आज पहले पन्ने की दो खासियतें हैं। एक तो यह कि भाजपा के स्थापना दिवस की खबर सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर छपी है। दूसरा बंगाल चुनाव का खेल अब शुरू होगा। फिर भी, बंगाल चुनाव की खबरें सिर्फ टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर हैं, हिन्दुस्तान टाइम्स में थीड़ी सी है। टेलीग्राफ में तो है ही। अंदर के पन्नों पर भी होंगी लेकिन मैं सिर्फ पहले पन्ने की खबरें बताता हूं। मेरा अनुमान है कि तीन चरणों में बाकी राज्यों के चुनाव खत्म होने के बाद बंगाल में पांच चरण के चुनाव बचे हैं तथा वहां चुनाव अब और घटिया होगा। उदाहरण आज के शीर्षकों से मिल जाएगा। कुछ शीर्षक देखिए
1. मोदी दीदी से : अल्पसंख्यकों से वोट की आपकी अपील बताती है कि आप हार चुकी हैं। उपशीर्षक है : मुस्लिम वोट आपसे दूर जा रहे हैं। (दो तीन दिन पहले आपने कान में फुसफुसाते वोटर को देखा ही था)।
2. चुनाव आयोग ने 26, 29 अप्रैल के चुनाव से पहले कोलकाता की आठ विधानसभा सीटों के लिए रिटर्निंग ऑफिसर बदले। (प्रदेश में अभी पांच चरणों के चुनाव होने हैं अन्य तीन चरणों के मतदान 10, 17 और 22 अप्रैल को हैं)।
3. बंगाल की हिंसा में पांच उम्मीदवारों पर हमला। (तीनों खबरें टाइम्स ऑफ इंडिया की)
4. तीन ईवीएम और चार वीवीपैट यूनिट बूथ स्तर के एक तृणमूल कार्यकर्ता के घर में मिले। चुनाव आयोग ने पांच अधिकारियों को निलंबित किया है। (हिन्दुस्तान टाइम्स)
5. नकद कूपन भाजपा पर भारी पड़ा (गंभीर खबर है पर किसी और अखबार में पहले पन्ने पर नहीं है।)
6. नई प्रवृत्ति का भार उम्मीदवार उठा रहे हैं। यह उम्मीदवारों पर हमले से संबंधित है। अखबार ने ऐसे उम्मीदवारों की संख्या छह बताई है। इनमें चार तृणमूल कांग्रेस के हैं। (दोनों खबरें द टेलीग्राफ की)
नकद कूपन से संबंधित खबर के अनुसार भाजपा ने दावा किया है कि ये चंदे की रसीद है और 1000 रुपए के “दान” के बदले जारी किए गए हैं। अखबार ने लिखा है कि गांव के लोग अगर भाजपा को 1000 रुपए “दान” कर सकते हैं तो पश्चिम बंगाल को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने या तो पहले ही सोनार बांग्ला बना दिया है या फिर चुनाव प्रचारक नरेन्द्र मोदी की जादू की छड़ी ने पिछले कुछ हफ्तों में ऐसा किया है। कूपन पर प्रधानमंत्री की तस्वीर भी है। अखबार ने लिखा है कि तृणमूल कांग्रेस और माकपा आरोप है कि कूपन बांट कर समर्थन खरीदा गया है। यह भी आरोप है कि एक अप्रैल को प्रधानमंत्री की रैली में भाग लेने और भाजपा को वोट देने के लिए ये कूपन बांटे गए हैं। सच जो हो, खबर नहीं है यह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
