संजीव कुमार
एक ही साँस में हिटलर और स्टालिन दोनों का नाम लेना इन दिनों बहुत आम है। कई उदारपंथी बुद्धिजीवियों ने तो बीच में ठीक–ठाक कोशिश की कि नरेंद्र मोदी के प्रसंग में बार–बार याद किये जाने वाले हिटलर को स्टालिन से रिप्लेस कर दिया जाए। इसे देखते हुए आइज़क डॉटशर (Isaac Deutscher) की किताब ‘स्टालिन: अ पोलिटिकल बायोग्राफी’ का एक हिस्सा बहुत दिनों से अनुवाद करके साझा करना चाहता था। टलते–टलते आज संयोग बना है।
जो लोग आइज़क डॉटशर से परिचित न हों, उनके लिए इतना जानना काफ़ी होगा कि वे एक पोलिश मार्क्सवादी थे जो 1932 में वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी से निष्कासित हुए, 1939 में इंग्लॅण्ड चले गए और फिर आजीवन आत्मारोपित निर्वासन में ही रहे। वे ट्रोट्स्की के मुरीद थे और तीन खण्डों में उन्होंने ट्रोट्स्की की जो जीवनी लिखी है, वह आधुनिक क्लासिक मानी जाती है (The Prophet Armed, The Prophet Unarmed, The Prophet Outcast) । उससे पहले, 1949 में उन्होंने स्टालिन की जीवनी लिखी जो, ज़ाहिर है, काफ़ी आलोचनात्मक है। यह अंश उसी के आख़िरी अध्याय ‘Dialectics of Victory’ से है।
लिखे जाने का वर्ष 1949 है, यह याद रखना ज़रूरी है।
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स्टालिन के चरित्र और भूमिका की जटिलता तब सबसे अधिक सामने आती है जब हिटलर के साथ उसकी तुलना की जाती है। उनकी समानताएँ अनेक हैं, और बहुत स्पष्ट हैं। दोनों ने पूरी निर्ममता के साथ, बेझिझक अपने विरोधियों का दमन किया। दोनों ने एक सर्वसत्तावादी राज्य–तंत्र का निर्माण किया और अपनी जनता को इसके निरंतर दबाव में रखा। दोनों ने राष्ट्र के दिमाग़ को एक सिंगल पैटर्न पर ढालने की कोशिश की। दोनों ने कठोर फ्यूहररप्रिंज़िप के अनुरूप देश पर हुकूमत चलाते चुनौतीविहीन स्वानी के रूप में खुद को स्थापित किया।
यहाँ से उनकी समानताएँ ख़त्म होती हैं और अंतर शुरू होते हैं। हिटलर किसी भी क्षेत्र में जर्मन राष्ट्र को उस बिंदु से आगे नहीं ले जा सका जहाँ वह हिटलर के सत्ता में आने से पहले पहुँच चुका था। ज़्यादातर क्षेत्रों में वह बहुत–बहुत पीछे जा चुका है। 1933 में उसने जिस जर्मनी की सत्ता हासिल की, वह आर्थिक मंदी और सामाजिक तनावों–खिंचावों के बावजूद एक संपन्न और फलता–फूलता देश था। इसका उद्योग पूरे महाद्वीप में सबसे सक्षम था। इसकी सामाजिक सेवाएँ यूरोप के किसी भी अन्य देश की सामाजिक सेवाओं के मुक़ाबले ज़्यादा आधुनिक थीं। इसके विश्वविद्यालय शिक्षा के महान केंद्र थे जो विज्ञान के क्षेत्र में ख्याति अर्जित कर चुके अपने लोगों पर गर्व करते थे। जर्मन युवाओं का बेहतर हिस्सा संजीदा, सजग और आदर्शवादी था। जर्मन थिएटर ज़बरदस्त तरीक़े से प्रशंसनीय और अनुकरणीय था। सर्वोत्तम जर्मन अख़बार यूरोपीय प्रेस में सर्वाधिक विचक्षण और सूचना–संपन्न अख़बार थे।
