CJI के बयान में झलके पुलिस को ‘संगठित अपराधी गिरोह’ बताने वाले जस्टिस मुल्ला, पर समाधान?


साठ के दशक में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस ए.एन मुल्ला ने एक मुक़दमे की सुनवाई के दौरान पुलिस के बारे में एक बेहद तल्ख टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था- ” मैं जिम्मेदारी के सभी अर्थों के साथ कहता हूं, पूरे देश में एक भी कानूनविहीन समूह नहीं है जिसका अपराध का रिकॉर्ड अपराधियों के संगठित गिरोह भारतीय पुलिस बल की तुलना में कहीं भी ठहरता हो।” जस्टिस मुल्ला के इस कथन के लगभग 60 साल बाद जस्टिस रमन्ना के बयान को देखे तो जस्टिस रमन्ना का बयान, जस्टिस मुल्ला के बयान की व्याख्या ही लगती है।


विजय शंकर सिंह विजय शंकर सिंह
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” पुलिस स्टेशन मानवाधिकारों एवं मानवीय सम्मान के लिए सबसे बड़ा खतरा है। मानवाधिकारों के हनन और शारीरिक यातनाओं का सबसे ज्यादा खतरा थानों में है। थानों में गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को प्रभावी कानूनी सहायता नहीं मिल पा रही है जबकि इसकी बेहद जरूरत है।”

यह कथन है सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई, जस्टिस एनवी रमन्ना का। जस्टिस रमन्ना राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) द्वारा विकसित, एक मोबाइल ऐप शुरू किये जाने के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में भाग ले रहे थे। जस्टिस रमन्ना ने आगे कहा- ” हिरासत में यातना सहित अन्य पुलिस अत्याचार ऐसी समस्याएं हैं जो अब भी हमारे समाज में व्याप्त हैं। संवैधानिक घोषणाओं और गारंटियों के बावजूद गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को प्रभावी कानूनी सहायता नहीं मिल पाती है, जो उनके लिए बेहद नुकसानदायक साबित होता है। देश का वंचित वर्ग न्याय की व्यवस्था के दायरे से बाहर है। यदि न्यायपालिका को ग़रीबों और वंचितों का भरोसा जीतना है तो उसे साबित करना होगा कि वह उन लोगों के लिए सहज उपलब्ध है। पुलिस की ज्यादतियों को रोकने के लिए कानूनी सहायता के संवैधानिक अधिकार और मुफ्त कानूनी सहायता सेवाओं की उपलब्धता के बारे में जानकारी लोगों तक पहुंचाने के लिए इसका व्यापक प्रचार-प्रसार आवश्यक है।”

जस्टिस रमन्ना ने पुलिस के बारे में जो कहा है, पुलिस के बारे में वही धारणा अमूमन आम जनता की भी है। पुलिस हिरासत में यातना, पुलिस हिरासत में मृत्यु, तफतीशों के दौरान पुलिस द्वारा वैज्ञानिक और अधुनातन तरीक़ो के बजाय यातना यानी थर्ड डिग्री का इस्तेमाल, कानून व्यवस्था के दौरान असंयमित बल प्रयोग, राजनीतिक दृष्टिकोण और पूर्वाग्रह से पुलिस कार्य का संपादन, फर्जी मुठभेड़ें आदि आदि ऐसे आरोप हैं जो पुलिस पर लगते रहते हैं और यह एक व्यवस्थागत दोष है। एक पुलिसकर्मी होने के बावजूद भी जस्टिस रमन्ना की इन बातों का, मैं प्रतिवाद करने नही जा रहा हूँ। बल्कि हमे ईमानदारी से इन व्याधियों के बारे में सोचना होगा और उसके समाधान का प्रयास करना होगा। जब तक रोग की स्वीकार्यता नहीं होगी, उसका निदान नहीं ढूंढा जा सकता है।

साठ के दशक में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज, जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला ने एक मुक़दमे की सुनवाई के दौरान पुलिस के बारे में एक बेहद तल्ख टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था-

” मैं जिम्मेदारी के सभी अर्थों के साथ कहता हूं, पूरे देश में एक भी कानूनविहीन समूह नहीं है जिसका अपराध का रिकॉर्ड अपराधियों के संगठित गिरोह भारतीय पुलिस बल की तुलना में कहीं भी ठहरता हो।”

जस्टिस मुल्ला के इस कथन के लगभग 60 साल बाद जस्टिस रमन्ना के बयान को देखे तो जस्टिस रमन्ना का बयान, जस्टिस मुल्ला के बयान की व्याख्या ही लगती है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस मुल्ला के फैसले के उपरोक्त अंश को यूपी सरकार की अपील पर हटा दिया था, पर अब भी उसका उद्धरण, यदा कदा अदालतों में जब कभी भी पुलिस ज्यादती पर बहस चलती है तो, दिया जाता है।

