प्रेमचन्द उपन्यासकार और कथा-सम्राट के साथ-साथ एक पत्रकार भी थे। इस दृष्टि से वे स्वतन्त्रा चिंतक और विचारक भी थे। उनके इस कृतित्व का मूल्यांकन बहुत अधिक नहीं हुआ। उनके इस कृतित्व को खोज निकालने का महत्वपूर्ण कार्य भी उनके पुत्रा अमृत राय ने ही किया, जो उन्होंने ‘विविध् प्रसंग’ के तहत तीन खण्डों में उपलब्ध् कराया। उन्होंने लिखा है कि इस खजाने की तरफ अब तक किसी का ध्यान नहीं गया था, और शायद जाता भी नहीं, अगर मुंशी जी (प्रेमचन्द) की प्रामाणिक जीवनी लिखने के तकाजे़ ने उन्हें उन सब चीजों की छानबीन करने के लिए, जो मुंशी जी ने जब-जब और जहाँ-जहाँ लिखीं, मजबूर न किया होता। अमृत राय को ‘पुरातत्व विभाग की इसी खुदाई में यह दफ़ीना हाथ लग गया।’ यही दफ़ीना प्रेमचन्द को एक विचारक के रूप में स्थापित करता है।
अमृत राय के अनुसार ‘विविध् प्रसंग’ के पहले खण्ड में प्रेमचन्द के अधिकांश लेख उर्दू के प्रसिद्ध पत्र ‘ज़माना’ से लिए गए हैं, जिससे उनका आजीवन बहुत आत्मीय सम्बन्ध् रहा। इसमें 1903 से लेकर 1920 तक के 28 लेख और समीक्षाएँ हैं। दूसरे और तीसरे खण्ड में 1921 से 1936 तक के लेख, टिप्पणियाँ और समीक्षाएँ हैं, जो अधिकांशतया ‘हंस’ और ‘जागरण’ से संकलित हैं। यह आलेख इन्हीं टिप्पणियों पर आधरित है।
2
प्रेमचन्द ने मई-जून 1909 के ‘ज़माना’ में ‘संयुक्त प्रान्त में आरम्भिक शिक्षा’ नाम से एक लेख लिखा था, जो कलकत्ता से प्रकाशित अॅंग्रेजी के मासिक पत्रा ‘मॉडर्न रिव्यू’ में सेंट निहाल सिंह के लेख की प्रतिक्रिया में लिखा गया था। इस लेख से उनकी आरम्भिक शिक्षा की समझ को समझा जा सकता है। उन्होंने भारत में आरम्भिक शिक्षा का जो खाका खींचा है, वह कमोबेश आज भी उत्तर प्रदेश के कुछ अंचलों में दिख सकता है। निहाल सिंह ने अपने लेख में एक अमरीकी देहात का वर्णन किया था, जिसे पढ़कर प्रेमचन्द ने हैरानी व्यक्त की कि ‘दो हजार का मौजा और हाईस्कूल ! उसकी इमारत, उसके पुस्तकालय और उसकी लेबोरेटरी पर हिन्दुस्तान का कोई भी कालेज गर्व कर सकता है।’ इसके बरक्स प्रेमचन्द ने भारत की आरम्भिक }िाक्षा का जो खाका खींचा, वह इस तरह है:
‘अब एक तरफ तो इस देहाती मदरसे को देखिए और दूसरी तरफ एक हिन्दुस्तानी देहाती मदरसे का खयाल कीजिए। एक पेड़ के नीचे, जिसके इधर-उधर कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है और जहाँ शायद वर्षों से झाड़ू नहीं दी गई, एक फटे-पुराने टाट पर बीस-पच्चीस लड़के बैठे ऊँघ रहे हैं। सामने एक टूटी हुई कुर्सी और पुरानी मेज है। उस पर जनबा मास्टर साहब बैठे हुए हैं। लड़के झूम-झूमकर पहाड़े रट रहे हैं। शायद किसी के बदन पर साबित कुर्ता न होगा। धोती जाँघ के ऊपर तक बॅंधी हुई, टोपी मैली-कुवैली, शकलें भूखी, चेहरे बुझे हुए! यह आर्यावर्त का मदरसा है, जहाँ किसी जमाने में तक्षशिला और नालन्दा के विद्यापीठ थे। कितना फर्क है। हम तहजीब की दौड़ में दूसरी कौमों से कितना पीछे हैं, कि शायद वहाँ तक पहुँचने का हौसला भी नहीं कर सकते।’
