26 जून को 1975 को घोषित आपातकाल की सैंतालिसवीं बरसी मनाते हुए उन स्याह और शर्मनाक दिनों पर हम झुब्ध और उत्तेजित हैं… वह निश्चित ही विभीषिका थी और काला अध्याय भी… पर उस दौर का उन्नीस महीने में पटाक्षेप हो गया लेकिन छियान्नबे महीनों से अघोषित आपातकाल दिन पर दिन क्रूर और कलुषित होता जा रहा है… हमारी संवैधानिक, जनतान्त्रिक और जनवादी हसरतों पर कुठाराघात करता और कालिख पोतता हुआ।
लोकतंत्र एक ऐसा शब्द है जिसका दुनिया भर में बेइंतहा दुरूपयोग हुआ…. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सरकार ने तो इन महीनों में उसे एक फ़ालतू और बेहूदे शब्द में पतित कर दिया है। यह खुली बात थी कि उन्हें लोकतंत्र और उसे पूरक बनाते , सम्पन्न करते दूसरे शब्दों से रत्ती भर भी मोहब्बत नहीं थी, बल्कि वे उनसे हिकारत ही पाले रहे … हाँ , लोकतंत्र आदि से उनका यह लेना ज़रूर रहा है कि उसकी आड़ में वे फलते फूलते , विषबेल फैलाते रहे, उसका इस्तेमाल करके देश की छाती पर चढ़ बैठे… और उससे उनका देना तो सब देख ही रहे हैं, भुगत ही रहे हैं। संघ और उसके संगी अपनी हद और हैसियत के हिसाब से राष्ट्रीय मानयताओं के लिए लिहाज़ रखे रहे जो बढ़ती ताक़त के साथ कम होते हुए आज बेशर्म नफ़रत में बेपर्दा हो चुका है… मौटे तौर पर यह ढँके- छिपे से ऐलानिया, मुखौटे से खुल्लमखुल्ला तक का सफ़र है… दिखावे से पाखंड तक का। उन्नीस महीने से छियान्नबे कई गुना ज़्यादा है, ठीक उसी तरह घोषित से अघोषित की परियोजना और उद्देश्य भी कहीं व्यापक हैं… यह बहुस्तरीय और बहुमारक है…. उसी अनुपात में विध्वंसक और विनाशक भी। इसकी चौपट चपेट की ज़द से कोई बाहर नहीं… नियम, क़ानून, परम्परा, विधान , प्रक्रिया, मूल्य, राजनीति, न्याय, मीडिया , बाज़ार, व्यवस्थाएं, विरासत, वसीयत,भाईचारा समरसता, विविधता, लोकलाज मर्यादा, शोभनीयता और सभी कुछ… अब संसद के हर सत्र से लोकतंत्र और लुटापिटा,अपंग- असहाय निकलता है। हर कश्मीर फ़ाइल्स, ईडी ,जेल, ज्ञानवापी, नुपुरोवाच, बुलडोजर, अग्निवीर, महाराष्ट्र, क्लीन चिट , बदला, तीस्ता सब धड़ल्ले से साथ- साथ या आगे- पीछे, नया -भारत निर्माण की गरज़ से ,चलता रहता है।
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कहने की बात तो ख़ैर खिलखिलाहट में उड़ा दी जायेगी पर यह जघन्य समय हमारे कथित महान लोकतंत्र के जीवन- मरण का समय है। शैशव काल से ही वात- पित्त- कफ से ग्रस्त यह लड़याया पर कम – कम अपनाया गया प्रजातंत्र जून 1975 में बुरी तरह दुत्कारा गया। व्यक्तिगत सत्ता को बचाने के लिए यह संविधानेत्तर षड़यंत्र, अत्याचार था। मूलाधिकार निरस्त हुए, मीडिया नथ लिया गया… संजय गाँधी सर्वसर्वोपरि थे और चाटुकार नत्थुओं की पौ बारह थी…. बनारस में सीपीआई के अधिवेशन से लौटते हुए कैफ़ी आज़मी इलाहाबाद रुके तो मशहूर प्रोफ़ेसर ज़ामिन अली के पुत्र, हमारे मित्र ख़ालिद ने उनके सम्मान में दावत की जिसमें सुनाई एक ग़ज़ल का शेर था, ‘ माँ की मनमानी तो बेटे की मनमानी कभी \ गर्दिश में देश का सितारा है ,कहो है कि नहीं’… जनता पर बहुत ज़्यादतियाँ हुईं जो सेंसरशिप के