समय के अनुसार, कानून बदले, पुलिस ट्रेनिंग का स्वरूप बदला, भर्ती का स्वरूप बदला, पढ़े लिखे आधुनिक सोच के लड़के पुलिस सेवा में आने लगे, कानून के अधिकारों और मानवाधिकार के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी, पुलिस कमीशन बने, पुलिस सुधार पर सुप्रीम कोर्ट तक के हस्तक्षेप के बाद कुछ सुधार कार्यक्रम शुरू हुए, ट्रेनिंग संस्थानों में व्यवहार सुधार पर पाठ्यक्रम शुरू हुए, पर नही बदली तो पुलिस के बारे में जजों की टिप्पणी। इसका उत्तर ढूंढना ज़रूरी है। पर इसके पहले, एक रिपोर्ट के कुछ आंकड़े देखते हैं।

मानवाधिकारों की रक्षा और उनके प्रोत्साहन के लिए काम करने वाली एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संस्था, ह्यूमन राइट्स वाच (HRW), ने 2009 में एक रिपोर्ट, ब्रोकन सिस्टम, डिस्फंक्शन, एब्यूज एंड इम्प्यूनिटी इन द इंडियन पुलिस 2009 दी थी। इस रिपोर्ट में मुख्य विंदु इस प्रकार थे-

● भारत में संगठित अपराध, धार्मिक और जातिगत हिंसा से निपटने के लिए पुलिस में जवानों की संख्या पर्याप्त नहीं है, पुलिस अपनी क्षमता से कहीं ज़्यादा बड़े इलाके में तैनात है।

● पुलिस के पास जरूरी प्रशिक्षण भी नहीं है और उनके हथियार भी दोयम दर्जे के हैं।

● लोग डर के चलते सामान्य तौर पर पुलिस से व्यवहार ही नहीं करते।

● राजनीतिक लोग, पुलिस ऑपरेशन्स में दखलंदाजी कर अकसर उन्हें जटिल बना देते हैं।

● मामलों में स्वतंत्र जांच के आभाव में अपराधी छूट जाते हैं। काम करने की खराब स्थितियों और अपराधियों के छूट जाने से पुलिसिया ढांचे में शॉर्टकट अपनाने का प्रचलन बढ़ा है।

● अवैध हिरासत, टॉर्चर, बुरा व्यवहार और अपराधियों को सजा दिलाने में नाकामी से गलत अपराध स्वीकृति करवाने की प्रवृत्ति बढ़ी है।

एचआरडब्ल्यू ने पुलिस व्यवहार और मानवाधिकारों पर अध्ययन के लिए, कुछ पीड़ित और गवाहों, जिनमें ऐसे पीड़ित भी शामिल थे, जिन्हें पुलिस द्वारा यातना दी गई, उनके और कस्टडी या शूटऑउट में मारे गए पीड़ितों के वकीलों और परिवारों के इंटरव्यू भी लिए गए। कुछ इंटरव्यू उन लोगों के भी लिए गए जिनकी शिकायत दर्ज कर जांच करने से पुलिस ने मना कर दिया था। एएसआई रैंक के पुलिस अधिकारी की मौजूदगी में कई पुलिस अधिकारियों का थाने के बाहर और भीतर इंटरव्यू किया गया। दूसरे निचले अधिकारियों से उनके वरिष्ठों की मौजूदगी में बातचीत की गई। कुछ दूसरे छोटे अधिकारी, जो पुलिस स्टेशन के इंचार्ज हैं या वरिष्ठ अधिकारियों के सहायक या फिर जांचकर्ता हैं, उनसे भी चर्चा की गई। कुछ वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से पूर्व पुलिस अधिकारियों की मौजूदगी में बात की गई। इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला कि, सरकार द्वारा जवाबदेही तय करने की नाकामी से पुलिस के खराब व्यवहार को बल मिला। पुलिस द्वारा अपराधों की जांच न करना, गलत गिरफ़्तारी, अवैध हिरासत, बुरा व्यवहार और एक्स्ट्रा ज्युडिशियल हत्याएं शामिल हैं।

