आज के अख़बार में एक छोटा-सी न्यूज़ देखा; बस एक कालम की खबर. रामविलास पासवान के सांसद बेटे चिराग का एक बयान है कि वह शबरी के वंशज हैं, और राममंदिर के शिलान्यास -निर्माण से आह्लादित हैं.
एक सांसद ,वह भी किसी केंद्रीय मंत्री का बेटा, और एक पार्टी का आलाकमान ,को आह्लादित करने के काफी मसाले उपलब्ध होते हैं. दुनिया जानती है कि चिराग का यह बयान उस सामाजिक-राजनैतिक ताकत की चापलूसी है, जिसके पुछल्ले अभी वह हैं. चिराग तो अभी कमसिन हैं, उनके पिता रामविलास पासवान को जो लोग जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि मौसम की तरह उनके विचार बदलते रहे हैं. निश्चित ही एक योग्य पिता के रूप में उन्होंने बेटे की ऐसी परवरिश की होगी कि वह उनके पदचिन्हों पर चले. इसलिए चिराग का तो यह आरम्भ ही कहा जायेगा. लेकिन कोई भी कह सकता है कि आरम्भ फ़िल्मी डायलॉग की तरह धाँसू किस्म का है. शायद चिराग फिल्मों में भी थोड़े वक़्त के लिए अपनी किस्मत आजमा चुके हैं.
रामविलास पासवान एक समय क्रांतिकारी हुआ करते थे. वह किसी दलित राजनीति की पहचान नहीं रखते. उन्हें अधिक से अधिक सोशलिस्ट राजनीति का दलित नेता कह सकते हैं. उनमे कई खूबियां हैं. कभी हमारी अच्छी बनती थी और उन पर खूबसूरत संस्मरण लिखने के लिए मेरे पास पर्याप्त सामग्री है. मोदी-राज में गुजरात दंगों के बाद उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से अचानक इस्तीफा दे दिया था. तब प्रगतिशील-सेकुलर घराने ने उनकी जम कर तारीफ़ की थी. कुछ समय केलिए वह सेकुलर हीरो थे. 2005 के चुनाव में उनकी पार्टी को बिहार विधानसभा में इतनी सीटें मिली थीं कि वह सरकार बनाने में निर्णायक हो सकते थे. उनका सेकुलरवाद इतना गाढ़ा था कि उन्होंने जिद कर ली कि मुस्लिम मुख्यमंत्री का ही वह समर्थन करेंगे. उनकी पार्टी बिखर गयी, विधानसभा भंग कर दी गई और बिहार में राष्ट्रपति शासन लग गया. यही रामविलास जी जब 2014 में भाजपा गठबंधन के हिस्सा बन गए, तब बहुतों को आश्चर्य हुआ. मुझे बिलकुल नहीं हुआ.
कुछ और पीछे चलें. मंडल को लेकर जब हंगामा चल रहा था, तब रामविलास जी केंद्रीय मंत्री और तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के प्रिय-पात्र थे. रामविलास जी ने मंडल कमीशन की सिफारिशों के समर्थन में जान झोंक दी थी (हालांकि दस साल बाद इसके लिए अफ़सोस भी जताया था.) उस वक़्त वह ‘न्यायचक्र ‘ नाम से एक पत्रिका निकालते थे. उसके एक अंक में आरएसएस द्वारा जारी की गई एक गश्ती चिट्ठी छापी गयी थी, जिस में विस्तार से बतलाया गया था कि संघ के सदस्य दलित, आदिवासी, पिछड़े लोगों के मोहल्लों में मंदिर बनवावें और धार्मिक आयोजन करें ताकि उनके हिंदुत्व का विप्री-करण हो सके, और उनकी परिवर्तनकारी चेतना कुन्द की जा सके. पत्रिका इन तबकों को संघ के चाल से सावधान कर रही थी. रामविलास जी कभी यह भी करते थे .
निश्चित ही चिराग तब शिशु होंगे. वे चीजें अब गतालखाने में होंगी. शायद ढूंढे भी ना मिले. चिराग ने रामविलास जी के संघर्ष के दिन नहीं देखे हैं, सत्ता के दिन देखे हैं. मैं नहीं जानता उनके पिता घरेलु चर्चा में इन सब की कभी चर्चा करते हैं या नहीं . हालांकि, कुछ वर्ष पूर्व रामविलास जी ने एक बातचीत में उत्साह से बतलाया था कि चिराग को अपनी आइडेंटिटी पर बहुत गर्व है. कुछ अर्थों में यह गर्व आज के बयान में भी दिख सकता है. लेकिन इसके खोखलापन पर सब की नजर जानी चाहिए. मैं चिराग से भी कहना चाहूँगा कि उन्हें रामकथा का विश्लेषण भी करना चाहिए. उनके पिता खूब करते थे. वे बातें अभी सार्वजनिक करें, तो मोदी को उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर करना विवशता हो जाएगी. लेकिन, यह बात बढ़ाने का नहीं इसलिए , इसे दफन करता हूँ .