कारण बड़ी संख्या में रिपोर्ट ही नहीं हुईं थीं, पर इंदिरा गाँधी वाले आपातकाल को देखने की अनेक दृष्टियाँ हैँ। यह भी माना जाता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का ख़िलाफ़ फ़ैसला न आता तो वे क़ानूनी तानाशाही का क़दम न उठाती। उन्हें घेर लिया गया था और जेपी के लोग उनकी बलि से कम पर राज़ी नहीं थे। अदालती फ़ैसले ने उन्हें घनघोर असुरक्षा और अविश्वास में ला गिराया था और उनका बहुचर्चित साहस जवाब दे गया … नहीं तो वे शायद राजनीतिक लड़ाई लड़तीं … तमाम सरकारों की तरह उनकी सरकार भी आंदोलनों को कुचलने में अपना लोहा मनवा चुकी थीं। अन्य कारकों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती…इंदिरा गाँधी बार-बार आगाह कर रहीं थीं कि साम्प्रदायिक शक्तियां फिर सिर उठा रही हैं … ७४ के आंदोलन से संघ के मंसूबे साफ़ दिख रहे थे…. यह सत्ता के लिए उसका पहला सुनियोजित पैंतरा और संगठित हमला था। अर्थशास्त्री प्रोफेसर पृथ्वीनाथ धर ने इंदिरा गाँधी के साथ साढ़े छह साल काम किया, वे उनके सचिवालय के प्रमुख और उनके सलाहकार थे… श्रीमती गाँधी से परिचय से बहुत पहले से वे जयप्रकाश नारायण से परिचित थे। उनकी एक किताब है ‘ इंदिरा गाँधी, द इमरजेंसी ऐंड इंडियन डेमोक्रेसी,’ उनका कहना था कि आपातकाल भारत में राजनीति की विकास प्रक्रिया को ज़बर्दस्त धक्का था। संविधान सभा में डॉक्टर आम्बेडकर के भाषण ,’ अब जबकि हमारे पास संविधान है हमें अराजकता के व्याकरण को छोड़ देना चाहिए,’ को उद्धृत करते हुए प्रो. धर मानते हैं कि इमरजेंसी के लिए इंदिरा गाँधी और जयप्रकाश नारायण दोनों ज़िम्मेदार हैं। उनको लगता था कि जेपी- इंदिरा के बीच दूरी कम होगी और इसके लिए इमरजेंसी के पहले और बाद में उन्होंने कोशिश भी की पर उनका कहना था कि अहं बड़ी रुकावट रही… ‘जेपी श्रीमती गाँधी से वैसे सम्मान की उम्मीद करते थे जैसा नेहरू गाँधीजी को देते थे, जबकि इंदिराजी उन्हें ‘ अराजकता का सिद्धांतकार’ और उनकी राजनीति को ‘असम्भावित की कला मानती थीं। प्रो. धर मानते हैं कि यह कोई नयी सामाजिक- राजनीतिक व्यवस्था के लिए संघर्ष करने वाले क्राँतिकारी नेता और देश पर अपनी तानाशाही थोपने पर उतारू एक राजनीतिक के बीच प्रतियोगिता नहीं थी। जेपी की आत्मधन्यता और इंदिरा गाँधी की उन्मादित शैली के बीच देश की राजनीति का ध्रुवीकरण हो गया था… और दोनों ने ही प्रजातंत्र को पराजित किया, क़ानून के राज्य में आस्था की कमी को दर्शाया … और अंततः जेपी अप्रभावी क्राँतिकारी और इंदिरा अन्यमनस्क तानाशाह साबित हुईं।
छियान्नबे माह से हम सब हर क्षेत्र में देश के स्वनामधन्य कर्णधारों को सरकार के असंवैधानिक औऱ अनैतिक कामों में उत्साहित कारसेवकों की तरह शोक, शर्म , हैरानी और क्षोभ से देख रहे हैं…. वह 26 जून,1975 के सूर्योदय के कुछ पहले का समय था जब मंत्रिमंडल ने आपातकाल को मंज़ूरी दी… उस समय वहाँ तीन ही अधिकारी थे, केबिनेट सेक्रेट्री बीडी पांडे, पीएन धर और एच वाई शारदा प्रसाद। धर ने उन दोनों से उदास स्वर में कहा, ‘ क्या आप लोग भी ऐसा मानते हैं कि हम आज एक पाप में भागीदार बन गए।’ धर ने लिखा है कि उस समय योजना आयोग के उपाध्यक्ष पीएन हक्सर ने शारदा प्रसाद और उनसे कहा था, ‘ हमें सिस्टम में रहकर स्थिति को और बदहाली से बचाना होगा… इस्तीफ़ा देकर आप अपने अहम को ज़रूर तुष्ट करोगे पर सिस्टम के बाहर आपकी हैसियत कुछ भी करने की नहीं होगी।’ धर मानते थे कि इंदिरा गाँधी इमरजेंसी से असहज थीं और इससे छुटकारा चाहती थीं। इंदिरा गाँधी की करीबी पुपुल जयकर के अनुसार जे कृष्णमूर्ति की सलाह पर इमरजेंसी हटायी गयी। धर नहीं मानते कि खुफ़िया एजेंसियों द्वारा चुनाव में जीत की भरपूर उम्मीद बँधाने पर यह किया गया। धर ने लिखा कि वे देश की स्थिति के बारे में सब जानती थीं पर सामने स्वीकार नहीं करती थीं’ उन्होंने सोच समझकर आपातकाल हटाने का जोख़िम लिया। संजय गाँधी ने तो धर से आरोप के लहज़े में कहा था कि आप लोगों की सलाह पर यह फ़ैसला लिया गया। … इंदिराजी शायद चुनावी गंगा में उतरकर अपने पाप धोना चाहती थीं…. अब हम सब यह जानते हैं कि दंड भी मिला और पाप भी नहीं धुले, सैंतालिस साल बाद दाग़ कहाँ मिटे…. गुजरात के नरसंहार के धब्बे भी कहाँ मिटने वाले… ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जायेगा…. | सुप्रीम कोर्ट ने ज़रूर बता दिया है कि मोदीजी के हाथ साफ़ हैं… मुक्तबोध से पूछते तो वे कहते, ‘बाँह- छाती- मुँह छपाछप / ख़ूब करते साफ़/ फिर भी मैल / फिर भी मैल ‘
मुसीबत यह है कि अपना लोकतंत्र दरअसल नेता के आभामंडल से चमकता है और तब काँग्रेस हो या अब भाजपा उनके रहमोकरम पर साँसे लेता है। जनता की मनोभूमि से वह निर्मूल है। जनता की उससे बेगानगी पुरानी है और अब बेतहाशा है.. हाल के चुनावों से यही साबित हुआ कि जनता को लोकतंत्र, समानता , समरसता, धर्मनिरपेक्षता आदि से कोई सरोकार नहीं। इसलिए आर्त्त अपीलें हैं लोकतंत्र के लिए विपक्ष एक हो.. और जिन सारे दलों पर लोकतंत्र की हवा बाँधी जाती है वे सभी आंतरिक रूप से सिरे से अलोकतांत्रिक हैं। इसलिए ऐसा मानने वाले कम नहीं हैं कि इंदिरा की हार लोकतंत्र की जीत नहीं रणनीतियों की हार थी, कि हमारा लोकतंत्र स्वस्थ और सक्रिय नहीं है… इमरजेंसी लगी तो विरोध में सड़क पर कोई नहीं निकला , जेपी ने हैरत से कहा पता नहीं मेरे आकलन में कहाँ ग़लती हुई…. तीन महीने में पेरोल की बयार बह रही थी… सत्ता गंवाने के मात्र उन्नतीस महीने बाद वे फिर सत्ता पर सवार थीं और उनके न रहने पर उनकी सहानुभूति में काँग्रेस की आँधी चल गयी… 2019 में मोदी चुनाव में और मालामाल हो गये। लोकतांत्रिक संस्थाओं का जाल बिछा पर लोकतंत्र की भावना उसमें उलझकर रह गयी… जनता तक वह प्रवाहित ही नहीं हुई। अब जब भी देश इस अँधेरी सुरंग से बाहर निकले, जिसमें छियान्नबे महीनों से उसे डाल दिया गया है, तब लोकतंत्र के प्रति गम्भीर होना और जनता को जागरूक करने को सबसे बड़ा सबक मानना चाहिए.. तब तक हम सब उनके हवाले हैं जो कतई अन्यमनस्क नहीं बल्कि सौ टंच खरे तानाशाह हैं… ये नये युग के शत्रु हैं…. बस देखते रहिये : जल्लाद पहनाएँगे कफ़न, क़ातिल नौहागर होंगे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।