‘RSS के नियंत्रण में है फ़ेसबुक’ पर बहिष्कार नहीं मुक़ाबला है रास्ता!

गिरीश मालवीय गिरीश मालवीय
ओप-एड Published On :


राहुल गांधी द्वारा यह कहना कि ‘बीजेपी और आरएसएस भारत में फ़ेसबुक और व्हाट्सऐप का नियंत्रण करती है और नफ़रत फैलाती है’ अब एक ओपन ट्रूथ है। फेसबुक अब फेस और बुक तक ही नहीं रह गया है, बल्कि यह किसी भी व्‍यक्ति के चरित्र को चरितार्थ करता है। भारत में फेसबुक के 50 फीसदी से ज्यादा यूजर्स की उम्र 25 साल से कम है। व्हाट्सऐप का विस्तार तो अब फेसबुक से भी कहीं ज्यादा व्यापक है। इसलिए यह दोनों वयस्क मतदाता की राजनैतिक अभिरुचि को प्रभावित करने के सबसे सशक्त माध्यम बने हुए हैं।

आपको याद होगा कि अमित शाह ने कुछ साल पहले राजस्थान के कोटा में पार्टी कार्यकर्ताओं, शक्ति केंद्र कार्यकर्ताओं और सोशल मीडिया वॉलिंटियर्स को संबोधित करते हुए कहा कि उनका सोशल मीडिया संगठन इतना मजबूत है कि वो जैसा चाहें, वैसा संदेश जनता तक पहुंचा सकते हैं। उन्होंने कहा कि यूपी में उनके पास 32 लाख लोगों का व्हाट्सअप ग्रुप है, जिसमें सूचनाएं नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे तक जाती हैं। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया की इस ताकत के बल पर वो मनचाही सूचना जन-जन तक फैला सकते हैं। शाह ने कहा, “हम जो चाहें वो संदेश जनता तक पहुंचा सकते हैं, चाहे खट्टा हो या मीठा हो, चाहे सच्चा हो या झूठा।”

2018 में हफ़पोस्ट के रचना खैरा और अमन सेठी ने बड़ी मेहनत से एक रिपोर्ट लिखी थी, जिसमें ABM ‘द एसोसिएशन ऑफ़ बिलियन माइंड्स’ नामक संस्था की पूरी पड़ताल की गयी थी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि 166 लोगों की यह टीम देश के 12 जगहों पर अपना दफ्तर रखती है। इसका मुख्य काम है बीजेपी के समर्थन में व्हाट्स एप के लिए मीम तैयार करना, चुनावों के समय न्यूज़ वेबसाइट की शक्ल में प्रोपेगैंडा वेबसाइट लांच करना, बदनाम करने और अफवाह फैलाने का अभियान चलाना।

जिस दिन कैंब्रिज़ एनालिटिका का भांडा फूटा था, उसी दिन ‘द गार्डियन’ में जूलिया कैरी वोंग ने लिखा था कि डेटा के ऐसे उपयोग ने दुनिया को तो बदल दिया, लेकिन फ़ेसबुक नहीं बदला है।

दरअसल बिहेवियर साइकोलॉजी के अध्ययन के आधार पर अब मतदाता के दिमाग को पूरी तरह से बदला जा सकता है। भारत में राजनीतिक दलों में बीजेपी इसमे दूसरे दलों से मीलों आगे है।

अब इन जैसी संस्थाओं के माध्यम से डेटा साइंस के जरिये वह विभिन्न तरह के डाटा की अंदरूनी जानकारियां रिकॉर्ड कर उनके अलग-अलग ट्रेंड का अध्ययन करती हैं। फेसबुक डाटा के जरिए यूजर्स की प्रोफाइलिंग करती हैं। यूजर के पर्सनल डेटा को ध्यान में रखकर उसकी राजनीतिक पसंद, नापसंद को देखते हुए उससे जुड़ी हुई पोस्ट दिखाई जाती हैं। लंबे समय तक ऐसी पोस्ट देखने से व्यक्ति का झुकाव किसी भी राजनीतिक पार्टी की तरफ हो जाता है। यह सब डाटा एनालिसिस के जरिए होता है, इसके लिए फेसबुक के पब्लिक पॉलिसी मेकर्स को सेट किया जाता है। आँखी दास भारत में यही काम कर रही होंगी।

म्यूनिख विश्वविद्यालय में डिजिटल राजनीति सिखाने वाली सहाना उडुपा ने कहा कि राजनीतिक चुनाव प्रचार के लिए डेटा एनालिटिक्स कंपनियों का उपयोग करने से “दुनिया भर में विनाशकारी प्रभाव पड़ा है”। उडुपा ने कहा “डेटा निगरानी, पूंजी और राजनीतिक शक्ति के बीच मिलीभगत लोकतंत्र के लिए गहरी क्षति है, क्योंकि मतदाताओं के व्यवहार के पैटर्न का पता लगाया जाता है, साजिश रची जाती है, भविष्यवाणी की जाती है और उन पर नक़ल की जाती है।

अब प्रश्न उठता है कि यह सब तो हो ही रहा है हम और आप इसमें कर क्या सकते हैं? आप अगर आज फेसबुक से बाहर हो जाते हो कल को व्हाट्सएप से बाहर हो जाओगे,  ट्विटर का भी बहिष्कार कर दोगे, इंस्टाग्राम से भी बाहर हो जाओगे, उन्हें 15 से 20 लाख सक्रिय यूजर के भी बाहर होने से फर्क नही पड़ने वाला। हम फेसबुक, गूगल व ट्विटर जैसी बड़ी तकनीकी कंपनियों से उम्मीद नहीं रख सकते हैं, कि वो अपने में कोई बदलाव लेकर आएगी। अब हमें ही स्वंय चौकस व जागरूक होना होगा। हमें उनके औजार से उन्हें मात देनी होगी।  हमें यहाँ डटे रहकर ही मुकाबला करना होगा।


 गिरीश मालवीय स्वतंत्र टिप्पणीकार और आर्थिक मामलों के जानकार हैं।