प्रधानमंत्री जी ने अपने हालिया उद्बोधन में आत्मनिर्भरता स्वदेशी और स्थानीयता पर बल दिया। इस सरकार में इन्हीं विषय को लेकर कई अंतर्विरोध है इस पर फिलहाल मैं कुछ नहीं कहूँगा मैं इन विषयों में खुद मैं क्या सोचता हूं इस पर केंद्रित रहूंगा।
पहले आत्मनिर्भरता को लेते हैं।आत्म निर्भरता के दो पहलू होते हैं। एक व्यक्तिगत आत्मनिर्भरता और दूसरी राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता। जहां तक व्यक्तिगत आत्मनिर्भरता है इस देश की जनता में पर्याप्त से ज्यादा है और आत्मसम्मान के साथ हैं। हमारे देश में आत्मनिर्भरता एक जीवन मूल्य की तरह अपनाई गयी है और इसे स्वाभिमान के साथ भी जोड़ा गया। संत कवि तुलसी दास जब कहते है पराधीन सपनेहु सुख नाहीं तो वे आत्म निर्भरता का ही गुणगान कर रहे होते हैं। आत्म निर्भरता केवल व्यक्ति केन्द्रित नहीं है बल्कि दूसरों को सहारा देने का, सहायता देने का जज़्बा भी है।इसी लिए एक संत कवि ने एक गृहस्थ की इच्छा इस प्रकार व्यक्त की है ,”साईं इतना दीजिये जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाए।” जो मजबूर श्रमिक आज लौट रहे हैं वे आत्म निर्भर होने के लिए अपने घर से सैकड़ों हजारों किमी दूर गये थे और अत्यंत कष्ट प्रद हालात में रह कर इतना कमा रहे थे की परिवार आत्म सम्मान के साथ जी सके।और उन्ही गरीब मजदूरों ने बिना किसी सरकारी या गैर सरकारी मदद के घर लौटने का इरादा कर लिया तो चल पड़े और शोचनीय अवस्था में यात्रा शुरू की। जब गोदी मीडिया भी इनकी विपदाएं दिखाने लग गया तब सरकारों ने शर्माते हुए कुछ कदम उठाये।
अब मैं बात करूंगा राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता की। राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता से तात्पर्य है कि हम अपनी राष्ट्रीय आवश्यकता अपने संसाधनों से पूरी कर लें और जो आवश्यक वस्तुएं हमारे पास नहीं है उन्हें हम आयात करें। लेकिन यह ध्यान रहे कि हम जिन वस्तुओं के लिए दूसरे देशों पर निर्भर करें उन्हें प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय आत्मसम्मान के साथ समझौता न करें। सरकारों को भी देखना चाहिए कि जिन देशों के साथ हमारे व्यापारिक संबंध हो वे बराबर की शर्तों पर हो। यह नहीं होना चाहिए कि कोई बड़ी शक्ति अपनी वस्तुएं हमारे देश में आसान शर्तों पर भेजें और हमारी वस्तुएं वहाँ जायें तो उन पर भारी टैक्स लगाएं। यदि सरकार इन गलत नीतियों का विरोध नहीं करती तो राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ समझौता है। उदाहरण नहीं दूंगा, आप अखबारों में जो विवरण आते हैं उसके आधार पर निष्कर्ष निकाल सकते हैं। और एक बात, किसी राष्ट्र को किसके साथ व्यापार करना चाहिए किसके साथ नहीं ये उस राष्ट्र के ऊपर निर्भर करना चाहिए ।कोई दूसरा दरोगा देश यह नहीं तय करेगा।आत्म निर्भरता का एक पहलू यह भी है कि जिन वस्तुओं के लिए हम दूसरे देशों पर निर्भर हैं और उनका आयात महंगा है तो हमें उनका उपयोग कम करना चाहिए और उनका विकल्प खोजना चाहिए। मेरा इशारा पेट्रोलियम की तरफ है इसका आयात बहुत महंगा पड़ता है। कोशिश होनी चाहिए कि हम इसका उपभोग कम करें । कैसे कम करें? इसके बहुत से तरीके हैं जो निश्चय ही कष्टकारी भी हो सकते हैं। यही है राष्ट्रीय त्याग और तपस्या। बिना नागरिकों के त्याग के राष्ट्रीय आत्म निर्भरता नहीं प्राप्त की जा सकती।
अब आते स्वदेशी और इस स्थानीयता पर। वास्तव में ये दोनों शब्द एक ही अवधारणा के दो आयाम हैं। स्वदेशी मात्र इतना नहीं है कि हम देशी कंपनियों के सेलफोन,कंप्यूटर और कार ना खरीदकर देशी कंपनियों की यही वस्तुए खरीदें या कोलगेट, हिंदुस्तान लीवर, प्रॉक्टर एंड गैंबल और आईटीसी के उत्पाद न खरीदकर पतंजलि, डाबर और हिमालय के उत्पाद खरीद कर यह समझे कि स्वदेशी के प्रति अपना दायित्व पूरा हो गया। यह स्वदेशी की अपूर्ण बल्कि भ्रांत धारणा है। स्वदेशी का यह मतलब है कि हम पतंजलि और डाबर की दवाएं खरीदने के बजाय खादी और ग्रामोद्योग आयोग की आयुर्वेदिक दवाएं जैसे चवनप्राश ,आंवला चूर्ण और अगरबत्ती आदि खरीदें और यदि संभव हो तो स्थानीय व्यापारी से ही खरीदें। रेडीमेड और ब्रांडेड कपड़े न खरीद कर स्थानीय स्तर पर कपड़े खरीद कर स्थानीय दर्जी से सिलवायें और गांधी जी का स्वदेशी दर्शन तो यहां तक कहता है कि किसी स्थान पर एक ही वस्तु के दो व्यापारी हों तो छोटे व्यापारी से सामान खरीदें
कोरोना ने यह बता दिया कि व्यक्ति को अपने घर के आस-पास ही काम चाहिए और यह भी बता दिया कि सैनिटाइजर और मास्क हमारी रोजमर्रा की वस्तुओं बनने जा रही हैं इनके उत्पादन में बड़ी कंपनियां कूदें इसके पहले सरकार को चाहिए कि इन्हें एमएसएमई (सूक्ष्म एवं लघु उद्योग) सेक्टर के लिए आरक्षित करके इनका स्थानीय स्तर पर उत्पादन सुनिश्चित करें। अपने दैनंदिन प्रयोग की कई वस्तुएं हमे एमएसएमई सेक्टर के लिए आरक्षित करनी ही होंगी। तभी हम स्वदेशी की बात कर पाएंगे और स्थानीय स्तर पर रोजगार सुनिश्चित कर पाएंगे। यहां यह कहना आवश्यक है कि क्षेत्रीय स्तर पर स्वावलंबन स्वदेशी का मुख्य विचार है।
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। इलाहाबाद में रहते हैं।