आज इस इक्कीसवी सदी के भारत में भी कोई सरकारी कालेज इस लायक नहीं है कि उस पर गर्व किया जा सके। पुस्तकालय नहीं, प्रयोगशालाएँ नहीं, साफ-सफाई नहीं, शिक्षक भी पूरे नहीं, यहाँ तक कि अध्किांश की इमारतें भी खस्ताहाल हैं।
ईसाई बनाम हिन्दू सभ्यता
‘जमाना’ मार्च 1912 के अंक में प्रेमचन्द ने ‘हिन्दू सभ्यता और लोकहित’ शीर्षक से लेख लिखा, जिसमें ईसाईयों के इस प्रचार का खण्डन किया गया कि ‘अस्पताल, मदरसे, जानवरों के अस्पताल वगैरह ईसाई-सभ्यता के आने के बाद अस्तित्व में आए।’ प्रेमचन्द में ईसाइयों का विरोध एक तरह से राष्ट्रवादी चेतना के अन्तर्गत अॅंग्रेज-विरोध् की ही अभिव्यक्ति प्रतीत होती है। उन्होंने इस लेख में जोरदार तरीके से ईसाइयों से भी बढ़-चढ़कर हिन्दू राजाओं द्वारा किए गए लोकहित के कार्यों का वर्णन किया है, जिसमें अधिकतर उदाहरण सिलोन (सिंहलद्वीप) के राजाओं के दिए गए हैं। कुछ लोकहित का उल्लेख, उन्होंने, सम्राट अशोक के काल का भी दिखाया है। देशभक्ति गलत नहीं है, अपने देश और धर्म की बुराई शायद कोई देशभक्त सुनना पसन्द न करेगा, लेकिन अपने धर्म को न्याय और समानता की कसौटी पर कसकर न देखना भी एक स्वतन्त्र पत्रकारिता का लक्षण नहीं है। प्रेमचन्द ने यहाँ हिन्दूधर्म को समझने में गलती की है। वे लिखते हैं, ‘प्राचीन काल में हिन्दू कौम सामाजिक जीवन के ऊँचे शिखर पर पहुँची हुई थी।’ किस तरह? उन्होंने आगे लिखा: ‘हिन्दुओं की उदारता का स्रोत उनका धर्मिक विश्वास था। ईश्वर ने हम सबको पैदा किया, हम सब भाई हैं, हमारा कर्तव्य है कि अपनी शक्तिभर अपने भाई की सहायता करें-यह भावना और यह विश्वास था, जो हिन्दू कौम के दिलों में एक स्पष्ट जीता-जागता रूप लेकर उन्हें उदारता के अच्छे से अच्छे और ऊँचे से ऊँचे मानदण्ड की ओर ले जाता था। पश्चिमी कौमों के उदार प्रयत्नों में यह धर्मिक उत्साह शायद ही कहीं देखने को मिलता है।’
लेकिन सबको भाई मानने वाली यह हिन्दू कौम शूद्रों और अतिशूद्रों के प्रति किस कदर बर्बर और असभ्य थी, यह खयाल प्रेमचन्द को क्यों नहीं आया? क्या इस हिन्दू कौम ने एक बड़ी आबादी को शिक्षा और स्वतन्त्रता के अधिकारों से वंचित करके नहीं रखा था? क्या हिन्दू राजाओं के अस्पतालों, सरायों और तालाबों का लाभ शूद्रों और अछूतों को मिलता था? कोई एक उदाहरण तो प्रेमचन्द देते? क्या प्रेमचन्द ने ‘चन्नार-क्रान्ति’ का नाम नहीं सुना था? क्या वे नहीं जानते थे कि दक्षिण भारत के त्रावणकोर राज्य में नीची जाति की औरतों को अपने स्तन ढकने की इजाजत नहीं थी? एक दलित लड़की के स्तन निकलते ही उसके परिवार से ‘स्तन-टैक्स’ लिया जाता था। यह फ़रमान हिन्दू राजाओं का ही था। क्या प्रेमचन्द नहीं जानते थे कि हिन्दू कौम के इस बर्बर कृत्य को ईसाई मिशनरियों की सभ्यता ने ही खत्म कराया था, जिसकी वे निन्दा करते हैं?
