तो पहले से ही बेपरदा है कि मुआवजे के बोझ को वह जिन आर्थिक संकट से ग्रस्त राज्यों के लिए असहनीय बता रही थी, पिछले दिनों उनके कम से कम भाजपाशासित हिस्से के पास दुनिया के सबसे बड़े मुफ्त टीकाकरण अभियान के उपलक्ष्य में लहक-लहक कर ‘मोदी जी’ को धन्यवाद देने के विज्ञापनों के लिए धन की कोई कमी कतई आड़े नहीं आई।

मुआवजे का बोझ कितना बड़ा है, इसको एक और तरह से समझा जा सकता है। देश भर में अब तक ज्ञात चार लाख से कुछ कम कोरोना मौतों के लिए, चार लाख रुपए की दर से मुआवजे के लिए मोटे तौर पर 15,400 करोड़ रुपए की जरूरत होगी, जबकि केरल के एक पूर्व-वित्तमंत्री ने ट्वीट करके बताया है कि यह राशि इसी सरकार द्वारा कोरोना के ही दौरान, कारपोरेटों को दी गई रियायत-राशि के दसवें हिस्से भी कम है। महामारी के बीच ही नई संसद और प्रधानमंत्री के आवास आदि समेत सेंट्रल विस्टा के निर्माण पर प्रस्तावित 20 हजार करोड़ रुपए का खर्च टालकर भी इस मुआवजे की राशि से ज्यादा राशि मिल सकती है।

एक अनुमान के अनुसार कोरोना की दोनों लहरों को मिलाकर भी सरकार ने कोरोना और उसकी पाबंदियों के मारे लोगों को मदद मुहैया कराने पर, देश के सकल घरेलू उत्पाद का मुश्किल से 2 फीसद ही खर्च किया है, जबकि अमेरिका-इंग्लैंड जैसे धनी देशों ने भी, अपने जीडीपी का 10 से 20 फीसद तक खर्च किया है। मोदी सरकार द्वारा पहली लहर के दौरान, खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में आने वालों को प्रतिव्यक्ति पांच किलो खाद्यान्न के साथ, हर महीने एक किलो दाल भी दी जा रही थी, लेकिन दूसरी लहर में उसने एक किलो दाल से भी हाथ पीछे खींच लिए हैं।

अगर इसका अर्थ, जैसा कि कई जानकार कह रहे हैं, यह है कि आम देशवासियों को कोरोना या उसकी पाबन्दियों की मार से राहत दिलाना कभी इस सरकार की प्राथमिकताओं में रहा ही नहीं, तो कौन कह सकता है कि उसने उस लोक का साथ नहीं छोड़ दिया है, जिसकी प्रिय होने का वह दावा करती रहती है? याद कीजिए, चौतरफा दबाव से पहले वह हर देशवासी के मुफ्त टीकाकरण के लिए भी तैयार नहीं थी।

कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार और अयोध्या से छपने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।


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