इस रिपोर्ट के अतिरिक्त अन्य अध्ययन रिपोर्टों से भी यह निष्कर्ष निकलता है कि, इनका एक कारण, पुलिस पर अनावश्यक राजनीतिक नियंत्रण और जनता के प्रति उसकी जवाबदेही का तय नहीं होना है। 2006 में प्रकाश सिंह केस में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से भी पुलिस को गंभीर दुर्व्यवहार के लिए जो संरक्षण प्राप्त है, उसे भी नहीं छुआ गया। यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि किसी भी सुधार एजेंडे में निचले दर्जे के पुलिसकर्मियों के आवासीय और उनके काम करने की स्थितियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। आवासीय और काम करने की जगह के उपयुक्त न होने पर जो मानसिक सन्त्रास जन्य कुंठा जन्म लेती है उसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया दुर्व्यवहार में होने लगती है। हालांकि इधर, पुलिस आधुनिकीकरण योजनाओं में आवासीय औऱ काम करने की जगहों पर बहुत सुधार हुआ है। पर यह सुधार बड़े शहरों या जिला मुख्यालयों पर ही अधिक हुआ है। पर यह क्रम जारी है।

सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को पुलिस शिकायत प्राधिकरण गठित करने का निर्देश दिया है, ताकि पुलिस के गलत व्यवहार की शिकायत की जा सके। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मानवाधिकारों के उल्लंघन के प्रति पुलिस को किसी तरह के सुरक्षात्मक उपाय अपनाने के लिए नहीं कहा। एक तरफ पुलिस की कार्रवाई पर राजनीतिक प्रभाव खत्म करने के लिए कानून बदलने की जरूरत है, तो दूसरी तरफ यह जरूरी है कि पुलिस पर राजनीतिक नियंत्रण को पुलिस की जनता के प्रति जवाबदेही से बदला जाए। ज़्यादातर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन ही नहीं किया गया।

यहीं यह सवाल उठता है कि, ब्रिटिश राज द्वारा, पुलिस गठन का मूल उद्देश्य क्या था? 1861 में जब पुलिस एक्ट बना तब भारत ब्रिटिश क्राउन के सीधे नियंत्रण में आ गया था। 1857 का विप्लव हो चुका था और अंग्रेज भारतीय आक्रोश को समझ चुके थे। उनके पुलिस गठन के मूल उद्देश्य को, डेविड अर्नाल्ड ने अपनी किताब, ”पुलिस पॉवर एंड कॉलोनियल रूल, मद्रास, 1859-1947” में इस प्रकार स्पष्ट करते हैं,
” भारतीय पुलिस का मौजूदा ढांचा आयरिश औपनिवेशक अर्द्धसैनिक पुलिस ढांचे पर आधारित है, जिसमें खास तरह के उपाय राजनीतिक प्रतिरोध को तोड़ने के लिए जोड़े गए थे।”

यह किताब ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से 1986 में प्रकाशित हुयी है। इस तथ्य को ध्यान में रखें तो पाएंगे कि पुलिस व्यवस्था की प्राथमिकता, अपराध और उसकी जांच पर नहीं है। भारतीय दंड संहिता, अपराध प्रक्रिया संहिता और पुलिस कानून-1861, यह सभी औपनिवेशिक दौर में राज्य की सुरक्षा, औपनिवेशिक व्यवस्था को बरकरार रखने और राजनीतिक गुप्त सूचनाएं हासिल करने के उद्देश्य के साथ बनाए गए थे। इन्हें बनाने के पीछे मानवीय सुरक्षा और सेवा का उद्देश्य था ही नहीं।

ब्रिटिश औपनिवेशक शासकों ने भारतीय पुलिस व्यवस्था को आर्मी के सस्ते विकल्प के तौर पर विकसित किया था। इसीलिए शुरू में, पुलिस प्रमुख कैप्टन रैंक का आईपी अफसर होता था जो, आईसीएस से कम शैक्षणिक योग्यता में चयनित होता था। पुलिस का एक उद्देश्य राजस्व वसूली में कलेक्टर की मदद करना था, और राजस्व वसूली के लिये कानून व्यवस्था का बरकरार रहना जरूरी था, अतः पुलिस कलेक्टर के अधीन थी।

इसका मुख्य उद्देश्य भारत में ब्रिटिश राज्य को बरकरार रखना था। अपराध पर नियंत्रण पुलिस की दूसरी प्राथमिकता थी। आईपीसी, सीआरपीसी और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को ब्रिटिश सरकार ने उस कानूनी ढांचे के अंतर्गत लागू किया था, जिसमें ताकत के दम पर पुलिस, ब्रिटिश व्यवस्था को बनाए रखने के लिए सारी शक्ति सम्पन्न बनी रहे। आईपीसी में राज्य और कानून-व्यवस्था के खिलाफ अपराधों को प्राथमिकता दी गई है। इसमें पारंपरिक अपराधों की शुरुआत सेक्शन 299 से होती है। इसी तरह सीआरपीसी में कानून और शांति व्यवस्था को प्राथमिकता दी जाती है, इसके बाद ही इसमें जांच और अपराध से जुड़े अध्याय हैं । इस प्राथमिकता के वर्गीकरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि, अंग्रेजों का मूल उद्देश्य पुलिस के बल पर, अपने साम्राज्य को बरकरार रखना अधिक था, न कि एक ऐसी पुलिस बनाना जो जनता के हित मे जनता के प्रति दोस्ताना या पीपुल्स फ्रेंडली हो।