हिटलर जिस जर्मनी को छोड़ गया, वह दरिद्र और वहशी था। हम यहाँ जंग में हुई हार के नतीजों की बात नहीं कर रहे, बल्कि हार–जीत से परे राष्ट्र की दशा की बात कर रहे हैं। विशेष युद्ध–सामग्री के प्लांट्स को छोड़ दें तो हिटलर के अधीन देश के पास उत्पादन का जो भौतिक तंत्र रहा, वह देश के पास पहले से मौजूद तंत्र से सारतः बेहतर नहीं था। इसकी सामाजिक सेवाएँ आधी नष्ट हो चुकी थीं। इसके विश्वविद्यालय भयावह रूप से नृशंस लोगों की एक पीढ़ी के लिए ड्रिलिंग ग्राउन्ड बन चुके थे। इसके प्रख्यात विज्ञानविद या तो देश छोड़कर भाग गए थे या फिर एस. एस. के लोगों के निर्देश को स्वीकार करने और नस्ली बकवास का घोंटा लगाने के लिए मजबूर कर दिए गए थे। इसकी चिकित्सा सेवा में लगे लोग रक्त की नस्ली शुद्धता के विशेषज्ञों में और अशुद्ध रक्त के समझे जाने वाले लोगों के हत्यारों में तब्दील हो चुके थे। … नाज़ी प्रेस, रेडियो, सिनेमा, और थिएटर की बारह सालों की ‘शिक्षा’ ने जर्मनी के सामूहिक मस्तिष्क को कुंठित और तबाह कर दिया था। इन भयावह नुकसानों की भरपाई करने वाली एक भी सकारात्मक उपलब्धि या नया विचार नहीं था, अगर आप इसे कोई नया विचार मानने पर बज़िद न हों कि एक राष्ट्र या एक नस्ल दूसरों पर प्रभुत्व जमाने या उनका सफ़ाया कर देने की हकदार है। न ही राष्ट्र की सामाजिक संरचना में ‘राष्ट्रीय समाजवाद’ ने सारतः कोई परिवर्तन लाया। जब इसका नाज़ी आवरण हटाया गया, तो जो संरचना दुनिया के सामने उद्घाटित हुई, वो वही थी जो हिटलर से पहले थी। वही बड़े उद्योगपति, वही क्रुप्पस और थिसेन्स, वही जंकर, वही मध्यवर्ग, वही खेत–मज़दूर, वही औद्योगिक मज़दूर। राजनीतिक रूप से तो नहीं, पर सामाजिक रूप से 1945 का जर्मनी अभी भी होहेनज़ोलर्स का जर्मनी था, बस त्रासद रूप से निरुद्देश्य दंगों के द्वारा वह भयावह बिखराव और भटकाव की ओर धकेल दिया गया था।
स्टालिन का रूस, सब कुछ के बावजूद, इससे कितना उलट है। जिस राष्ट्र की सत्ता स्टालिन ने संभाली उसे, शिक्षित जनों और उन्नत मजदूरों के एक छोटे समूह को छोड़कर, जंगलियों का राष्ट्र कहा जा सकता है। यह रूसी राष्ट्रीय चरित्र पर कोई टिप्पणी नहीं है—रूस के ‘पिछड़े, एशियायी’ हालात उसकी त्रासदी रहे हैं, उसका गुनाह नहीं। स्टालिन ने, एक प्रसिद्ध कहावत का सहारा लें तो, रूस से बर्बरता को खदेड़ने के लिए बर्बर तरीक़ों का सहारा लिया। उसके द्वारा अपनाए गए तरीक़ों की वजह से रूसी जीवन से खदेड़ दी गई अधिकांश बर्बरता आहिस्ते से वापस उसमें लौट आई है। इसके बावजूद, इस राष्ट्र ने अपने वजूद के ज़्यादातर हल्कों में ख़ासी उन्नति की है। इसका उत्पादन का भौतिक तंत्र, जो 1930 में भी किसी मध्यम आकार के यूरोपीय राष्ट्र के मुक़ाबले कमतर था, इतनी तेज़ी से और इतना अधिक फैला है कि रूस अब यूरोप में पहले नंबर की और पूरी दुनिया में दूसरे नंबर की औद्योगिक शक्ति है। एक दशक से थोड़े ही ज़्यादा समय में इसके शहरों और नगरों की संख्या दुगुनी हो गई है; और इसकी शहरी आबादी में तीस मिलियन (3 करोड़) की बढ़त हुई है। सभी दर्जों के विद्यालयों की संख्या कई गुना बढ़ चुकी है। पूरा राष्ट्र विद्यालय जा रहा है। इस राष्ट्र के मस्तिष्क को इतना जाग्रत किया जा चुका है कि उसे वापस सुलाना मुश्किल है। ज्ञान के लिए, विज्ञान और कला के लिए, इसकी पिपासा को स्टालिन की सरकार द्वारा उस हद तक बढ़ावा दिया गया है जहां उसे पूरी तरह तृप्त कर पाना मुश्किल है। स्टालिन ने भले ही रूस को पश्चिम के समकालीन प्रभावों से अछूता रखा हो, उसने उस चीज़ के प्रति, जिसे वह पश्चिम की ‘सांस्कृतिक धरोहर’ कहता है, हर दिलचस्पी को प्रोत्साहन और पोषण दिया है। संभवतः किसी और देश में युवा मस्तिष्क को अन्य राष्ट्रों के