पंकज मोहन
चीन की एक लोक कथा है। किसी गांव मे कुंआ नहीं था। लोग एक कोस की दूरी पर स्थित नदी से पानी लाते थे। एक बार जब अच्छी फसल हुई और उस गांवके जमींदार के हाथ मे कुछ पैसे आये, उसने कुआं खुदवाया। जब कुंआ बनकर तैयार हुआ, उसने कहा, यह कुआ मेरी दासी ही है, रोज कई घड़े पानी देने वाली दासी। धीरे धीरे एक अफवाह फैल गया कि जमींदार जब कुंआ खुदवा रहा था, जमीन के अंदर से एक दासी निकली और शीघ्र दूर-दराज के लोग भी “दासी” को देखने उसके घर आने लगे।
यदुनाथ सिन्हा ने अपने गुरु राधाकृष्णन पर आरोप लगाया कि उनकी पुस्तक “History of Indian Philosophy” के एक अध्याय मे मूल संस्कृत टेक्स्ट के 100 अंग्रेजी अनुवाद उनकी पुस्तक या शोध आलेख मे दिये गए अनुवाद से मिलते जुलते हैं। इस घटना के चौरानवे साल बाद 2023 मे शिक्षक दिवस के अवसर पर किसी ने लिखा ” उन्होंने एक विद्यार्थी की पी. एच. डी. की थीसिस में से पन्ने के पन्ने चुरा लिए, चैप्टर के चैप्टर चुरा लिए। जिस किताब से डाक्टर राधाकृष्णन जगत-विख्यात हुए, वह पूरी की पूरी चोरी है।” किसी और ने लिखा, “राधाकृष्णन ने अपने होनहार शिष्य जदुनाथ सिन्हा की पीएचडी थीसिस चोरी कर उसे किताब के रूप में अपने नाम से छपवा लिया, वो भी ऑक्सफोर्ड प्रेस से।”
“इंडियन फिलासफी’ नाम की किताब से वे प्रख्यात हुए, वह एक विद्यार्थी की एक थीसिस थी- एक गरीब विद्यार्थी की। उसकी थीसिस को तो दबा रखा उन्होंने और जल्दी से अपनी किताब पहले छपवाली, ताकि अदालत में यह कहने को हो जाए- कभी अगर मामला बिगड़े भी- कि मेरी किताब पहले छपी। मुकदमा चला और मामला पकड़ में आ गया। एकाध वाक्य मिल जाए तो समझ में आता है, चैप्टर के चैप्टर,वही के वही। जल्दी में करना पड़ा उनको, तो उसमें कुछ थोड़े बहुत मेल मिलान भी कर देते, थोड़ी मिलावट भी कर देते, जैसा इस मुल्क में चलता है, इधर उधर कुछ मिला-जुला कर एक सा कर देते तो शायद पकड़ में इतने जल्दी भी न आते।
और मजा तुम देखते हो, उन विद्यार्थी को इन्होंने फेल किया। फेल किया इसलिए कि उसको फिर से थीसिस लिखनी पड़ेगी, उसमें और दो साल लगेंगे। तब तक उनकी किताब जगत-विख्यात हो जाएगी, तब तक मामला बिलकुल गड़बड़ हो जाएगा। लेकिन वह विद्यार्थी भी, था तो गरीब, लेकिन उसने जब इनकी किताब देखी तो दंग रह गया, भरोसा ही न आया। हाईकोट में मुकदमा गया। उस विद्यार्थी को दस हजार रुपये देकर किसी तरह–गरीब विद्यार्थी था–किसी तरह राजी किया और अदालत से मुकदमा वापिस लौटाया।”
राधाकृष्णन पर लगे झूठे आरोपों मे नमक-मिर्च लगाकर उसे सनसनीखेज बनाने वाले लोगों मे एक समानता है। उन्होंने न तो Modern Review मे प्रकाशित आरोप-प्रत्यारोप को पढा है, न ही राधाकृष्णन की पुस्तक पढी है, न तो यदुनाथ सरकार के शोध आलेख देखे हैं, न वे संस्कृत जानते हैं और न ही अंग्रेजी। वे ‘राग दरबारी’ मे वर्णित छंगामल इंटर कालेज टाइप बुद्धिजीवी है जिनकी प्रतिभा प्रिसिंपल के दफ्तर के बाहर लटकते हुये ” बिना परमिशन अंदर मत आना” साइनबोर्ड मे प्रयुक्त “म” को “मू” मे परिवर्तित करते हुए प्रस्फुटित हुई है।
राधाकृष्णन की योग्यता को परखना ऐसे लोगों के वश की बात नहीं है। जब राधाकृष्णन ने एमए की थीसिस जमा की, परीक्षक ने लिखा, “यह थीसिस इस बात का प्रमाण है कि छात्र मुख्य-मुख्य दार्शनिक समस्यायों को भलीभाँति समझता है और कठिन और पेचीदा तर्क को वह बहुत अच्छी तरह से प्रस्तुत करने की योग्यता और क्षमता रखता है। इसके प्रतिरिक्त अंग्रेजी भाषा पर छात्र का अधिकार अच्छा है, औसत छात्रों से ऊंचा।”