एक अन्य लेख ‘पुराना जमाना: नया जमाना’ लेख में प्रेमचन्द ने पुराने जमाने की प्रशंसा और नए जमाने की निन्दा की है। पुराना जमाना रजशााही का है, और नया जमाना जनतन्त्र का है। वे लिखते हैं, पुराने जमाने में ‘वह व्यक्ति सभ्य था, जिसका आचार पवित्र हो। बड़े-बड़े राजा-महाराजा संन्यासियों को देखकर आदरपूर्वक खड़े हो जाते थे। उनका सम्मान करते थे और केवल औपचारिक या प्रदर्शनपूर्ण सम्मान नहीं, हृदय से उनकी चारित्रिक शुद्धता और आध्यात्मिकता को सिर झुकाते थे, उनसे अपनी भेंट होने को जीवन का एक बड़ा प्रसाद समझते थे।’ हैरानी होती है, यह सब प्रेमचन्द लिख रहे थे। सब जानते हैं कि भारत में आध्यात्मिक संन्यासियों के आश्रयदाता राजा-महाराजा ही थे, और आज भी उन्हें पालने-पोसने वाले राजनेता और सेठ ही हैं? सवाल यह नहीं है कि उनकी आध्यात्मिकता कितनी प्रखर थी, सवाल यह है कि उनकी आध्यात्मिकता का लाभ किसे मिलता था-आम आदमी को, या राजा-महाराजाओं को? वे आम जनता को भाग्यवाद और आत्मा-परमात्मा में उलझाकर किनकी सहायता करते थे, क्या यह प्रेमचन्द नहीं जानते थे? आखिर बुद्ध ने भी अंगुलीमाल को शान्त करके सामन्तशाही का ही भला किया था।
इसी लेख में प्रेमचन्द ज्ञान की उलटी धारा भी चलाते हैं। लिखते हैं: ‘पुरानी सभ्यता सर्वजन सुलभ, प्रजातांत्रिक थी। उसकी जो कसौटी धन और ऐश्वर्य की आँखों में थी, वही कसौटी साधरण और नीच लोगों की आँखों में भी थी। गरीबी और अमीरी के बीच उस समय कोई दीवार न थी।…पर आधुनिक सभ्यता ने विशेष और साधरण में, छोटे और बड़े में, धनवान और निर्धन में एक दीवार खड़ी कर दी है।’ क्या बात है! निर्धन को अगर अपनी निर्धनता का बोध् गलत अर्थ-व्यवस्था में हो गया, तो दीवार हो गई?
प्राचीन भारत के इतिहास का कौन अध्येता यह बात मानेगा कि हिन्दू सभ्यता का आधर स्वतन्त्राता और समानता था? अगर प्रेमचन्द राष्ट्रीयता की भावना से ऐसा कह रहे थे, तो समझा जा सकता है, क्योंकि यह भावना ब्रिटिश-दासता में स्वाभाविक थी?