इंडियन एक्सप्रेस की कल की खबर के बाद आज उसकी दूसरी किस्त आई है। अब उसकी चर्चा। लेकिन उससे पहले यह सवाल कि क्या इंडियन एक्सप्रेस की खबर पर कहीं कोई प्रतिक्रिया दिखी? रिटायर आईएएस अफसर सूर्य प्रताप सिंह ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखी है और बताया है जनहित के मुद्दों पर लगातार लिखने के कारण उन्हें भी उत्तर प्रदेश सरकार का विशेष प्रेम मिला है। कहने की जरूरत नहीं है कि एक पत्र लिखने भर से राष्ट्रपति उत्तर प्रदेश सरकार को बर्खास्त नहीं कर देंगे। पर कल की खबर के आलोक में एक नागरिक के रूप में हमारी भी कुछ जिम्मेदारी है। हम अपने साथ हुई घटना को भी उजागर न करें, सब कुछ सहते रहें, अपने अधिकार की मांग नहीं करें तो सरकार के साथ-साथ पुलिस की मनमानी कैसे खत्म होगी। पर ऐसी मांग करने, अपना हित सोचने की बजाय कल ट्वीटर पर बहुत सारे लोग श्री सिंह के पत्र लिखने पर ही सवाल उठाते रहे। पत्र में तारीख गलत लिखी है, इस पर भी। रिटायर आईएएस क्या होता है, फ्यूज बल्ब होता है। लेकिन इसी फ्यूज बल्ब को या फिर बल्ब बनने की सोच भी नहीं सकता उसे केंद्रीय मंत्री बना दिया जाता है तो आप नहीं बोलते हैं।
अब मैं मुख्य खबर पर आता हूं। इसके अनुसार आवश्यक प्रक्रिया का पालन नहीं किए जाने और एफआईआर भी भारी अंतर होने के कारण हाईकोर्ट ने 20 के 20 आदेश रद्द कर दिए। सुप्रीम कोर्ट का उल्लेख करते हुए हाईकोर्ट ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि एनएसए के लिए सरकार का निराधार दावा पर्याप्त नहीं है। दावा यह होता है कि आरोपी को जमानत मिल गई तो वह अपराध दोहराएगा। यानी जो अपराध उसने किया ही नहीं है उसे फिर करने की आशंका भी पुलिस या सरकार जताती है आपको किसी और मामले में परेशान करने के लिए। या अपना पीछा छुड़ाने के लिए। ये वही सरकार है जो मंदिर बनाने के लिए चुनी गई है और अच्छा काम करने के लिए देश और प्रदेश की जनता ने राज्य में डबल इंजन की सरकार बनाई है। पुलिस की मनमानी के ऐसे ढेरों मामले होते रहते हैं पर पीड़ित को मुआवजा या मनमानी करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की स्थिति बहुत ही लचर है।
मशहूर इसरो जासूसी कांड पूरी तरह फर्जी था। अभियुक्त ठहराए गए पूर्व वैज्ञानिक, नंबी नारायणन को केरल सरकार से 26 साल बाद क्षतिपूर्ति तो मिली लेकिन अभियुक्तों को सजा नहीं हुई क्योंकि मामला बहुत पुराना हो गया था। लगभग ऐसा ही पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के मामले में हुआ। अदालत ने माना कि उन्हें फंसाया गया हो सकता है पर जांच की जरूरत नहीं समझी गई। मेरा मानना है कि किसी को फर्जी फंसाया जाए तो ना सिर्फ उसे मुआवजा (या ईनाम!) मिलना चाहिए बल्कि फंसाने वाले को सख्त सजा दी जानी चाहिए। लेकिन अक्सर फंसाने वाले सरकारी (या शक्तिशाली) लोग होते हैं इसलिए वे बच जाते हैं। मुझे लगता है कि आम जनता के लिए मंदिर से ज्यादा जरूरी ऐसे मामलों से बचाव है।
शक्तिशाली या प्रभावशाली द्वारा किसी को परेशान किए जाने की बात हो तो कमजोर का साथ दिया जाना चाहिए। बहुमत वाली सरकार के मुकाबले गठजोड़ वाली सरकारें कमजोर होती हैं। महाराष्ट्र सरकार का मामला ऐसा ही है। कल महाराष्ट्र के गृहमंत्री के इस्तीफे की खबर ऐसे छपी जैसे उनपर लगे आरोप साबित हो गए या उन्होंने स्वीकार कर लिए। आज खबर है कि गृहमंत्री ही नहीं महाराष्ट्र सरकार ने भी इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग याचिकाएं लगाई हैं। पहली नजर में यह कानून के उपयोग या दुरुपयोग का मामला लग सकता है। लेकिन आरोप साबित नहीं हुए हैं इसलिए यह खबर नैतिक आधार पर इस्तीफा देने की कल की खबर से ज्यादा महत्वपूर्ण है। खासकर तब जब बड़े-बड़े दावे करने वाली केंद्र सरकार ने पहले ही कह रहा है कि भाजपा में इस्तीफे नहीं होते।