1908 मे बीस साल की अवस्था मे ही उनकी नियुक्ति प्रेसीडेसी कालेज, मद्रास में तर्कशास्त्र के असिस्टेट प्रोफेसर के रूप मे हो गई थी। 1918 से 1922 तक वे मैसूर विश्वविद्यालय मे प्रोफेसर रहे और 1921 मे सर आशुतोष मुखर्जी ने उन्हें सम्मान के साथ कलकत्ता विश्वविद्यालय मे दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर के पद पर बैठाया। यह पद प्रोफेसर डा० ब्रजेन्द्रनाथ सील के मैसूर विश्वविद्यालय के वाइस चासलर पद पर नियुक्त होने के कारण रिक्त हुआ था। कलकत्ता आने के पूर्व 1919 मे कलकत्ता विश्वविद्यालय की शोध पत्रिका Calcutta Review मे मैसूर विश्वविद्यालय प्रेस से प्रकाशित उनकी एक पुस्तक का रिव्यू छपा था। बुक रिव्यू किया था उस पत्रिका के सम्पादक और Scottish Church College के प्राचार्य (जो बाद मे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने) William Spence Urquhart ने। उन्होंने लिखा कि “राधाकृष्णन की पुस्तक जैसी कुछ और पुस्तके अगर मैसूर विश्वविद्यालय प्रकाशित करे, तो शिक्षा जगत मे उसकी ख्याति का सूर्य चमक जाये। राधाकृष्णन की भाषा मे सौन्दर्य है, रवानगी है, अद्भुत ताकत है।”
कलकत्ता आने के बाद 1927 और 1928 मे राधाकृष्णन “पोस्टग्रेजुएट इन आर्टस” के अध्यक्ष चुने गये। विश्वविद्यालय ने उन्हें इन्टरनेशनल फिलॉसफी काग्रेस मे पेपर पढने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी भेजा। वे राष्ट्रसंघ की बौद्धिक सहकार समिति के सदस्य बने जिसके लिए उन्हें जेनेवा जाना पड़ता था। प्रसाद ने “नारी तुम केवल श्रद्धा हो कहा है”, मैं कहता हूँ, भारतीय ‘अकादमिक जगत के नर-नारी, तुम ज्वलनशील अंतर हो, ईर्ष्या की सुलगती अंगीठी हो’। अकादमिक जगत में जो विद्वान जितनी प्रसिद्धि पाता है, जितना ऊंचा उठता है, उसी अनुपात में उससे जलने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ती है। जैसा कि एस. गोपाल ने राधाकृष्णन की जीवनी में लिखा है, जब राधाकृष्णन की विद्वता की धाक जमने लगी, भारतीय दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक एस एन दासगुप्ता और बंगाल के कुछ अन्य बुद्धिजीवियों ने देखा कि चालीस साल का एक दक्षिण भारतीय युवक कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रशासनिक शिखर, कुलपति पद की ओर तेजी से चढ रहा है। उनसे यह देखा नहीं गया और उन्होंने लंगी लगाकर राधाकृष्णन को नीचे गिराने या उनकी उन्नति की गति को रोकने की कोशिश की। उन्हें माडर्न रिव्यू के संपादक रामानंद चट्टोपाध्याय का वरदहस्त प्राप्त हुआ। इन सबों ने युवा लेक्चरर यदुनाथ सिन्हा जो तांत्रिक भी थे, को उकसाया। वे शतरंज का मोहरा बनने को तैयार हो गये। इस तरह राधाकृष्णन के खिलाफ षड्यंत्र रचा गया।
गोपीनाथ कविराज के संपादन मे निकलने वाली पत्रिका PRINCESS OF WALES SARASVATI BHAVANA STUDIES के 1930 के अंक मे तारक नाथ सान्याल नामक व्यक्ति ने राधाकृष्णन की पुस्तक ” The History of Indian Philosophy” की समीक्षा करते हुये लिखा कि इस पुस्तक मे सेकेंड-हैंड नही, थर्ड-हैंड ज्ञान परोसा गया है जो सतही और उथला है। योगी-महात्मा ही हमारे पूर्वज ॠषि-मुनियो के दार्शनिक विचार का सम्यक विश्लेषण करने मे सक्षम हैं, राधाकृष्णन तो कदापि नहीं।
” It only skims the surface of the deep underlying meaning of the Risis. It is, in short, exoteric, meant only for the lay public, who want a bird’s-eye view of Hindu philosophy. What the initiate requires is an esoteric interpretation which probes the very heart of that philosophy and lays bare its inner working. Such an interpretation it is impossible to expect from one who is not a Yogi, because such a one cannot reach the original source of all meaning, that is, Brahma. A Rişi alone can interpret Risi’s language.”
