क्या ऑगस्टा यूडोकिया बेवफा थी! 

 

प्रकाश के रे 


 

एक सड़क पर सिर्फ़ माँस बिकता है
और दूसरी सड़क पर बस कपड़े और इत्र
कभी दिखते सिर्फ़ अंधे, अपाहिज, कोढ़ी, मंदबुद्धि 
और टेढ़े होंठवाले.

इधर वे घर बसाते हैं, तो उधर उजाड़ देते हैं
यहाँ वे धरती खोदते हैं और वहाँ आसमान
यहाँ बैठते हैं, तो वहाँ टहलते हैं
यहाँ नफ़रत भी है और प्यार करनेवाले भी हैं.

जो जेरूसलम को प्यार करता है
पर्यटन या प्रार्थना की किताबों से
वह उसके जैसा है जो स्त्री को प्रेम करता है
संभोग मुद्राओं की पुस्तिका देखकर

 – यहूदा अमिखाई



 

जेरूसलम की दास्तान के इस सिलसिले में हम बार-बार यह पाते हैं कि इस शहर का नसीब हमेशा से चंद लोगों द्वारा तय होता जाता है. इस कड़ी में यूडोकिया और बारसोमा के नाम भी अहम हैं. यूडोकिया तीर्थयात्रा के लिए 438 में जेरूसलम आयी थी. उसी दौर में यहूदियों से भयानक नफरत करनेवाला गुस्सैल ईसाई साधु बारसोमा भी अपने लड़ाकू चेलों की टुकड़ी के साथ शहर में दाखिल हुआ था. यूडोकिया रोमन सम्राट थियोडोसियस द्वितीय की बीवी थी और उसे ऑगस्टा की पदवी मिली हुई थी. उसका असली नाम एथेनाइस था और वह यूनानी मूल की थी. चूंकि उसका लालन-पालन बहुदेववादी माहौल में हुआ था, वह रोमन साम्राज्य की नीतियों से शोषित-पीड़ित बहुदेववादियों और यहूदियों के लिए बड़ी राहत थी. धर्मांतरित ईसाई होने के नाते उसमें कट्टरता नहीं थी. इसका कारण यह भी था कि उसके पिता ने उसे साहित्य और दर्शन की अच्छी शिक्षा उपलब्ध करायी थी और उसे अपने यूनानी मूल का अहसास हमेशा रहता था.

जेरूसलम आने से पहले की उसकी कथा भी बेहद दिलचस्प है. बारह बरस की आयु में ही अपनी माता को मौत के हाथों खो देनेवाली एथेनाइस ने अपने भाई-बहनों तथा दार्शनिक पिता की खूब देखभाल की थी. पर जब उसके पिता मरे, तो उनकी वसीयत में सारी जायदाद बेटों के नाम थी. एथेनाइस के हिस्से महज 100 सिक्के थे और साथ में पिता का यह बयान कि ‘उसके लिए उसकी किस्मत ही बहुत है जो कि किसी भी स्त्री से बेहतर साबित होगी’. बीस बरस की वह खूबसूरत युवती सौ सिक्के लिये वह कुस्तुंतुनिया आती है और सम्राट की बहन पुखेरिया को भा जाती है. हमउम्र थियोडोसियस भी रीझ जाता है. एथेनाइस यूडोकिया के नाम से महारानी बन जाती है. उसके भाई डर के मारे कहीं भाग जाते हैं, पर वह उन्हें वापस बुलाती है और उन्हें आदर देती है. पर, अभी तो उसकी किस्मत को कई रंग दिखाने थे.


खूबसूरत, जहीन और उदार ऑगस्टा जब साम्राज्य के पूर्वी हिस्से से होते हुए जेरूसलम पहुंचती है, तब तक उसकी ख्याति आसमान तक पहुंच चुकी थी. रहम की उम्मीद में यहूदी उसकी दुहाई देते हैं कि इस पवित्र शहर में आने-जाने में लगी बंदिशें कम की जायें. वह इस अनुरोध को मान लेती है. यहूदी अब प्रमुख धार्मिक अवसरों पर टेंपल माउंट पर प्रार्थना कर सकते थे. यह आदेश इस लिहाज से और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि उस दौर में यहूदियों पर रोमन ईसाई साम्राज्य का कहर बेइंतहा बढ़ चुका था. साल 425 में यूडोकिया के पति के आदेश पर यहूदियों के सबसे बड़े नेता गमालिएल षष्ठम को मौत की सजा दी जा चुकी थी और इस पद को हमेशा के लिए खत्म कर दिया गया था. उस पर आरोप था कि वह यहूदी प्रार्थनाघरों का निर्माण करा रहा था. उधर जेरूसलम और पैलेस्टीना में ईसाई इमारतों और धार्मिक स्थलों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही थी और हर बड़े यहूदी प्रतीक पर सलीब की मुहर लगती जा रही थी.