लेकिन, चिराग को तो जरूर कहना चाहूँगा कि वह अभी युवा हैं और जिंदगी केवल राजनीति नहीं है. वे इन चीजों को देखें. अच्छी बात है कि वह शबरी के वंशधर हैं लेकिन शम्बूक से भी उनका कोई रिश्ता नहीं है क्या? जिसे राजा रामचंद्र ने केवल इसलिए कत्ल कर दिया कि वह तपस्या कर रहा था. शबरी एक भील कन्या थी चिराग! जिसे समाजवादी नेता लोहिया ने राम का गर्ल-फ्रेंड बतलाया है. वे दोनों एक दूसरे का जूठा खाते थे. प्रेमी आम-तौर पर झूठी कसमें खाते हैं,वे जूठे बेर खाते थे. आपके पिता इस कथा को खूब अच्छे से बतलाते थे. कहते थे सीता को जब यह बात पता चली तो वह आग-बबूला हो गयी. क्या जाने इसका बदला उसने लिया कि वह रावण के साथ चली गयी.
रामकथा बहुत दिलचस्प है चिराग! अनेक जुबानों और इलाकों में इसकी अनेक रूपों में व्याख्या की गयी है. कोई तीन सौ रामायणों की बात कही गयी है. हमारे पुरखों की कल्पना-शक्ति बेजोड़ थी. उनकी चेतना और परिदृष्टि भी ला-जवाब थी. रामायण को ध्यान से समझने का है. वह बहुत बड़े और खरे सन्देश हमे देती है. राजनीति भी सिखलाती है. उसके मिथ्याचारों की तरफ संकेत करती है. इसकी सब से बड़ी खूबी यह है कि यह राजनीति के दो पार्ट को बेहतर ढंग से हमारे सामने रखती है. राम जब युवा हैं, खूब प्रगतिशील हैं. वह उस सीता से विवाह करता है,जो अयोनिजा है. अज्ञातकुलशील है. वह वशिष्ठ के अनुशासन को नहीं, विश्वामित्र के अनुशासन को मानता है. केवट को गले लगाता है, शबरी के जूठे बेर खाता है, वनवासियों से मैत्री करता है. इसी राजनीति के बूते वह रावण को पराजित करता है. लेकिन वही राम जब अवध का राजा बनता है तब न शबरी की खोज करता है न हनुमान की परवाह करता है. राजा बना हुआ राम सीता को घर निकाला देता है और शम्बूक की केवल इसलिए हत्या करता है कि वह तपस्या या साधना कर रहा था. कितना बदल जाता है यह राम !
चिराग! जैसे आप को किसी ने बतलाया कि आप शबरी के वंशज हो, वैसे ही मुझे भी बतलाया गया है कि हम सीता के वंशज हैं. लव-कुश की संततियां. लेकिन हमारे आदि पुरुष ने यानी लव-कुश ने राजा रामचंद्र के अश्वमेघ के घोड़े को थाम लिया था, रामराज का तहस-नहस कर दिया था. राम को पकड़ कर सरयू में डुबो दिया था. यह भी उस रामायण में ही है. इसीलिए कहा न! रामायण बहुत खूब है. वह राम के उत्थान की भी कथा है और पतन की भी. पौराणिकता हमें अपने वर्तमान को समझने की एक दृष्टि देती है. इसे इसी रूप में देखना चाहिए.
प्रेमकुमार मणि
कथाकार प्रेमकुमार मणि 1970 में सीपीआई के सदस्य बने। छात्र-राजनीति में हिस्सेदारी। बौद्ध धर्म से प्रभावित। भिक्षु जगदीश कश्यप के सान्निध्य में नव नालंदा महाविहार में रहकर बौद्ध धर्म दर्शन का अनौपचारिक अध्ययन। 1971 में एक किताब “मनु स्मृति:एक प्रतिक्रिया” (भूमिका जगदीश काश्यप) प्रकाशित। “दिनमान” से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक चार कहानी संकलन, एक उपन्यास, दो निबंध संकलन और जोतिबा फुले की जीवनी प्रकाशित। प्रतिनिधि कथा लेखक के रूप श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार(1993) समेत अनेक पुरस्कार प्राप्त। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।