आगे इसी लेख में प्रेमचन्द लिखते हैं: ‘प्राचीन युग को अंधकार-युग कहा जाता है, मगर उस अंधकार-युग में सैनिक-सेवा हर एक व्यक्ति की स्वेच्छा पर निर्भर थी। बादशाह किसी को जबर्दस्ती लड़ने पर मजबूर न कर सकता था।…..आप कुछ भी कहें वह अंधकार-युग था, गुलामी और बदहाली से घायल और दुखी। और यह जमाना…प्रकाशमान, रोशन। लेकिन अगर रोशनी का मतलब आत्मिक स्वतन्त्रता, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति है, तो वह अंधेरा युग इस रोशन जमाने से कहीं अध्कि प्रकाशवान था।’
प्रेमचन्द ने यह नहीं बताया कि किस बादशाह के जमाने में क्षत्रिय को छोड़कर कोई भी स्वेच्छा से सेना में भर्ती हो सकता था? यह सुविधा तो अँग्रेजों के समय में ही मिली, और दलित जातियों को तो पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी ने ही सेना में भर्ती किया था। प्रेमचन्द का यह कथन और भी समझ से ही परे है कि स्वतन्त्रता, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति की दृष्टि से अंधेरा युग अधिक प्रकाशवान था। कौन सी सामाजिक क्रान्ति हुई थी उस गुलामी और बदहाली से घायल अंधेरे युग में?
हालाँकि प्रेमचन्द जनतन्त्र का समर्थन भी करते हैं। लिखते हैं कि ‘इस नए जमाने में एक ऐसा रोशन पहलू भी है, जो उन काले दागों को किसी हद तक ढॅंक देता है और वह है बेजबानों की ताकत का जाहिर होना।….अब एक फाकाकश मजदूर भी अपनी अहमियत समझने लगा है और धन-दौलत की ड्योढ़ी पर सिर झुकाना पसन्द नहीं करता। उसे अपने कर्तव्य चाहे न मालूम हों, लेकिन अपने अधिकारों का पूरा ज्ञान है।’ वे आगे लिखते हैं: ‘वह भी अच्छे मकानों में रहना चाहता है, अच्छे खाने खाना चाहता है और मनोरंजन के लिए अवकाश की माँग करता है। वह पूँजी का दुश्मन है, व्यक्तिगत सम्पत्ति की जड़ खोदने वाला और व्यापारियों का हत्यारा।’ आगे प्रेमचन्द और भी सही बात कहते हैं: ‘सबकी एकता उसके जेहाद का नारा है। वह ऊँच-नीच को मिटाकर सारी जमीन को समतल बनाने की कोशिश करता है। वह ऐसी राज्य-व्यवस्था स्थापित करना चाहता है, जो धनोपार्जन के समस्त साधन अपने हाथ में रक्खे और हर व्यक्ति को उसकी मेहनत और योग्यता के अनुसार बराबर बाँटे। वह जमींदार को एक गंदी और बेकार चीज समझता है और उसकी सम्पत्ति को उनके कब्जे से निकालकर जनता के कब्जे में रखना चाहता है। संक्षेप में वह सारी सम्पत्तियों, कारखानों, रेलों, जहाजों पर एक विशेष व्यवस्था के द्वारा जनता के अधिकार की माँग करता है और कौन कह सकता है कि यह काम बेहद मुश्किल नहीं है।’
लेकिन प्रेमचन्द को आशंका भी है: ‘पूँजी उसे अपने काबू में रखने के लिए कुछ और रिआयतें करेगी, कुछ बल खायेगी, कुछ नाज उठायेगी, उससे लड़ाई करके अपनी हस्ती खतरे में न डालेगी।’ वे यह भी कहते हैं: ‘नए जमाने के इस सबसे ताजा पहलू ने यूरोप और अमेरिका वगैरह देशों में शूद्रों का खात्मा कर दिया है। अब वहाँ कोई ऐसा नहीं, जिसके छूने से ब्राह्मणों का अस्तित्व कलंकित हो जाए, कोई ऐसा नहीं, जो क्षत्रियों के अत्याचार की फरियाद करे, जो वैश्यों के स्वर्ण-सिंहासन को ढोने वाला बने।’ लेकिन वे यह घोषणा भी करते हैं: ‘मगर यह खयाल करना कि जनतन्त्र का यह नया पहलू अपनी भौगोलिक परिधि से बाहर निकलकर निर्बलों और अनाथों की हिमायत करेगा या पूँजीपति ‘राष्ट्र’ की बनिस्बत ‘अराष्ट्रों’ के साथ ज्यादा इंसानियत और हमदर्दी का बर्ताव करेगा, शायद गलत साबित हो।….बहुत सम्भव है कि ‘अराष्ट्रों’ पर इस जनतन्त्र का अत्याचार पूँजीपतियों से कहीं अधिक घातक सिद्ध हो।’