क्लासिक साहित्य और कला के प्रति इतने प्यार और सम्मान से अनुप्राणित नहीं किया गया होगा जितना रूस में। [फुटनोट: सोवियत शासन में, विश्वयुद्ध तक, विदेशी क्लासिक्स के कुल संस्करण इस प्रकार थे: बायरन की कृतियों की आधा मिलियन यानी 5 लाख प्रतियां, बालजाक की लगभग 20 लाख प्रतियां, डिकेंस 20 लाख, गोएथे 5 लाख, हाएने 10 लाख, विक्टर ह्यूगो 30 लाख, मोपासां 30 लाख से ज़्यादा, शेक्सपीयर 12 लाख, जोला 20 लाख, इत्यादि] नाज़ीवाद और स्टालिनवाद की शैक्षिक पद्धतियों में यह एक बहुत बड़ा अंतर है। दूसरा अंतर यह कि स्टालिन ने हिटलर की तरह अपनी युवा पीढ़ी को अपने साहित्य के उन क्लासिक्स को पढ़ने से रोका नहीं है जिनका विचारधारात्मक नज़रिया उसके अपने नज़रिये से मेल नहीं खाता। जीवित कवियों, उपन्यासकारों, इतिहासकारों, चित्रकारों और यहाँ तक कि संगीतकारों पर ज़ुल्म ढाते हुए भी उसने दिवंगतों के प्रति विचित्र श्रद्धाभाव प्रदर्शित किया है। पुश्किन, गोगोल, टोलस्तोय, चेखोव, बेलिन्सकी, और कई दूसरों की कृतियाँ, जिनका अतीत के ज़ोर–ज़ुल्मों पर किया गया व्यंग्य और आलोचना वर्तमान पर भी अक्सर लागू हो सकती है, उनकी लाखों प्रतियां युवाओं के हाथों में थमा दी गई हैं। किसी रूसी लेसिंग या हाएने को आग में भस्म नहीं किया गया है। इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं कर सकते कि स्टालिनवाद में निहित आदर्श, जिसे स्टालिन ने भयावह रूप से विकृत अभिव्यक्ति दी है, एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य पर, या एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र पर, या एक नस्ल का दूसरी नस्ल पर प्रभुत्व नहीं है, बल्कि उनकी बुनियादी बराबरी उसका आदर्श है। यहाँ तक कि सर्वहारा के अधिनायकत्व को भी वर्गहीन समाज तक महज संक्रमण के एक दौर के रूप में पेश किया गया है; और जो चीज़ इसकी प्रेरणा बनी रही है, वह एक मुक्त एवं समतामूलक समुदाय है, न कि अधिनायकत्व। इस तरह स्टालिनवाद के शैक्षिक प्रभाव में कई सकारात्मक, मूल्यवान तत्त्व रहे हैं, ऐसे तत्त्व जो लंबे समय में इसके दुर्गुणों के खिलाफ़ जाएंगे।
और अंत में, रूसी समाज की पूरी संरचना इतने गहरे और बहुपक्षीय बदलाव से गुज़री है कि इसे पलटना नामुमकिन है। यह कल्पना करना तो संभव है कि रूसी जनता खुद अपनी उस बंदी दशा के खिलाफ़ हिंसक प्रतिक्रिया कर बैठे जिसमें वह इतने समय से रह रही है। यहाँ तक कि राजनीतिक रेस्टोरेशन/पुनर्बहाली जैसी किसी चीज़ की भी कल्पना की जा सकती है। लेकिन यह निश्चित है कि इस तरह का रेस्टोरेशन रूसी समाज की सिर्फ़ सतह को छू पाएगा और क्रांति ने जो–जो काम कर दिखाए हैं, उनके मुक़ाबले वह रेस्टोरेशन अपनी निर्वीर्यता ही प्रदर्शित करेगा। स्टालीनिस्ट रूस के बारे में यह बात किसी भी और क्रांतिकारी देश की बनिस्पत अधिक सही है कि ‘बीस वर्षों ने बीस पीढ़ियों के काम को अंजाम दिया है’।
इन सब वजहों से स्टालिन को हिटलर के साथ, जिसका रिकार्ड परम नालायकी और व्यर्थता का है, एक पाँत में नहीं रखा जा सकता। हिटलर एक बंजर प्रति–क्रांति का नेता था; स्टालिन एक त्रासद, विरोधाभासपूर्ण, तथापि सर्जनात्मक क्रांति का नेता भी था और उसका शोषक लाभार्थी भी।
लेखक संजीव कुमार दिल्ली के देशबंध कॉलेज में प्रोफेसर हैं। उनके फेसबुक पेज से साभार।