“ सफलता महत्वाकांक्षा को जन्म देती है, और हमारी हाल ही की उपलब्धियां और नए दुःसाहसिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अब मानवजाति को उकसा रही हैं। सम्पन्नता, स्वास्थ्य और समरसता के अभूतपूर्व स्तरों को प्राप्त करने के बाद तथा विगत के रिकॉर्ड व वर्तमान मूल्यों को देखते हुए अब मानवता अमरता , आनंद और दिव्यता को अर्जित करना चाहेगी …. अब हम वृद्धा अवस्था और यहाँ तक कि मृत्यु पर विजय प्राप्त करना चाहेंगे।”( युवाल नूह हरारी , होमो देउस – भावी कल का एक संक्षिप्त इतिहास , पृ ० 24 )
वास्तव में स्वयं में झाँकने का अलग ही आनंद होता है. यह बिल्कुल निर्मल होता है. इसकी प्राप्ति मुझे कोरोना कारावास में हुई . यूं तो कारावास में महान रचनाएँ लिखी जा चुकी हैं. कोई कालजयी रचना मैं लिख सकता हूँ, मुझमें इसकी सामर्थ्य नहीं है. लेकिन इस काल में बाहर-भीतर उठते सवालों से मैं टकरा सकता हूँ. लॉकडाउन के विभिन्न चरणों ने बेशुमार सवालों को जना है जिनका सरोकार निजीवृत्त से है तो लोकवृत से भी . सबसे बड़ा सवाल यह है कि ऐसे बहु-आयामी संकट के दौर में व्यक्ति, समाज और राज्य के सम्बन्ध कैसे होने चाहिए? इस दौर ने तीनों इकाइयों को स्वतंत्र और संयुक्त रूप से भी अपनी अपनी भूमिकाओं को मंचित करने के अवसर दिए हैं. तीनों को स्वयं की भूमिकाओं में झांकनें के अवसर मिले हैं. सारांश में, तीनों को ही अग्नि परीक्षा के चरण से भी गुजरना पड़ा है . इस प्रक्रिया में कौन कितना सफल या असफल रहा है, इसका फैसला इतिहास पर छोड़ देते हैं . लेकिन, एक वैयक्तिक इकाई के नाते अपनी भूमिका को तो तोल ही सकता हूँ . हालाँकि समाज और राज्य की भूमिकाओं से व्यक्ति की भूमिका कम-अधिक प्रभावित होती रहती है. एक प्रकार से तीनों परस्पर संबद्ध भी हैं, और स्वतंत्र भी. तीनों इकाइयों के संबंधों की सीमाओं, आकार और क्रियात्मक भूमिका का निर्धारण तत्कालीन परिस्थितियों, भौतिक शक्तियों और समाज व राज्य के नेतृत्व के चरित्र पर काफी कुछ निर्भर रहता है .
उदाहरण के लिए, प्रवासी श्रमिकों के प्रति राज्य नियंत्रित संस्थाओं के व्यवहार को जितना संवेदनशील होना चाहिए था, उतना नहीं रहा. उसके व्यवहार में एक यंत्रवत औपचारिकता अधिक दिखाई देती है. देश की आला अदालत में उसका एक कानूनी कारिंदा जब यह कहता है कि श्रमिक पक्षधर ‘ क़यामत के दूत’ और ‘गिद्ध’ हैं और हाई कोर्ट ‘समानांतर सरकारें ‘ चला रहे हैं तब राज्य की संवेदनशीलता स्वतः उजागर हो जाती है. जब राज्य केवल ‘अर्थोमुख’ व ‘अर्थोपार्जन’ की भूमिका के वशीभूत हो जाता है तब उसके लिए व्यक्ति व समाज ‘साधन’ का रूप ले लेते हैं. दोनों अर्थ सत्ता व राजसत्ता प्राप्ति के ‘कल-पुर्ज़ा’ बन जाते हैं . इस स्थिति में समाज का प्रभु वर्ग भी ‘व्यक्ति’ या ‘ ईकाई’ और ‘मूल उत्पादक वर्ग’ को ‘माध्यम’, ‘प्रोडक्ट’ और ‘उपभोग’ रूपांतरित करने लगता है . यही वजह है कि करोड़ों श्रमिकों के प्रति राज्य का नियंता वर्ग प्रायः निस्पृह बना रहा. यहाँ तक कि शुरू-शरू में प्रधानमंत्री ने प्रवासी