गुरदीप सिंह सप्पल
1936 में हिटलर की मौजूदगी में जर्मनी को हरा कर जीता अोलिम्पिक गोल्ड मेडल आधुनिक भारत की किंवदंतियों में शामिल है। ध्यानचंद के तीन गोल और 8-1 की जीत के क़िस्से किस हॉकी प्रेमी को नहीं पता। लेकिन बॉलीवुड इस पर फ़िल्म बनाता है और ध्यानचंद को ही ग़ायब कर देता है। काल्पनिक पात्र सम्राट उनकी जगह ले लेता है।
अक्षय कुमार की ‘गोल्ड’ फ़िल्म भारतीय हॉकी के सुनहरे इतिहास से पैसा तो कमाना चाहती है, लेकिन उस सुनहरे काल के सभी हीरो की याद मिटा देती है।
क्या कारण है कि 1948 में गोल्ड मेडल जीतने वाली टीम पर ये फ़िल्म आधारित है लेकिन सुपरस्टार खिलाड़ी बलबीर सिंह और बाबू के डी सिंह ग़ायब हैं!
यही नहीं, इंग्लैंड के ख़िलाफ़ फ़ाइनल का स्कोर 4-0 की जगह 4-3 कर दिया, ताकि फ़र्ज़ी उत्तेजना पैदा की जा सके। हॉकी फ़ेडरेशन के अध्यक्ष नवल टाटा को वाडिया बना दिया, मैनेजर पंकज गुप्ता को बंगाली तपन दास बना दिया!!
भारत की महान हस्तियों की याद को यूँ मिटा देने की इस कोशिश को क्या कहा जाए, इस बारे में क्या किया जाए?
लेखक राज्यसभा टीवी के पूर्व सीईओ हैं। उनकी फ़ेसबुक दीवार से साभार।