अयोध्या में अभी राममन्दिर के लिए भूमिपूजन भर ही हुआ है- नींव नहीं खुदी है। कहा जा रहा है कि छेनी-गैंती, हथौडे, कन्नी-फंटी, बसूले व फावड़े वालों का काम चातुर्मास के बाद शुरू होगा, जो सालों चलेगा। यानी मन्दिर के आकार ग्रहण करने में अभी वक्त है। लेकिन खुद को ‘बुद्धिजीवी’ कहने वाले कई महानुभाव अभी से अयोध्या को सुना-सुनाकर ऐसी-ऐसी बातें कह रहे हैं, जिनसे परेशान इस नगरी को समझ नहीं आ रहा कि हंसे या रोये।
इन महानुभावों में कोई कह रहा है कि अयोध्या स्वयं को राममन्दिर तक ही सीमित न रखकर हर धर्म को अपने में समाहित करे, खुद को और अपने राम को सबका बनाये, तो कोई यह कि वह फौरन से पेश्तर भारतीयता के तीर्थ और राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति में बदल जाए।
विडम्बना देखिये: एक ओर ये महानुभाव अयोध्या को ‘ऐसी’ या ‘वैसी’ बन जाने की नसीहतें दे रहे हैं और दूसरी ओर यह भी कह रहे हैं कि वह आदिकाल से वैसी ही है। तभी तो उसके राम देशों और धर्मों की सीमाओं के पार मर्यादापुरुषोत्तम बने हुए हैं और वह खुद आध्यात्मिकता, सहिष्णुता और एकता की निर्दम्भ नजीर। अवध की गंगा-जमुनी तहजीब में तो वह आपादमस्तक ‘डूबी’ ही रहती है, जो भी मत अथवा सम्प्रदाय उसकी ओर हाथ बढ़ाता है, उसे बेझिझक स्वीकार लेती है। किसी को नहीं भी स्वीकारती, तो उसके आईने के सामने अनुद्विग्न भाव से जा खड़ी होने से गुरेज नहीं करती।
हां, उसकी धरती पर कम से कम एक ऐसा ‘सत्यार’ भी है, जहां एक ही मंच पर दुनिया के सारे धर्मों और उनके प्रवर्तकों को प्रतिष्ठित किया गया है। उन कार्ल मार्क्स को भी जिन्होंने कभी धर्म को अफीम के नशे के तौर पर परिभाषित किया था। अयोध्या का इतिहास गवाह है कि उसमें इस ‘सत्यार’ का कभी किसी भी स्तर पर कोई विरोध नहीं किया गया। प्रतीकात्मक विरोध भी नहीं।
ऐसे में स्वाभाविक ही है कि जब ये महानुभाव उससे ऐसी या वैसी बन जाने को कहें तो उसे उनकी अपेक्षाएं समझ में न आयें। खासकर जब उसका और उसके राम का नाम लेकर प्रायः आसमान सिर पर उठाये रहने वाले एक खास जमात के सत्ताधीशों व धर्माधीशों की उसकी अजातशत्रुता से ‘दुश्मनी’ खत्म ही न होने को आ रही हो।
किसे नहीं मालूम कि पहले यह जमात अयोध्या को हिन्दुत्व के अपनी तरह के इकलौते और अभेद्य दुर्ग में तब्दील करने के नारे लगाती हुई आती थी और अब उसे सारे हिन्दुओं की भी नहीं रहने देना चाहती। उसका यह भ्रम है कि टूटने को ही नहीं आ रहा कि हिन्दुओं की ओर से बोलने पर एकमात्र उसी का अधिकार है। लेकिन अयोध्या की ओर मशवरों की लम्बी सूची उछाल रहे महानुभावों के पास इस जमात के लिए कोई एक मशवरा भी नहीं है। उससे इतना कहना भी गवारा नहीं कि भगवान राम और अयोध्या को ‘छूने’ से पहले अपने हृदय और हाथों में लगा कीचड़ साफ कर ले क्योंकि उसके द्वारा अपनी सत्ता की सीढ़ी अक्षुण्ण रखने के लिए अयोध्या और उसके राजा राम का कीचड़ सने हाथों से किया जा रहा बदनीयत स्पर्श, और तो और, अयोध्या को अयोध्या ही नहीं रहने दे रहा।
यह तो अयोध्या की अपनी जीवनी शक्ति है कि वह अपनी पुरानी पहचान के ध्वंस की इस जमात की कोशिशों से लम्बे अरसे से आक्रांत होने के बावजूद उसकी लय पर नहीं झूमती, न ही उसके साथ कदम-ताल करती है। आजादी के पहले की बात न भी करें तो उसके बाद 22-23 दिसम्बर, 1949, 01फरवरी, 1986, 30 अक्टूबर-02 नवम्बर, 1990 और 06 दिसम्बर, 1992 के इस जमात के विकट आक्रमणों को भी अपने असीम धैर्य से विफल कर देती है।
यह मानने के कारण हैं कि इस कदर पीड़ित होने के बावजूद उसे ही नसीहतें दे रहे इन महानुभावों को इस बात का इल्म नहीं कि न अयोध्या का वह धैर्य चुक गया है, न ही उसका स्वभाव बदल गया है। इन महानुभावों की समस्या दरअस्ल यह है कि उनमें इतना साहस नहीं बचा कि वे अयोध्या की पहचान और इतिहास ‘बदल देने’ का दावा करने वाली उक्त जमात से नैतिक मुठभेड़ कर सकें। यह साहस होता तो वे रामलला के सामने साष्टांग दंडवत होकर ‘राम सबके हैं और सब राम के’ कहने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से पूछते कि जिन गुणों और मर्यादाओं के कारण सब राम के और राम सबके हुए हैं, उनके संरक्षण में उनका, उनकी पार्टी और सरकार का कितना योगदान है? और नहीं है तो क्यों नहीं हैं? उनके समर्थकों द्वारा वायरल की जा रही तस्वीरों में भगवान राम को उनसे कई गुना छोटा, उनका मोहताज या कृतज्ञ दिखाकर भगवान राम का राजनीतिक दुरुपयोग किया जा रहा है या उनकी मर्यादा निभाई व स्वीकार्यता बढा़ई जा रही है?