श्रमिकों के अंतहीन कष्टों- यातनाओं को ‘तप’ और ‘त्याग’ की संज्ञा दे डाली थी. जब बहुत आलोचना हुई तब उन्होंने अपनी दृष्टि बदली और प्रवासी श्रमिकों के दुःख-दर्द को गंभीरता से लिया. जहाँ तक चेतना में ‘तप’, ‘त्याग’ जैसे शब्दों की उत्पति का प्रश्न है, इसका उत्तर यही है कि यदि राज्य जनोन्मुखी व संवेदनशील रहता तो नरेंद्र मोदी और सॉलिसिटर जनरल पटेल की प्रतिक्रिया दूसरी होती. क्या ये दोनों सज्जन कॉर्पोरेट वर्ग से भी ‘ तप’ और ‘ त्याग ‘ के लिए कहेंगे? कतई नहीं कहेंगे क्योंकि यही वर्ग राज्य के चरित्र का निर्धारक बन गया है. विडंबनाओं, विरोधाभासों और उत्तर सत्य राजनीति से भरे काल में मेरी सबसे बड़ी चिंता रही है मनुष्य और मनुष्यता को सुरक्षित रखना . राज्य को विपथगामी बनने से तभी बचाया जा सकता है, जब मनुष्य और मनुष्यता सुरक्षित व सम्पोषित रहे. इससे जुड़ा एक अनुभव है जिसे यहाँ साझा करना मौजूं रहेगा
किस्सा कुछ पुराना है. पर जिस विषय पर कुछ अपने विचार सामने रखूंगा उसके लिए तो किस्सा आज भी ताज़ा है। हुआ यह कि एक घोंसले ने मुझ समेत पूरे परिवार की नाक में दम कर रखा था। कबूतर -कबूतरी आते और तिनका-तिनका चुन घोंसला बनाते रहते। शुरू शुरू में यह सिलसिला मोहक लगा। घोंसले के बाशिंदों की गतिविधियां काफी आकर्षक लगतीं। बच्चे ध्यानपूर्वक देखते। गर्मियों में उनके लिए मिट्टी के चौड़े से पात्र में पानी भर कर रखा दिया करते थे। प्रजनन क्रिया भी उसी नीड़ में होती। शोर भी होने लगता। चूंकि मेरे अध्ययन रूम के कूलर के ऊपर उनका आशियाना था इसलिवा मैं धीरे-धीरे डिस्टर्ब होने लगा। उनकी फैलाई गई गंदगी को कब तक साफ़ करता। ‘ इस घोंसले को यहाँ से हटाना है’, मैंने फैसला कर लिया।
घोंसले को हटाने के कई जतन किए ; झाड़ू मार कर घोंसला उजाड़ दिया। देखता क्या हूँ , कुछ रोज़ शांत रहने के बाद तिनकों का घर फिर वहीं था। इस बार और भी बड़ा था। कबूतरों की इस हरकत पर तनिक क्रोधित भी हुआ। निर्बलों पर फिर अपनी अक्ल का बुलडोज़र चलाया। इस दफा बाहरी सहायक की मदद से कूलर के ऊपरी हिस्से को कपड़े और गत्ते से ढकवा दिया। मैं अब निश्चिन्त -सा महसूस करने लगा। कुछ दिन राहत में बीते होंगे , फिर वही तमाशा ! मेरी किलेबंदी को उजाड़ कर उनका आशियाना फिर ऊग आया। मै आपे से बाहर हो गया , ‘ इंसान से टक्कर ले , निरीह कबूतरों की यह मज़ाल !’ इस हरकत पर मैंने खुद को ही ललकार दिया। अभेद्य किलेबंदी के लिए आस-पड़ोस के साथ गंभीर मंत्रणा की। फिर सर्वसम्मत-उपाय सामने आया, ‘ जोशी जी ,तीनों तरफ कूलर के जाली की दीवार खड़ी कर दें। हवा भी आती रहेगी और कबूतर चोंच भी नहीं मार सकेंगे।’ यह आइडिया अच्छा लगा। काफी खर्चे से जालियों की हवादार दीवार चुनी गई। तब जाकर मैं बेफिक्र विचारों -शब्दों से खेलता आ रहा हूँ। लेकिन क्या मेरे निरीह शत्रु परास्त हो चुके हैं? जी नहीं, उन्होंने पड़ोसी के कूलर पर अपना आशियाना बना लिया है; उनका अस्तित्व, उनकी प्रजाति, उनकी भावी पीढ़ी सुरक्षित है। सबल को चिढ़ाते हुए शुरू की निर्बल पंछियों ने अपने अस्तित्व रक्षा -सुरक्षा की संघर्ष यात्रा, नए प्रस्थान बिंदु से।
