मोदी जी का राष्ट्र संबोधन उर्फ़ चुनावी नगाड़ा!

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रामशरण जोशी

                              

 

लालकिले की प्राचीर से  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भाषण सुना.कुछ- कम मिनट डेढ़ घंटे का रहा. राष्ट्र के नाम पांचवां संबोधन था.बेशक़ साहेब की  देह भाषा पर आत्मविश्वास की परत चढ़ी रही. लेकिन, वे रह रह कर पसीने की बूंदों को पोंछते रहे,पानी पीते रहे और उनका रंग-बिरंगा साफा माथे से धीरे धीरे पीछे सरकता  रहा.ललाट पर बूंदे छलकती रहीं। एक बारगी लगा,साफा कहीं पीछे न गिर जाए ! लेकिन, मोदीजी की चपलता ने उसे फिर से सेट कर दिया.मगर,इससे उनके आत्मविश्वास की परत ज़रूर  तिड़कती हुई प्रतीत हुई.मैंने उनके सभी संबोधनों को सुना है.यकीनन पिछले संबोधन आत्मविश्वास से लबालब थे. शब्दों का दोहराव कम रहता था. वाक्य रचना सटीक हुआ करती थी.इस दफे  रिपीटीशन से लबालब था. मुद्दे सिलसिलेवार नहीं रहे. वे रह रह कर नीचे स्क्रिप्ट को देखते रहते. पिछले संबोधनों में उन्होंने इसका आभास नहीं होने दिया. सिलसिलेवार चीजें रखी जाती थीं. इस बार वे चूकते  या फिर ‘ चुकते ‘ नज़र आये. वे शब्दों,मुद्दों और अभिव्यक्ति के लिए मशक्कत कर रहे हैं.एक कृत्रिम अभिव्यक्ति का ‘ रोगन ‘ उनकी बॉडी लैंग्वेज पर दिखाई दिया.वैसे भाषण कला या जादूगीरी के मामले में उनका कोई सानी नहीं. प्राचीर-मंच पर बैठे राहुल गाँधी तो बिलकुल नहीं हैं.

भाषण वही फलता है जिसमें  ईमानदारी,गंभीरता और प्रतिबद्धता की अन्तर्धाराएँ बहती  हैं.15 अगस्त ,2018 का संबोधन प्रधानमंत्री का कम, भाजपा के नेता का अधिक लगा.उन्होंने बगैर नाम लिए अपनी पूर्ववर्ती  सरकारों की उपलब्धियों को खारिज-सा कर दिया; क्या चार सालों में वैज्ञानिक ढांचा तैयार हुआ?, क्या उनके अल्प कार्यकाल में इसरो अस्तित्व में आया?; क्या  अन्तरिक्ष कार्यक्रम उनके समय बना?; क्या आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज या आई.आई टी. चार साल में बने हैं?; क्या कोई देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर चार सालों में हो सकता है?;1962 के चीन के साथ युद्ध को छोड़ कर शेष युद्ध हवा में जीते गए थे? सर्जिकल स्ट्राइक का राग अलापा गया. लगे हाथ 1965,1971,1999 की जंगों को भी याद किया जा सकता था! किसने ये जंगें  जीतीं? किसने आज़ादी के तुरंत बाद कश्मीर में कबायलियों की पोशाक में पाकिस्तानी सेना को रोका था? क्या बांग्लादेश का जन्म हवा में हुआ था? नागार्जुन सागर, भांखड़ा बाँध जैसे विशाल बाँध सिर्फ चार सालों में बने हैं? क्या पोखरण में बुद्धा चार साल के काल में मुस्कराया था ?

मोदी जी ने अपने भाषण के प्रथम चरण में बड़ी चतुराई से आज़ाद भारत की उपलब्धियों  को कूड़े दान में फेंकने और अपने काल का महिमा मंडन करने को कोशिश की। मैं उनसे पूछ सकता हूँ कि क्या वे  साठ साल के जन्में थे? क्या वे कोख से ही डिग्रीधारी निकले हैं? यदि नहीं तो एक राष्ट्र के निर्माण में हर युग की पीढ़ी अपना योगदान देती है. बुनियाद में ईंट रखती है. कितनी ही पीढ़ियां खप  जाती हैं तब जाकर एक देश अपने पैरों पर खड़ा होता है.