इधर पुलिस में एक और प्रवित्ति जड़ जमा रही है जो मानवाधिकार उल्लंघन का मुख्य कारण है। वह है, पुलिस बल का धर्म और जाति के आधार पर धीरे धीरे ध्रुवीकृत हो जाना। धर्म और जाति के आधार पर की जा रही, राजनीतिक दखलंदाजी का यह घातक परिणाम है और इसे रोका न गया तो, यह समस्या लोकतंत्र के लिये खतरा तो बनेगी ही, देर सबेर देश की एकता के लिये भी संकट का कारण बन सकती है। इधर कई सारे विशेष आतंकवाद निरोधक कानूनों को भी पारित किया गया, जैसे, पोटा, टाडा, यूएपीए आदि। इन कानूनों ने अपना लक्ष्य हासिल किया या नहीं यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन इन कानूनो के दुरुपयोग पर अदालतो ने हाल ही में, कड़ी टिप्पणियां की हैं।

मानवाधिकार हनन की समस्या हो या पक्षपात रहित प्रोफेशनल पुलिसिंग की, इसमे कोई दो राय नहीं है कि, पुलिस जनहित के प्रति उतनी गम्भीर नही है जितना उसे होना चाहिए। पुलिस एक वर्दीधारी बल है, और एक वर्ड ऑफ कमांड पर काम करने वाली, विधि का शासन कायम करने वाली प्रमुख लॉ इंफोर्समेंट संस्था है। ऊपर जितनी भी बातें कहीं गयीं हैं और जो भी समस्या गिनाई गयी है, वह सब पुलिस अधिकारियों की जानकारी में हैं और उन पर विभाग के अंदर चर्चा भी होती है औऱ पुलिस का पेशेवराना रूप बने, इसके लिये तरह तरह से प्रयास भी किये जाते हैं। पर पक्षपात रहित, प्रोफेशनल पुलिस चाहिए किसको यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। सरकार अमूर्त नहीं होती है। वह किसी न किसी राजनीतिक दल की होती है औऱ हर राजनीतिक दल का अपना वैचारिक एजेंडा होता है और उसका मूल, धर्म जाति के आधार पर भी टिका होता है। सबसे बड़ा सवाल है कि राजनीतिक दल की अवांछित दखलंदाजी से कैसे पुलिस को मुक्त रखा जाय।

लोकतंत्र में, पुलिस को राजनीतिक नियंत्रण से बिल्कुल मुक्त भी नहीं किया जा सकता है और न ही सेना की तरह उसे अराजनीतिक बनाया जा सकता है। ऐसा करने से दूसरी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। ऐसी स्थिति में सभी राजनैतिक दलों को विधि के शासन के हित मे, कोई न कोई ऐसी सीमा रेखा खींचनी पड़ेगी कि, राजनीतिक दखलंदाजी तो हो, पर जनहित में हो औऱ कानून को बनाये रखने के लिये हो, न कि दलगत हित मे हो या दलीय एजेंडे या दलीय धार्मिक और जातिगत समीकरणों के अनुरूप हो। केवल पुलिस के अफसरों के बल पर ही, पुलिस को प्रोफेशनल स्वरूप नही दिया जा सकता है औऱ न ही उसे मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील ही बनाया जा सकता है। सीजेआई की चिंता जायज है पर इसका समाधान कैसे हो, यह उंस चिंता से बड़ी चिंता है। जब तक सभी राजनीतिक दल, जो सत्ता में आते हैं, इस विषय पर गम्भीरता से पुलिस को जनहित तथा मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील और प्रोफेशनल बनाने के लिये मानसिक रूप से तैयार नही होते हैं तब तक इस व्याधि का निदान सम्भव नहीं है। पुलिस अपने संसाधनों में तो आधुनिक हो रही है पर उस आधुनिक और वैज्ञानिक सोच का असर उसके प्रोफेशनलिज़्म पर भी पड़े, यह बहुत ज़रूरी है। जब तक राजनीतिक दल, ‘यह तो हमारी पुलिस के’ और ‘यह तो अपना थाना है, जो कहूँगा करेगा’ सिंड्रोम से ग्रस्त रहेंगे, तब तक, सुधार की गुंजाइश कम है।


लेखक भारतीय पुलिस सेवा से अवकाशप्राप्त अधिकारी हैं।