परिदृश्य : 01
अमेरिका के 16 वें राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन (1809 -1865 ) के पिता जूते बनाते थे.वे जब राष्ट्रपति चुन लिये गये तो अमेरिका के अभिजात्यवर्ग को जबरदस्त ठेस लगी। वो अमेरिकी संसद के निम्न सदन, सीनेट में अपना पहला भाषण देने खड़े हुए. एक सीनेटर ने ऊँची आवाज़ में कहा, “मिस्टर लिंकन याद रखो. तुम्हारे पिता मेरे और मेरे परिवार के जूते बनाया करते थे. सीनेट में भद्दी-अश्लील अट्टहास गूँज उठी.
लिंकन बोले, ‘ मुझे मालूम है कि मेरे पिता जूते बनाते थे. उन्होने आपके ही नहीं कई महामहिम के जूते बनाये होंगे. वो मनोयोग से जूते बनाते थे.
उनके बनाये जूतों में उनकी आत्मा बसती है. अपने काम के प्रति पूर्णसमर्पण के कारण उनके बनाये जूतों में कभी कोई शिकायत नहीं आयी. क्या आपको उनके काम से कोई शिकायत है? उनका पुत्र होने के नाते मैं स्वयं भी जूते बना लेता हूँ. यदि आपको कोई शिकायत है. तो मैं उनके बनाये जूतों की मरम्मत कर देता हूँ. मुझे अपने पिता और उनके काम पर गर्व है.
सीनेट में उनके इस तर्कवादी भाषण से सन्नाटा छा गया. इस भाषण को अमेरिकी संसद के इतिहास में सबसे असरकारी भाषण माना गया है. उसी भाषण से डिग्निटी ओफ लेबर (श्रम की गरिमा) का सिद्धांत विकसित हुआ. कामगारो ने अपने पेशे को अपना सरनेम बना दिया. मसलन- कोब्लर, शूमेंकर, बुचर, टेलर, स्मिथ, कारपेंटर, पॉटर ….
परिदृश्य – 02
अमेरिका में एक अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लयोड़ की 25 मई 2020 को अमेरिकी पुलिस द्वारा की गई निर्मम हत्या के विरोध में इस देश के मूल निवासी
विरोध प्रदर्शन के लिये अपने पूर्व के आंदोलन ‘ब्लैक लाइफ मैटर्स‘ से प्रेरित हो कर बडी संख्या में सड़कों पर उतरे. उसकी दुनिया भर में खूब चर्चा हुई. इसकी चर्चा कम ही की गई कि अश्वेत आंदोलनकरियो ने इस बार जब वॉशिंगटन में प्रदर्शन किये तो उसी दौरान कुछ शरारती तत्वों ने सेंट पॉल
में क्रिस्टोफर कोलम्बस की 10 फीट ऊंची कांसा की मूर्ति को उखाड़ कर नष्ट कर दी. उन्होने ऐसा क्यो किया? ये जानने के लिये इतिहास में झंकना
पडेगा.
क्रिस्टोफर कोलंबस
क्रिस्टोफर कोलंबस (1451–1506) भारत से मसालो के युरोप में आयात के मुनाफेदार व्यापार में इजाफा के लिये वहां के शासको के वित्तीय मदद से
अट्लांटिक महासागर से सुगम समुद्री रास्ता ढूंढ्ने के लिये नौवहन अभियान पर निकले थे. लेकिन उन्होने भारत के भ्रम में अमेरिका को खोज निकाला !
इसलिए वहां के मूल निवासियों को इंडियन ही कहा जाने लगा.अमेरिकी मूल निवासी, अपनी गुलामी और यूरोपियन समुदाय द्वारा बरसो किये उनके अमानुषिक अत्याचार, लाखो की संख्या में की गई उनकी सामूहिक हत्या आदि के लिए कोलंबस को जिम्मेदार मानते है.