फिर उनकी सरकार ने राममन्दिर निर्माण के लिए जो श्रीरामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट बनाया है, वह भारतीयता का तो क्या सारे हिन्दुओं का भी नहीं बल्कि एक जातिविशेष के वर्चस्व का प्रतीक होकर क्यों रह गया है?
गौरतलब है कि प्रधानमंत्री इस ट्रस्ट के जातिवादी स्वरूप की जिम्मेदारी लेने से इसलिए भी नहीं बच सकते कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर उसका गठन खुद उनकी सरकार ने किया है और अयोध्या के जिलाधिकारी उसके पदेन सदस्य हैं। इस बात को भूल भी जायें कि रामजन्मभूमि मन्दिर में दलित पुजारी के सवाल पर इस ट्रस्ट की बोलती बन्द है, तो भूमिपूजन के लिए उसने जो भव्य समारोह आयोजित किया, उसमें भी उस भारतीयता और भगवान राम के गौरव व गरिमा की रक्षा कहां की गई? उसकी तारीख तय करने और निमंत्रण भेजने तक में साफ साफ दिख रही स्वार्थी राजनीति उस भारतीयता का प्रतीक क्योंकर हो सकती है, अयोध्या से जिसका तीर्थ होने की अपेक्षा की जा रही है? वहां कोई ‘लघु भारत’ नहीं बल्कि सत्ताधीशों व धर्माधीशों की जमात विशेष का समर्थक झुंड ही क्यों नजर आ रहा था?
क्यों जब एक ओर इस बात पर ‘संतोष’ व्यक्त किया जा रहा था कि पांच सदी पुराने विवाद का पटाक्षेप हो गया है तो न सिर्फ इस ट्रस्ट कल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा भी मन्दिर निर्माण के शुभारंभ की तारीख का जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने की विवादास्पद तारीख से साझा करना उपयुक्त समझा गया? खासकर जब पिछले साल इस तारीख को जम्मू कश्मीर की बाबत संसद में जो कुछ हुआ, उसके आचित्य का प्रश्न अभी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है?
प्रसंगवश, पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने राममन्दिर के पक्ष में फैसला सुनाया तो कहा गया था कि उसे किसी की जय और किसी की पराजय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। अयोध्या ने बिना नानुकर किये उसको एकदम इसी रूप में स्वीकार किया। लेकिन भूमिपूजन समारोह के विशिष्ट अतिथि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डाॅ. मोहनराव भागवत ने अपने संगठन की तीन दशकों से ज्यादा लम्बी उन कवायदों, जो उनके अनुसार पूर्ववर्ती सरसंघचालक बालासाहब देवरस के आदेश पर शुरू हुई थीं, की जीत का जिक्र किया, तो क्यों उसमें विवाद के पटाक्षेप का संतोष कम मूंछें ऐंठकर नये विवादों को घर दिखाने की मंशा ज्यादा दिखी?
यकीनन, जब प्रधानमंत्री ने ‘राम सबके हैं और सब राम के’ जैसा उदात्त बात कही तो अयोध्या आश्वस्त हुई और उसको लगा कि वे उसके निर्बल के बल की बात कर रहे हैं लेकिन अगले ही पल वे ‘भय बिनु होय न प्रीति’ का जिक्र करने लगे तो उसे अंदेशा होने लगा कि उनकी जमात की खलनायकों की तलाश आगे भी जारी रहने वाली है। कई लोगों को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री ‘सियावर रामचन्द्र की जय बोलेंगे’ तो उनसे प्रार्थना करेंगे कि वे जितनी जल्दी संभव हो, देश को कोरोना के त्रास से मुक्ति दिला दें। मगर प्रधानमंत्री तो क्या ट्रस्ट के किसी पदाधिकारी ने भी यह प्रार्थना नहीं की।
साफ कहें तो भगवान राम हों या अयोध्या, उनके गुण और मूल्य कभी भी लोकतांत्रिक भारत के संवैधानिक मूल्यों के आड़े नहीं आये, न ही उनके लिए समस्या बने। समस्या तो सच्चे मायनों में वह जमात है, जो उनका नाम लेकर इन मूल्यों के साथ भारतीयता को भी संकट ग्रस्त कर रही है। यह जमात इतनी शातिर है कि उन सारे असुविधाजनक सवालों को, जो उससे और उसकी सत्ताओं से पूछे जाते हैं, भगवान राम और अयोध्या के विरोध से जोड़ देती है। अयोध्या तो इस जमात के हाथों पीड़ित है महानुभावो! समझा सकते हैं तो इस जमात को समझाइये।
कृष्ण प्रताप सिंह
लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।