अनिल देशमुख की खबर कहां कैसे छपी है बताने की बजाय यह बताना ज्यादा जरूरी है कि महाराष्ट्र सरकार की नजर में गृहमंत्री के खिलाफ आरोपों की जांच सीबीआई से करवाने का बांबे हाईकोर्ट का आदेश देश की संघीय संरचना के खिलाफ है। आप इससे सहमत हों या नहीं, मामला सुप्रीम कोर्ट में है तो फैसला वहीं होगा। लेकिन नैतिक आधार पर एक मंत्री के इस्तीफे के बाद राज्य सरकार का सुप्रीम कोर्ट में यह कहना कि हाईकोर्ट का फैसला शासन की संघीय सरचना के खिलाफ है, मायने रखता है। गृहमंत्री के रूप में अनिल देशमुख (और पुलिस प्रमुख परमबीर सिंह के भी) के काम सर्वविदित हैं और केंद्र सरकार के नाराज होने या महाराष्ट्र सरकार को कमजोर करने की जरूरतों के पक्ष में भी कई कारण हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में शायद शासन में सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता की भी व्याख्या हो – इसलिए इसका महत्व आप समझ सकते हैं। इसलिए, यह खबर देशमुख की खबर के साथ टाइम्स ऑफ इंडिया में ही अलग से हाईलाइट की हुई है। अपना अखबार देखिए और समझिए कि उसे खबरों की कितनी समझ है।
हिन्दुस्तान टाइम्स में कल खबर थी कि दिल्ली के मुख्यमंत्री ने 25 साल से ऊपर के सभी लोगों को कोरोना से बचाव का टीका लगाने की मांग की है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के हवाले से कल ही सोशल मीडिया पर खबर थी कि टीके की कोई कमी नहीं है। अभी तक की खबरों और प्राथमिकताओं से लग भी रहा है कि सरकार चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा लोग टीका लगवाएं। फिर यह आयु वर्ग का मामला बहुतों को समझ में नहीं आ रहा है। आज छपी खबर से लग रहा है कि टीका लगाने की सुविधा कम होने के कारण यह वर्गीकरण किया गया है पर इसे बताया नहीं गया है या खबर कम से कम मुझे तो नहीं दिखी। दिल्ली के मुख्यमंत्री को भी पता होता तो वह क्यों मांग करते। द हिन्दू की खबर के अनुसार स्वास्थ्य सचिव ने कहा है कि अचानक पूरी प्रक्रिया को बढ़ाया नहीं जा सकता है। यहां इस खबर का शीर्षक है, सभी वयस्कों के टीकाकरण की कोई योजना अभी नहीं : स्वाथ्य मंत्रालय। हिन्दुस्तान टाइम्स में इस खबर का शीर्षक है “टीका उन्हीं के लिए है जिन्हें इसकी ‘जरूरत’ है, उनके लिए नहीं जो ‘चाहते’ हैं : सरकार।” कहने की जरूरत नहीं है कि इस शीर्षक से उस टीके की जरूरत का प्रचार हो रहा है जो शत प्रतिशत प्रभावी नहीं है, जिसका कोई खास लाभ नहीं है (मास्क लगाना है सोशल डिसटेंसिंग का पालन करना है), जोखिम है और नुकसान भी हो सकता है। पूरी तरह निशुल्क सरकारी व्यवस्था में नहीं लग रहा है फिर भी पैसे देकर जो चाहता है वह नहीं लगवा सकता है। पर देखिए कि शीर्षक कितने गोल-मोल हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।