यह जिजीविषा यात्रा प्रकटतः कबूतर प्रजाति की है , लेकिन यह हम मनुष्यों की भी हो सकती है। पंछियों की इस यात्रा में मुझे अपनी प्रजाति की यात्रा की परछाइयां दिखाई दीं। कन्दराओं से उठ कर चाँद पर आशियाना बनाने की महत्वाकांक्षा -यात्रा भी तो इसके ही सदृश्य है। सदृश्य इसलिए कि मानवजाति की विकास यात्रा की गाथा इसी प्रकार की रही है ; हज़ारों साल की इस यात्रा ने कितने ही झंझावतों का सामना किया है ; जलप्लावन-दावानल-भूधसान-ग्लेशियर परिवर्तन -ज्वालामुखी विस्फोट ने यात्रा-मार्ग रोका ; मानव बसाहटें उजड़ी ; सभ्यताओं का उत्थान -पतन हुआ। पर अपनी संघर्ष -सृजन -विकास यात्रा का मानव ने कभी पटाक्षेप नहीं होने दिया। इस यात्रा में विफलता-सफलता- उपलब्धि के नए नए आयाम जुड़ते गए, पुराने विलुप्त भी होते गए। मनुष्य और मनुष्यता से वसुंधरा सुसज्जित रहे, यह ध्रुव लक्ष्य यात्रा का मार्ग संचालक अवश्य रहा है।
प्रकृति मनुष्य की कालजयी व सार्विक सहयात्री भी रही है, पर अपनी अठखेलियों के साथ। प्रकृति के साथ ही मनुष्य का पहला संवाद होता है ; वायु ,अग्नि , जल ,आकाश -पाताल , खनिज सम्पदा , वन सम्पदा आदि पर आधिपत्य की चिर महत्वाकांक्षा. इस महत्वाकांक्षा की पूर्ति की प्रक्रिया में मनुष्य को प्रकृति के आक्रोश का सामना भी करना पड़ता है. इसीलिए दोनों के बीच जय-पराजय का अंतहीन खेल भी चलता आ रहा है. प्रकृति पर मानव की निर्णायक विजय की अंतहीन तृष्णा उसे चैन से बैठने नहीं देती है. इसी बेचैनी में त्रासदी -दर -त्रासदी घटती रहती है. यहाँ तक कि मनुष्य आत्महंता बन जाता है. मनुष्य की उपचेतना में बैठी प्रकृति पर निर्णायक आधिपत्य की महत्वाकांक्षा ‘मनुष्य पर मनुष्य की विजय’ की चेतना में रूपांतरित होने लगती है. परिणामस्वरूप, साम्राज़्यवाद -उपनिवेशवाद के अभियान चलने लगते हैं. इस प्रक्रिया में मनुष्य और उसके द्वारा निर्मित राज्य निर्मम से निर्ममतम बनने लगते हैं. राज्य द्वारा जनित संस्थाएं हिंसक बन जाती हैं. युद्ध होते हैं. विनाश लीला का तांडव होता है. इस परिदृश्य में मनुष्य और मनुष्यता का अस्तित्व व अस्मिता न्यून से न्यूनतर और न्यूनतम में सिकुड़ते चले जाते हैं , और इसके बरक्स मनुष्यतेर शक्तियां -संस्थाएं सर्वेसर्वा होने लगती हैं। प्रकृति पर आधिपत्य का भ्रम होने लग जाता है इन शक्तियों -संस्थाओं को। इतिहास में दर्ज़ बेशुमार युद्धों से इसका साक्ष्य मिल सकता है। इसका ज्वलत उदाहरण है मानवता की अपूर्णता का पूर्ण महाकाव्य – ‘ महाभारत ‘, जिसके सभी पात्र पूर्णता -अपूर्णता के मध्य त्रिशंकु स्थिति में दिखाई देते हैं; ममता -, निस्पृहता , घृणा ,- प्रेम , शांति ,-अहिंसा , करुणा – निर्ममता और मनुष्यता का उत्थान -पतन की पराकाष्ठा का अनुपम महाकाव्य। मनुष्य व मनुष्यता का संरक्षण , सम्पोषण और संवर्धन कैसे हो , यह प्रश्न आदि काल से वर्तमान काल तक हमारे लिए ‘ अश्वत्थामा ‘ बना हुआ है।
इसलिए भी कि दो -दो महायुद्ध ( 1915 व 1945 ), परमाणु बमों ( हीरोशिमा व नागासाकी ) की महाविभीषिका , 60 लाख यहूदियों का नरसंहार ( जर्मनी में हिटलर का फासीवाद ), मुसोलिनी ( इटली ), लाखों मत विरोधियों को यातना शिविर में यातनाएं ( स्टालिन द्वारा सोवियत संघ में अतिवादियों का दौर ), पोल पोट , ईदी दादा अमीन , सद्दाम हुसैन, ओसामा बिन लादेन जैसी घटनाओं व अधिनायकवादियों ने खूंख्वार आदिम प्रवृति का ही परिचय दिया है। बावजूद इसके मनुष्य और मनुष्यता जीवित रहे हैं। इस यात्रा के मार्ग संचालन में बुद्ध , ईसा , सुकरात , कबीर , नानक , बुल्लेशाह , गाँधी , मार्टिन लूथर किंग (जूनियर ) मंडेला जैसे मनुष्य मनुष्यता के सारथी बने रहे हैं। वास्तव में , हर युग में मनुष्य और मनुष्यता के लिए संकट पैदा होते रहे हैं। इस संकट के नानारूप हैं – साम्राज्यवादी अभियान , दास व्यापार , गुलाम प्रथा , नस्ल व रंग भेद , आतंकवाद , नव साम्राज्यवाद आदि घटनाएं।
मनुष्य और मनुष्यता के लिए संकट सिकुड़ा नहीं है , बल्कि इसका विस्तार ही हुआ है। मशीन द्वारा मनुष्य को उसके अस्तित्व से ही ‘ अपदस्थ’ करने की कुचेष्टाएँ चल रही हैं। ऑटोमेशन, रोबोट , आर्टिफीसियल इंटेलिजेन्स जैसी परिघटनाओं ने इसकी ज़मीन तैयार कर दी है। सुविधा ,अतिसुविधा , चरमतम रफ्तार , प्रौद्योगिकी विस्फोट आदि से मनुष्य ने भू फासले पर विजय पाई है, वहीँ मनुष्य – मनुष्य के बीच नैसर्गिक आत्मीयता उसकी पहुँच परिधि से बाहर होने लगी है। रोबोट , ऑन लाइन शॉपिंग , आभासी दर्शन, आभासी न्यूज़ रीडर -एंकर , आभासी प्रेम विवाह, ज़ूम कॉन्फ्रेंसिंग , ई गवर्नेंस आदि ने मनुष्य मनुष्य के बीच ‘ स्पर्श आनंद ‘ को ही आघात पहुँचाया है। मनुष्य की मानवीय संवेदना व क्रियाएं ‘ यांत्रिक’ बनने लगी हैं; डिजिटल उपकरणों में मानव इन्द्रियों की अभिव्यक्तियाँ परिवर्तित होती जा रही हैं। इस प्रक्रिया में ‘ वीर भोग्य वसुंधरा’ या ‘सर्वाइवल ऑफ़ दी फ़िटस्ट’ या सोशल डारवनिज्म की धमाकेदार वापसी होने का संकट पैदा हो गया है। परम्परागत राज्य के अंग और उपंग निस्तेज पड़ने लगे हैं; कॉर्पोरट स्टेट द्वारा इनके प्रतिस्थापन की आशंकाएं बढ़ती जारही हैं. इस नई व्यवस्था में मनुष्य केआधारभूत अस्तित्व और मनुष्यता की उपादेयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाना इसकी स्वाभाविक नियति होगी. ‘आदमी की मशीन’ और ‘ मशीन का आदमी’ की स्थिति ऐसे द्वंद्व- अंतर्विरोधों को जन्म देगी जिनका समाधान असम्भव नहीं तो ‘दुष्कर’ ज़रूर होगा. कल्पना करें, जब मनुष्य द्वारा निर्मित मशीन ( रोबोट) अपने ही निर्माता को उसके अस्तित्व से बर्खास्त कर देगी तब तो उसके ‘अवशेष’ ही शेष रह जाएंगे ना! क्या मानव मशीन के भीतर ‘ ‘चिप’ बन कर रह जाएगा? क्या डाटा व सूचना हमारे नए धर्म बन जाएंगे? क्या अब मानवजाति की अगली उड़ान ‘टेलीपोर्टेशन’ का लक्ष्य प्राप्ति रहेगी ? क्या रोबोट मशीन की नई सभ्यता, नैतिकता और मूल्य रहेंगे ? क्या तब भी मानवाधिकार, मौलिक अधिकार, लोकतंत्र, न्यायपालिका , विधायिका, कार्यपालिका आदि की ज़रूरत होगी?