असल में प्रेमचन्द ने यह टिप्पणी प्रेसीडेंट बिल्सन के ‘राष्ट्र-संघ’ के प्रस्ताव के सन्दर्भ में की थी, जिसमें उन राष्ट्रों को शामिल किया जाना था, जिन्होंने जनतन्त्र का स्थान प्राप्त कर लिया था। प्रेमचन्द का मत था कि जिस संघ में आस्ट्रिया और जर्मनी जैसे राष्ट्र शामिल होने लायक नहीं थे, क्योंकि वहाँ की विशाल जनता थोड़े से लोगों के नियन्त्राण में थी, तो हिन्दुस्तान किस मुँह से इस संघ में शरीक होने की माँग का सकता था, जबकि यहाँ की जनता हमेशा से जमीन्दारों और सामन्तों के नियन्त्राण में रहकर बेजान बन चुकी है। अगर भारत की जनता जमीन्दारों और सामन्तों के चुगंल से मुक्त नहीं होगी, तो स्वराज्य या जनतन्त्र का क्या महत्व है?
प्रेमचन्द ने इस स्थिति के लिए सरकार को नहीं, बल्कि स्वराज्य के नेताओं को जिम्मेदार माना। उनके अनुसार वे उसी शोषक वर्ग से आते थे, जिनसे जनता को मुक्त होना था। उन्होंने बहुत ही सही बात कही: ‘आप स्वराज्य की हाँक लगाइए, सेल्पफ गवर्नमेंट की माँग कीजिए, कौंसिलों को विस्तार देने की माँग कीजिए, उपाधियों के लिए हाथ फैलाइए, जनता को इन चीजों से कोई मतलब नहीं। वह आपकी माँगों में शरीक नहीं हैं, बल्कि अगर कोई अलौकिक शक्ति उसे मुखर बना सके, तो वह आज जोरदार आवाज में, शंख बजाकर आपकी इन माँगों का विरोध् करेगी। कोई कारण नहीं है कि वह दूसरे देश के हाकिमों के मुकाबले में आपकी हुकूमत को ज्यादा पसन्द करे। जो रैयत अपने अत्याचारी और लालची जमीन्दार के मुँह में दबी हुई है, जिन अधिकार-सम्पन्न लोगों के अत्याचार और बेगार से उसका हृदय छलनी हो रहा है, उनको हाकिम के रूप में देखने की कोई इच्छा उसे नहीं हो सकती।’
प्रेमचन्द ने यहाँ स्वराज्यवादियों और जनता के बीच के अन्तर को जिस शिद्दत से रेखाँकित किया है, उसने डा. आंबेडकर के उन सवालों को सही साबित कर दिया है, जो उन्होंने स्वराज्यवादियों से पूछे थे: ‘जब आप अपने ही देशवासियों के एक बड़े हिस्से को, जैसे अछूतों को, सरकारी स्कूलों में पढ़ने नहीं देते, तो क्या तब भी आप राजनीतिक सत्ता पाने की योग्यता रखते हैं? जब आप उन्हें सार्वजनिक कुओं से पानी नहीं लेने देते, तो क्या तब भी आप राजनीतिक सत्ता पाने की योग्यता रखते हैं? जब आप उन्हें उनकी इच्छानुसार कपड़े और गहने नहीं पहनने देते, तो क्या तब भी आप राजनीतिक सत्ता पाने की योग्यता रखते हैं? जब आप उन्हें उनकी मर्जी के अनुसार खाना खाने नहीं देते, तो क्या तब भी आप राजनीतिक सत्ता पाने की योग्यता रखते हैं? मैं ऐसे सवालों की झड़ी लगा सकता हूँ, पर इतने ही काफी हैं।’
प्रेमचन्द ने उन लोगों से पूछा था, जो पढ़े लिखे जमीन्दार हैं, जो वकील और जमीन्दार दोनों हैं: ‘इसकी क्या जमानत है कि आपके पंजे में आकर उनकी हालत और भी बुरी न हो जायेगी? आपने अब तक इसका कोई सबूत नहीं दिया कि आप उनकी भलाई चाहने वाले हैं। अगर कोई सबूत दिया है तो उनकी बुराई चाहने का, स्वार्थ का, लोभ का, कमीनेपन का।’ आंबेडकर ने ठीक यही सवाल उठाया था कि क्या भारत से अॅंग्रेजों के चले जाने के बाद, जमीन्दार, मिल-मालिक और साहूकार भी खत्म हो जायेंगे? अगर देश की शासन सत्ता इन्हीं जमीन्दारों, पूँजीपतियों और ब्राह्मणों के हाथों में आई, तो क्या दलितों और मजदूरों के प्रति उनका व्यवहार बदल जायेगा?