ऑगस्टा के आदेश से उत्साहित यहूदियों ने आनेवाले एक पर्व के अवसर पर दूर-दूर से अपने लोगों को जेरूसलम आने का आह्वान किया. पर यह सब सीरिया के रेगिस्तानों से आये कट्टर और हिंसक साधु बारसोमा को कतई मंजूर न था. बीते कुछ समय से ऐसे साधुओं की संख्या तेजी से बढ़ने लगी थी जो कठोर हठयोग और शारीरिक दिक्कतों के जरिये ईश्वर की आराधना करते थे. इन्हें जरोम जैसे संभ्रांत साधु पसंद नहीं करते थे. अद्भुत त्यागियों की ये जमातें उत्पाती भी बहुत थीं और जेरूसलम की तीर्थयात्रा का महत्व बढ़ने के साथ ही इनकी आमद शहर में होने लगी थी. शहर पर मानो इनका ही कब्जा होता जा रहा था. ऐसे माहौल में बारसोमा का असर बहुत था. जेरूसलम आने से पहले भी बारसोमा और उसके चेले यहूदियों की हत्या कर चुके थे और उनके धार्मिक स्थलों को तबाह कर चुके थे. स्वाभाविक ही था कि वे ऑगस्टा के आदेश से बेहद खफा थे.


जब टेंपल माउंट पर यहूदियों का बड़ा जुटान हुआ, तो बारसोमा की हथियारबंद टुकड़ी ने जोरदार हमला बोल दिया. इस हमले में बड़ी संख्या में यहूदी मारे गये और गंभीर रूप से घायल हुए, लेकिन उन्होंने भी डट कर मुकाबला किया और बारसोमा के 18 लड़ाकों के धर दबोचा. यहूदी इन हमलावर ईसाईयों को लेकर बेथेलहम में यूडोकिया के सामने पहुंचे और न्याय की गुहार लगायी. इस पूरे मामले की जानकारी पाकर इलाके के साधु जेरूसलम और बेथेलेहम पहुंचने लगे और गिरफ्तार लोगों की रिहाई के लिए दबाव डालने लगे. बारसोमा ने तो महारानी समेत रोमन अभिजात्यों को जिंदा जलाने का फरमान तक जारी कर दिया था. स्थानीय भीड़ भी उन्हीं उन्मादी साधुओं के साथ थी. बीचबचाव और दबाव का नतीजा यह हुआ कि गिरफ्तार साधुओं को रिहा कर दिया गया और टेंपल माउंट पर हुई मौतों का कारण प्राकृतिक बता दिया गया. ‘सलीब की जीत’ की घोषणा करते हुए बारसोमा विजेता की तरह जेरूसलम लौटा.

इस हिंसक अफरातफरी के बावजूद यूडोकिया ने जेरूसलम और आसपास के इलाकों में कई इमारतों के निर्माण की शुरूआत की तथा अपने व्यक्तित्व से लोगों को प्रभावित किया. साल 439 में वह खुदाई में मिलीं ढेर सारी पवित्र चीजों के साथ राजधानी कुस्तुंतुनिया लौट गयी. लेकिन, शाही परिवार के आपसी खींचतान के नतीजे में उसे फिर जेरूसलम लौटना था.