डोनाल्ड ट्रंप
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका के मूल समुदाय के भारी विरोध प्रदर्शन से निपटने के लिये देश की राजधानी में अर्ध-सैनिकों को
बडी संख्या में तैनात करने का हुकुम दिया. फिर ये कहा कि इस कदम ने अमेरिका के प्रांतो को अश्वेत समुदाय के राष्ट्रव्यापी प्रदर्शनों को
कुचलने के लिए ‘अनुकरणीय उदाहरण’ पेश किया है। ट्रंप ने फॉक्स न्यूज से कहा, ‘आपको वर्चस्व कायम करने वाला सुरक्षा बल रखना होगा. हमें कानून व्यवस्था कायम रखने की जरूरत है. जहां समस्याएं हुईं वहां पर रिपब्लिकन पार्टी सत्ता में नहीं है. वहां उदारवादी डेमोक्रेट शासन में हैं। हमारे
रक्षा विभाग ने जरूरत पड़ने पर सैनिकों को तैनात करने के लिए आपात कालीन योजनाएं तैयार की हैं.
समाचार एजेंसी एपी के अनुसार अमेरिकी रक्षा विभाग के मुख्यालय,पेंटागन के दस्तावेजों से एक खबर निकली। खबर थी कि वाशिंगटन में हालात बिगड़नेपर अगर नैशनल गार्ड सुरक्षा बदोबस्त करने में विफल रहे तो आर्मी की एक डिविजन से सैनिकों को व्हाइट हाउस और फेडरल व्यवस्था के अन्य शासकीय भवनो की सुरक्षा में लगाए जाने की योजना है।
हॉवर्ड फास्ट
विश्वविख्यात यहूदी-अमेरिकी उपन्यासकार, हॉवर्ड फास्ट (1914-2003) के कालजयी स्पार्टकस आदि उपन्यासों की खूब चर्चा होती है। लेकिन 1946 में प्रकाशित उनके एक अन्य उपन्यास ‘द अमेरिकन्स: अ मिडल वेस्टर्न लेजेंड’ की कम ही चर्चा की जाती है. प्रकाशन के तुरंत बाद इस पर अमेरिका में प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। इस कारण उसे बहुत कम लोग पढ़ सके। उनकी उपन्यास कृतियों का भारत के महान उपन्यासकार प्रेमचंद के सुपुत्र अमृत राय ने ‘आदिविद्रोही‘ और ‘समरगाथा’ नाम से उत्तम हिंदी अनुवाद किये। लेकिन वह भी शायद द अमेरिकन्स नहीं पढ़ सके। पढ़ा होता तो इसका भी अनुवाद जरूर करते।
कबाड से जुगाड़
कुछ बरस पहले भारत मैं ‘द अमेरिकन्स‘ के हिंदी अनुवाद की आवश्यकता बढ़ी। हमने पूर्व पत्रकार-मित्र, सत्यम वर्मा के कहने पर इसे हासिल करने बचपन के अपने डॉक्टर-मित्र प्रणव मिश्रा से जुगाड़ करने का अनुरोध किया जो अमेरिका जा बसे हैं. साहित्य अनुरागी डॉ मिश्रा ने अमेरिका में किसी कबाड़ी टाइप की एक दूकान से इस उपन्यास की वहाँ उपलब्ध एकमात्र प्रति खरीद ली. वह इसे हमारे लिये भारत ले आये। दुर्भाग्य से हमारी मुलाकात नहीं हो सकी. उनके द्वारा भारत लाये उस उपन्यास की वह प्रति दिल्ली में किसी मित्र के मित्र के मित्र के मित्र के हाथोगुजरते–गुजरते गुम हो गई .
लाल बहादुर वर्मा
वर्ष 2003 में हॉवर्ड फास्ट के निधन के उपरांत जब किसी भौगोलिक सीमा में साहित्य पर लगे प्रतिबंध को इंटरनेट ने लगभग अर्थहीन बना दिया तो भारत में भी उसका हिंदी अनुवाद हुआ. ये अनुवाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के चर्चित इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा ने किया.इसे हरियाणा साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया .
अयातुल्ला खुमैनी
गूगल पर उपलब्ध ब्योरे के मुताबिक ईरान के दिवंगत पूर्व प्रेसिडेंट एवं धर्मगुरु अयातुल्ला खुमैनी ने 1999 में एक स्कूली पत्रिका के सम्पादकों के
साथ बातचीत में कहा था, “ ये उपन्यास पढ कर किसी को पता चल जायेगा कि अमेरिकी चुनाव की वास्तविकता क्या है. चुनाव में जिनकी कोई भूमिका नहीं है वे अवाम हैं. वो अवाम, जो वोट डालती है. जो मतपेटी में वोट डालने आते हैं, उनकी चुनाव में बिल्कुल कोई भूमिका नहीं है.
उपन्यास विवरण
हमें इस उपन्यास को पढ्ने का सौभाग्य अभी तक नहीं मिला है.लेकिन गूगल पर इस के जो विवरण उपलब्ध हैं उनसे पता चलता है कि ये उन लोगो के बारे में है जो रोजगार की तलाश में पूर्वी यूरोप के अपने देश को छोड़ बडी मुश्किल से अट्लांटिक महासागर पार कर अमेरिका पहुंच गये. उपन्यास मे वर्णित है कि ये लोग अपने जीवन में किन कठिन हालात का सामना करते हैं.उन्हे अपनी आयु बढ़ने, स्कूली शिक्षा पूरी करने,विधि स्कूल में पढ्ने जाने, न्यायिक व्यवस्था मे अपने प्रशिक्षण के दौरान , वकील बन जाने और फिर चुनाव अभियान में शामिल होने पर क्या- क्या अनुभव होते हैं.
हॉवर्ड फास्ट ने खुद इस उपन्यास की भूमिका में लिखा है कि ये सत्यकथा है. उन्होंने इतना ही कहा कि ये अमेरिका के किसी प्रांत के मशहूर गवर्नर के
जीवन पर आधारित है. बाद में पता चला कि ये उपन्यास उन्ही अब्राहम लिंकन के मानस उत्तराधिकारी जॉन पीटर के जीवन की सत्यकथा से प्रेरित है जिनके अमेरिकी संसद मे दिये भाषण से हमने चुनाव चर्चा के आज के अंक का आगाज़ किया। जॉन पीटर, इलिनॉय प्रांत के गवर्नर रहे थे।
चुनाव चर्चा की पिछले कुछ अंकों से जारी इस विशेष लेखमाला के तहत हम रूस तानाशाह व्लादिमीर पुतिन की चुनावी तिकड़म को ‘नापने ‘ के बाद अमेरिका के ‘सोशियोपैथ ‘ माने जा रहे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की लगातार दूसरे अंक में ‘ खबर ‘ दी और ली भी है. अमेरिका के चुनाव की चर्चा अगले अंक में जारी रखने की पूरी मंशा रहेगी .
वरिष्ठ पत्रकार चंद्र प्रकाश झा का मंगलवारी साप्ताहिक स्तम्भ ‘चुनाव चर्चा’ लगभग साल भर पहले, लोकसभा चुनाव के बाद स्थगित हो गया था। कुछ हफ़्ते पहले यह फिर शुरू हो गया। मीडिया हल्कों में सी.पी. के नाम से मशहूर चंद्र प्रकाश झा 40 बरस से पत्रकारिता में हैं और 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण के साथ-साथ महत्वपूर्ण तस्वीरें भी जनता के सामने लाने का अनुभव रखते हैं। सी.पी. आजकल बिहार में अपने गांव में हैं और बिहार में बढ़ती चुनावी आहट और राजनीतिक सरगर्मियों को हम तक पहुँचाने के लिए उनसे बेहतर कौन हो सकता था। वैसे उनकी नज़र हर तरफ़ है। बीच-बीच में ग्लोब के चक्कर लगाते रहते हैं। रूस घुमा लाये हैं और पिछले अंक से नज़र अमेरिका को नाप रहे हैं- संपादक