स्पष्ट है , बंगाल के भारतीय दर्शन के अनेक विद्वानों को राधाकृष्णन से बहुत चिढ थी, लेकिन संपादकाचार्य रामानंद चट्टोपाध्याय राधाकृष्णन से क्यों खफा थे? वस्तुतः यह प्रोफेसनल इर्ष्या का मामला था। राधाकृष्णन ने अक्तूबर 1928 मे भारत की सर्वश्रेष्ठ अंग्रेजी मासिक माने जाने वाली उनकी पत्रिका को मात देने वाली नई पत्रिका New Era का प्रकाशन आरंभ किया। इस पत्रिका के पहले अंक मे निम्नांकित लेख संकलित थे।
Hindu view of Life By B. K. Mallik. B. Litt. (Oxon)
किसी पत्रिका के प्रथम अंक मे ही सरोजिनी नायडू की कविता, जवाहरलाल नेहरू , हरिसिंह गौर, इंगलैंड के भूतपूर्व Lord Chancellor और दार्शनिक Viscount Haldane आदि विश्वविख्यात व्यक्तियों के लेखों को प्रकाशित कर पाना संपादक के रूप मे राधाकृष्णन की बहुत बडी उपलब्धि थी। साथ ही 1920 के दशक मे राधाकृष्णन दार्शनिक के रूप मे सारे भारत मे इतना प्रसिद्ध हो गये थे कि हिन्दी के उपन्यास मे उनका उल्लेख होने लगा। 1925 मे प्रकाशित “नया कदम” (लेखक विजय वर्मा) का मुख्य पात्र जितेन्द्र जिसे दार्शनिक विषयो मे गहरी रुचि है, जिद्दू कृष्णमूर्ति, राधाकृष्णन और भगवान दास की पुस्तकें बहुत चाव से पढता है। 1930 मे प्रकाशित Francis Younghusband की पुस्तक “Dawn in India” में गांधीजी और राधाकृष्णन पर दो अलग-अलग अध्याय हैं जिनमे उनके जीवन और कर्म की विवेचना प्रस्तुत की गई है।
CHAPTER XVII RADHAKRISHNAN Lectures on Indian philosophy in Europe—Hindu idea of God—Caste—Marriage—Karma—Attitude of Hinduism to other religions – – – – – – – 282-300
इंगलैंड और अमेरिका के दिग्गज विद्वान अचंभित थे कि भारतीय विश्वविद्यालय मे ही शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद राधाकृष्णन को अंग्रेजी मे कैसे महारत हासिल हुआ, लेकिन रामानंद चट्टोपाध्याय ने माडर्न रिव्यू के माध्यम से अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को लेकर उन्हें कठघरे मे खडा किया। फिर 1929 में उन्होने भारतीय दर्शन के बंगाली विद्वान यदुनाथ सिन्हा द्वारा राधाकृष्णन पर लगाये गये plagiarism के आरोप को भी प्रमुखता से छापा। जैसा कि मैने ऊपर इगित किया है, कलकत्ता का बौद्धिक जगत एक गैर-बंगाली की प्रतिभा और प्रतिष्ठा से आतंकित था। कलकत्ता से प्रकाशित Modern Review जो उस समय बंगाली भद्रलोक के स्वाभिमान का प्रतीक था, ने इस विवाद को तूल दिया। राधाकृष्णन ने दावा किया कि सिन्हा ने अपना आलेख 1925 मे पूरा किया , जबकि उन्होंने अपनी पुस्तक 1924 मे ही प्रकाशक को भेज दी थी। उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय दर्शन से सम्बन्धित टेक्स्ट के अंग्रेजी अनुवाद मे कुछ समानता का होना स्वाभाविक है, क्योंकि दार्शनिक अवधारणाओं के लिये सर्वमान्य शब्द या अभिव्यक्तियाँ होते हैं और अनुवाद उन मानक शब्दावली, technical terms, की सीमा से बाहर नहीं जा सकता। उन्होंने सिन्हा और Modern Review के प्रकाशक पर एक लाख रुपये की मानहानि का केस किया। इलाहाबाद के पंडित गंगानाथ झा, मद्रास प्रेसिडेंसी कालेज के महामहोपाध्याय प्रोफेसर कुप्पुस्वामी शास्त्री, कलकत्ता के विद्वान नलिनी गांगुली, इंगलैंड के डाक्टर मूयरहेड ने लिखित ऐफिडेविट द्वारा राधाकृष्णन का समर्थन किया और कहा कि जो बात राधाकृष्णन ने अपनी किताब मे लिखी है, जो अनुवाद उनकी पुस्तक मे प्रकाशित है उसे वे अपने व्याख्यानों मे 1922 से ही कहते आये हैं। उनके व्याख्यान के नोट्स उनके अनेक पुराने छात्रों के पास उपलब्ध हैं, इसलिए सिन्हा की किताब से अनुवाद की चोरी का आरोप पूर्णतः निराधार है। कोर्ट मे राधाकृष्णन का केस लडने देश के बडे बडे वकील खडे थे और उनकी जीत पक्की थी, लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अनुरोध पर उन्होंने अपने शिष्य को माफ कर दिया। जब राधाकृष्णन ने कलकत्ता विश्वविद्यालय की नौकरी पर लात मारकर आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति पद को स्वीकार किया, बंगाली बुद्धिजीवियों का कलेजा ठंडा हुआ। Modern Review ने सारे आरोप वापस ले लिये। यदुनाथ सिन्हा मेरठ कालेज मे बने रहे, राधाकृष्णन आक्सफर्ड के प्रोफेसर बने, आंध्र विश्वविद्यालय के कार्यकाल की समाप्ति के बाद बीएचयू के कुलपति बने। वे निरन्तर सफलता की नई चोटियों पर चढते रहे, आगे बढते रहे।
राधाकृष्णन पर थोपे गये बेबुनियाद (छात्र के कुछ अनुवाद को चुराने के) इल्ज़ाम पर यकीन करने वाले वज्र मूर्ख को कौन समझाये कि औपनिवेशिक काल मे आक्सफर्ड विश्वविद्यालय की चयन समिति किसी भारतीय विद्वान को प्रोफेसर पद पर नियुक्त करने के पहले अपने आपको शत प्रतिशत आश्वस्त कर लेती थी कि गुलाम देश का काला आदमी अंग्रेजी मे अपने विचारों को सहजता के साथ व्यक्त करता है, और विद्वता या अकादमिक नैतिकता के मापदंड पर वह अंग्रेजो के मुकाबले बीस है, उन्नीस नही?
अंत में दो शब्द यदुनाथ सिन्हा के बारे मे
कोर्ट मे मामला जाने के बाद विद्वानों ने कहा, महामहोपाध्याय पंडित गंगानाथ झा और यदुनाथ सिन्हा के अनुवाद मे भी कुछ समानता है क्योंकि संस्कृत के philosophical terms के मानक अनुवाद होते हैं, अर्थात संस्कृत मे लिखे दर्शनशास्त्र के ग्रंथो को अंग्रेजी मे अनूदित करते समय प्रस्तुत विद्वानों के सामने मानक शब्दावली की सीमा से बंधे होने की विवशता होती है।
बाद मे यदुनाथ सिन्हा ने अपनी डायरी मे लिखा कि उनके गुरु वामक्षेप/वामदेव जो श्मशान मे शक्ति की साधना करते थे और जिनकी मृत्यु 1911 मे हुई उनके शरीर मे प्रवेश कर उनका मार्गदर्शन करते थै और 1930 के दशक के आरंभ मे जब उनकी पत्नी मर गयी थी और लोग उन्हें चिता पर चढाने वाले थे, वामदेव ने उन्हें जिला दिया। उन्होंने यह भी लिखा कि चैतन्य की प्रतिमा को देखते समय उनकी दोनो आंखों से ज्योति निकली और उनकी आंखों मे प्रवेश कर गयी, जिसके कारण वे चैतन्य के भाव और विचार को समझ पाये।
इत्यलम राधाकृष्णन ईर्ष्या कथा।
पंकज मोहन की फेसबुक वॉल से सभार। पंकज मोहन जी अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कोरिया सहित भारत के नालंदा विश्वविद्यालय में भी शिक्षक रह चुके हैं।