यदि मोदीजी को अपने ही कार्यकाल पर इतना ही गुमान है तो बताएं कि ऑक्सीजन के अभाव में बच्चों की क्यों  मौतें हुईं हैं, भाजपा शासित प्रदेशों में कुपोषण से बच्चे क्यों मरते हैं? चार सालों में हज़ारों किसानों ने ख़ुदकुशी क्यों की? क्यों उनके निर्वाचन क्षेत्र में निर्माणाधीन पुल  गिरता है और दर्जनों लोग मरते हैं? अपने सम्बोधन में मोब लिंचिंग ,लव जिहाद ,बच्चा चोर अफवाह जैसी घटनाओं से होनेवाली मौतों का भी उल्लेख कर सकते थे। क्यों नहीं किया? देश को यह भी बता सकते थे कि डॉलर से  रुपया क्यों लगातार हारता जा रहा है? लुढ़कता ही जा रहा है. वे माल्या,नीरव मोदी,ललित मोदी,चौकसे जैसे सफ़ेदपोश डकैतों को चेतवानी दे सकते थे. बैंकों की दुर्दशा और नॉन परफॉमिंग एसेट का कोई उल्लेख नहीं किया गया. आखिर किसका पैसा है ? चुनाव सुधार, राजनीति  का गैर अपराधीकरण , लोकपाल की नियुक्ति , ब्लैक मनी जैसे मुद्दों पर साहेब की ख़ामोशी किसी ‘पहेली ‘ से कम नहीं है. जब मोदी जी अपनी उपलब्धियों का रिपोर्ट कार्ड सामने रखते हैं ,तब एक राजनेता का परिचय देते हुए अपनी नाकामियों को भी गिनाते.

दरसल, हमारे  मोदी जी आत्मग्रस्त नेता अधिक,प्रधानमंत्री कम लगते हैं. उनके पोर पोर से ‘आत्ममोह की ग्रंथि’ गूंजती है. वे  राजनेता बनते बनते रह जाते हैं. उनकी हर अदा पर पारसी थिएटर की अभिनय शैली झलकती है. वे सोहराब मोदी की याद ताज़ा कर देते हैं. उनकी डिलेवरी में ‘  हम’ या ‘हमारा ‘ के स्थान पर ‘ मैं ‘ या ‘ मेरा ‘ की गूँज अधिक रहती है. कोई भी सार्वजनिक शख्सीयत,विशेषरूप से प्रधानमन्त्री,मुख्यमंत्री तथा मंत्रीगण , स्वयं का नहीं जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं. जब नेता में  ‘मैं’ और ‘मेरा’ या स्वयं की मात्रा अधिक हो जाए तो समझिये वह ‘नारसीसिस्म ‘ का शिकार है। उनकी बॉडी लैंग्वेज और अंदाज़े बयां से यह जाहिर होता है।

सारांश में, प्रधानमंत्री का भाषण  चुनाव -अभियान की पूर्वपीठिका का आभास देता है. मैं समझता हूँ अब उन्हें चुनाव प्रचार के लिए कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है. लाल किले का भाषण ही  काफी है जिसके लाखों वीडियो बना कर चुनाव सभाओं में सुनाये जा सकते हैं. एक राष्ट्रीय सम्बोधन का इतना निजीकरण व संकीर्ण राजनीतिकरण करना प्रधानमन्त्री पद की गरिमा का  ‘घटियाकरण ‘ करना है. इस घटियाकरण की आदी जनता हो जायेगी। जनता का विश्वास जीतने के लिए उनके उत्तराधिकारियों को भी इसी स्तर पर उतरना पडेगा. उन्हें सोहराब मोदी या पृथ्वीराज कपूर का अवतार बनना पड़ेगा. एक नेता और राजनेता की नयी कसौटियां निर्धारित करनी पड़ेंगी.  मोदी -शाह की कितनी कामयाब रही, इसका फैसला तो इतिहास करेगा. लेकिन इस जोड़ी के युग ने हर ‘रीढ़’ को ‘कमोडिटी ‘ में बदलने की कोशिश ज़रूर की है. अलबत्ता, अपवाद ज़रूर हैं जिनसे लोकतंत्र और संविधान आबाद रहेगा.

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।