थियोडियस द्वितीय पर शुरू से ही उसकी बहन ऑगस्टा पुखेरिया का असर था और वही असल में साम्राज्य का संचालन करती थी. यूडोकिया की विद्वता और सौंदर्य के कारण उसे अपने भाई की पत्नी बनानेवाली पुखेरिया को उसकी लोकप्रियता से दिक्कत होने लगी थी. एक राय यह भी है कि वारिस न दे पाने की वजह से भी महारानी को नापसंद किया जा रहा हो या फिर कुछ दरबारियों से उसकी नजदीकी से पुलखेरिया से खतरा महसूस किया होगा. खैर, कथा यह है कि सम्राट थियोडियस ने यूडोकिया को एक खास किस्म का सेब दिया था. उस सेब को महारानी ने कार्यालयों के मुखिया और अपने मातहत पौलिनस को दे दिया. पौलिनस ने उस सेब को सम्राट को तोहफे में दे दिया. स्वाभाविक रूप से सम्राट को दुख हुआ और उसने इस बारे में यूडोकिया से पूछा. उसने साफ झूठ बोल दिया कि उसने सेब को खा लिया है. सम्राट के सेब सामने रख देने से ऑगस्टा का झूठ पकड़ा गया. अब सम्राट को अपनी बहन की शिकायत पर भरोसा हो गया कि यूडोकिया और पौलिनस के बीच अवैध संबंध हैं. अब कहानी के सच या झूठ होने का हिसाब क्या करना! परंतु, 440 में पौलिनस को मौत की सजा दे दी गयी और यूडोकिया को राजधानी से निष्कासित कर वापस जेरूसलम भेज दिया गया. सम्राट ने अपने प्यार और कुनबे की लाज रखते हुए यूडोकिया को पैलेस्टीना का शासक भी बना दिया.


लेकिन पुखेरिया को अभी भी इत्मीनान न था. उसने जेरूसलम की वापसी में यूडोकिया को तबाह करने की योजना बनायी और इस काम के लिए उसने शाही अंगरक्षकों के बड़े अधिकारी सैटर्नियस को भेजा कि वह महारानी के दो सहयोगियों को मार दे. पर, नियति को कुछ और ही मंजूर था. सैटर्नियस मारा गया और अब महारानी को अपने बूते ही आगे बढ़ना था. उसने जेरूसलम में अपना महल बनवाया और एक बार फिर धर्मिक इमारतों के निर्माण का काम शुरू किया. उसी दौर में एक बार फिर ईसाईयत के भीतर जीसस के मनुष्य और दैवीय होने के सवाल के साथ कुछ और धार्मिक विवाद उठ खड़े हुए थे. इस तनातनी में यूडोकिया ने पूर्वी ईसाईयों का पक्ष लिया था, पर बाद में वह बहुमत के साथ हो गयी थी. तब रोमन साम्राज्य के पश्चिमी हिस्से पर महान हूण योद्धा अटिला का खौफनाक साया मंडरा रहा था, पर उम्रदराज महारानी अपनी भाषा यूनानी में आराम से कविताएं लिख रही थी. जेरूसलम में ही 460 में यूडोकिया का देहांत हुआ और उसे ईसाईयत के पहले शहीद साइमन के कब्र के साथ दफन किया गया. ऑगस्टा यूडोकिया को ईसाई परंपराओं में संत यूडोकिया के नाम से भी जाना जाता है. ऑगस्टा पुखेरिया को भी संत कहा जाता है.

रोमन साम्राज्य की छत्रछाया में ईसाईयत का तेज विस्तार हर जगह हो रहा था, परंतु धर्म के भीतर परस्पर-विरोधी विचारों के प्रभाव में असंतोष भी बढ़ रहा था. साम्राज्य के भीतर और बाहर सक्रिय कई कारक न सिर्फ साम्राज्य के आस्तित्व के लिए खतरा बन रहे थे, बल्कि उनके असर से जेरूसलम भी अछूता नहीं रह सकता था.

 

 

 

पहली किस्‍त: टाइटस की घेराबंदी

दूसरी किस्‍त: पवित्र मंदिर में आग 

तीसरी क़िस्त: और इस तरह से जेरूसलम खत्‍म हुआ…

चौथी किस्‍त: जब देवता ने मंदिर बनने का इंतजार किया

पांचवीं किस्त: जेरूसलम ‘कोलोनिया इलिया कैपिटोलिना’ और जूडिया ‘पैलेस्टाइन’ बना

छठवीं किस्त: जब एक फैसले ने बदल दी इतिहास की धारा 

सातवीं किस्त: हेलेना को मिला ईसा का सलीब 

आठवीं किस्त: ईसाई वर्चस्व और यहूदी विद्रोह  

नौवीं किस्त: बनने लगा यहूदी मंदिर, ईश्वर की दुहाई देते ईसाई

दसवीं किस्त: जेरूसलम में इतिहास का लगातार दोहराव त्रासदी या प्रहसन नहीं है

ग्यारहवीं किस्तकर्मकाण्डों के आवरण में ईसाइयत

 


(जारी)                                                                                                                Cover Photo : Rabiul Islam


 

 

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