मनुष्य की यात्रा का लम्बा इतिहास है, उसके पूर्वज हैं , उसके पास विराट विरासत है, लेकिन इस धरोहर से मनुष्य की मशीन जन्मजात वंचित है. प्रयास तो यह भी चल रहे हैं यह रोबोट स्वतंत्ररूप से समस्त मानवीय क्रियाएं भी करने लगे. यदि रोबोट देर -सबेर यह शक्ति अर्जित कर लेता है तब इस धरा पर मनुष्य और मनुष्यता की कोई आवश्यकता रह जायेगी. इसे क्या ‘ नव उत्तर आधुनिकता ‘ से परिभाषित किया जाएगा? जब मनुष्य और उसकी अभिव्यक्तियों की अनुगूँजें लुप्त रहेंगी तब इंसान का ‘रोबोट अवतार’ का लीला मंच कैसा व कहां होगा और उसके दर्शक कौन होंगे ? क्या मनुष्य को पुनः पाषाण युग , गुफा काल से अपनी यात्रा को आरम्भ करना होगा ? यदि मनुष्य पर मनुष्य जनित यंत्र का निर्णायक रूप से आधिपत्य स्थापित हो जाएगा तब क्या हम मनुष्य जनता से प्रजा या नागरिक से दास में तब्दील हो जाएंगे ? हमारे काव्य ,महाकाव्यों का क्या होगा? क्या मशीन में मानव सभ्यता के ‘नवरस’ संचारित होने लगेंगे? क्या वह ‘उत्तर कलियुग ‘ कहलायेगा?
21 वीं सदी के प्रथम चरण में इन सवालों से आज हमारा सामना है। शेष तीन चरण में इन आसन्न संकटों के साथ जीने के लिए मनुष्य अभिशप्त रहेगा। ऐसा मुझे प्रतीत होता है। इस दशा में मनुष्य और मनुष्यता कैसे सुरक्षित रहे, इस पर चिंतन -मनन की ज़रूरत है। अपन फिर से कबूतरों के अस्तित्व संघर्ष की और लौटते हैं। जब वे अपने नीड़ की लड़ाई लड़ने से पीछे नहीं हटे. पराजित कर दिया मनुष्य को। तब क्या सर्वगुण सम्पन्न , धरा के प्राणियों में सर्वशक्तिमान और त्रिलोक यात्री ( पाताल , भूमि और अंतरिक्ष ) मनुष्य को हार स्वीकार कर लेनी चाहिए अपनी ही निर्मिति से ?
तमाम प्राकृतिक क्रोधों , मानव जनित युद्धों, नरसंहारों, अकालों, महामारियों के बावजूद मनुष्य ने अपनी मनुष्यता की यात्रा को विलोममुखी नहीं बनने दिया , उसे निरंतर अग्रगामी रखा है , इसका साक्षी इतिहास है। तब क्या मानव को सभ्यता के इस पड़ाव पर उसे आत्मसमर्पण करना होगा अपनी ही रचित ‘यंत्रमाया’ के सम्मुख?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मी़डिया विजिल सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य हैं।