अन्त में प्रेमचन्द भविष्यवाणी करते हैं: ‘आनेवाला जमाना अब किसानों और मजदूरों का है। दुनिया की रफ़्तार इसका साफ सबूत दे रही है। हिन्दुस्तान इस हवा से बेअसर नहीं रह सकता।…जल्द या देर से, शायद जल्द ही, हम जनता को केवल मुखर ही नहीं, अपने अध्किारों की माँग करनेवाले के रूप में देखेंगे और तब वह आपकी किस्मतों की मालिक होगी। जनता की इस ठहरी हुई हालत से धेखे में न आइए, इंकलाब के बाद कौन जानता था कि रूस की पीड़ित जनता में इतनी ताकत छिपी हुई है? हार के पहले कौन जानता था कि जर्मनी का एकछत्र स्वेच्छाचारी शासन जनता के ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है? निकट भविष्य में हिन्दुस्तान के लाखों मजदूर और कारीगर फ्रांस से वापस आयेंगे, लाखों सिपाही लड़ाई के बाद अपने-अपने घर लौटेंगे। क्या आप समझते हैं कि उन पर उन आजाद देशों की आबोहवा का कुछ भी असर न होगा?’
लेकिन प्रेमचन्द की भविष्यवाणी गलत साबित हुई और आंबेडकर की आशंका सही साबित हुई। अँग्रेज़ भारत से गए, पर देश की शासन-सत्ता कांग्रेस के स्वराज्यवादियों-जमीन्दारों, सामन्तों, पूँजीपतियों और ब्राह्मणों को सौंपकर। कहने को एक भरी-पूरी कम्युनिस्ट पार्टी थी, पर उसका नेतृत्व भी ब्राह्मणों के हाथों में था। उन्होंने जमीन्दारों, सामन्तों, पूँजीपतियों और ब्राह्मणवाद के खिलाफ न कोई चेतना पैदा की, और न जनता को लामबन्द किया। भारत में, यद्यपि, जनतन्त्र कायम हुआ, पर वास्तव में उसमें जमीन्दारों, सामन्तों, पूँजीपतियों और ब्राह्मणों ने ही राज्य किया। दलित-मजदूर जनता उनके रहमोकरम पर रही, जो आज भी है। गाँधी ने रामराज्य का नारा दिया, और जमीन्दारों, सामन्तों, पूँजीपतियों तथा ब्राह्मणों ने उसी को जनतन्त्र का एजेण्डा बना दिया। इसी रामराज्य की बुनियाद पर आज बड़ी आसानी से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के जनविरोधी लोग हिन्दूराष्ट्र स्थापित कर शासन कर रहे हैं।
यह लेख सामाजिक प्रश्नों पर निरंतर सक्रिय चिंतक और प्रसिद्ध लेखक कँवल भारती की आने वाली पुस्तक का एक अंश है।