बिन सामाजिक लोकतंत्र बेमानी है राजनीतिक लोकतंत्र

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संजय श्रमण

बाबा साहब आंबेडकर के जन्म दिवस के अवसर पर भारत मे लोकतंत्र की कल्पना के बारे में कुछ गंभीर विचार किया जा सकता है। बीते एक दशक में लोकतंत्र का विचार और लोकतांत्रिक संस्थाओं की गरिमा का जिस तरीके से ह्रास हुआ है, उसे देखते हुए लोकतंत्र के विचार को अंबेडकर के नजरिए से समझने की आवश्यकता प्रगाढ़ होती जा रही है। यह आवश्यकता इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि लोकतंत्र की बात करने वाली पार्टियों में एवं विचारधाराओं में आंबेडकरवाद का झंडा लेकर चलने वाली पार्टियों का नजरिया और तरीका सबसे ज्यादा पीड़ित करने वाला नजर आता है।

पश्चिम में लोकतंत्र के आदर्श का जन्म शोषण और दमन की जिन परिस्थितियों के बीच हुआ, वे परिस्थितियां भारत की परिस्थितियों से बिल्कुल अलग थी। पश्चिम में जनता का जनता के लिए और जनता के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शासन के रूप में लोकतंत्र का जन्म होता है। वहां पर शोषण असमानता और दमन का जो आधार था वह बहुत हद तक विभिन्न धर्मों, विभिन्न आर्थिक स्थितियों, एथनिसिटी, भाषा और रेस पर आधारित था। एक मोटे अर्थ में यह बात पश्चिम में लोकतंत्र के विचार के जन्म के लिए अनिवार्य प्रष्ठभूमि का निर्माण करती है। पश्चिमी समाज में भेदभाव शोषण और दमन के जो आधार रहे हैं, वे सभी आधार भारत में भी पाए जाते हैं लेकिन एक अन्य आधार है जो कि दुनिया के किसी भी कोने में नहीं पाया जाता।

एक ही धर्म एक ही भाषा एक ही कर्मकांड एक ही शास्त्र और एक ही आर्थिक परिस्थिति में जीने वाले लोगों के बीच भी जाति के आधार पर जो भयानक भेदभाव है वह दुनिया के किसी भी कोने में आपको नजर नहीं आएगा। ऐसे में पश्चिमी समाज में जन्मा लोकतंत्र का विचार, भारत की परिस्थितियों में किस दृष्टि से और किस तरीके से लाया जाना चाहिए? इस बात पर विचार करते हुए बाबा साहब अंबेडकर ने बहुत जोर देकर राजनीतिक लोकतंत्र से आगे जाते हुए सामाजिक लोकतंत्र की आवश्यकता पर जोर दिया था। संविधान सभा के अपने प्रसिद्ध भाषण में उन्होंने जोर देकर कहा था कि संविधान के लागू होने के बाद हम ऐसी परिस्थिति में प्रवेश करेंगे जहां पर राजनैतिक रूप से एक व्यक्ति और एक वोट बराबर माने जाएंगे लेकिन सामाजिक रूप से उन व्यक्तियों के बीच में बहुत अधिक भेदभाव जारी रहेगा।

उन्होंने कहा था कि सच्चा लोकतंत्र तभी हासिल किया जा सकता है जबकि उसके पीछे सामाजिक लोकतंत्र स्थापित ना हो जाए। अगर समाज के रोजमर्रा के जीवन में एक व्यक्ति जन्म से ही श्रेष्ठ है और दूसरा व्यक्ति जन्म से ही नीच है तो ऐसे व्यक्तियों का विराट समझता है किसी भी रूप से एक स्वस्थ लोकतंत्र को ना तो जन्म दे सकता है और ना ही उसे संचालित कर सकता है। राजनीतिक लोकतंत्र के पीछे, उसकी पृष्ठभूमि या उसकी संचालिका शक्ति के रूप में सामाजिक लोकतंत्र की कल्पना एक ऐसा विचार है जिसके आईने में भारत की सभी राजनीतिक पार्टियों एवं विचारधाराओं का मूल्यांकन किया जा सकता है। इस मूल्यांकन के लिए स्वयं बाबासाहेब आंबेडकर को एक महत्वपूर्ण मानक की तरह देखा जा सकता है।

स्वयं बाबा साहब ने ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ और ‘शेड्यूल कास्ट फेडरेशन’ की स्थापना की थी। आरंभ से ही वे भारत के वंचित एवं दमित ओबीसी अनुसूचित जाति एवं जनजाति समुदाय को सामाजिक न्याय एवं सम्मान दिलाने की लड़ाई लड़ रहे थे। भारत की आजादी की लड़ाई के बीचो-बीच उन्होंने कई बार कहा था कि भारत के हिंदू अंग्रेजों के गुलाम है और भारत के शुद्र एवं अछूत लोग हिंदुओं के गुलाम है। इसलिए मैं गुलामों के भी गुलाम लोगों की आजादी की लड़ाई को सबसे पहले लड़ना चाहता हूं। उनके इस वक्तव्य में राजनीतिक लोकतंत्र से भी पहले सामाजिक लोकतंत्र की आवश्यकता बहुत जोरदार ढंग से अभिव्यक्त होती है। बाबा साहब ने अपने राजनीतिक कैरियर में बहुजनों की मुक्ति के लिए जितने भी प्रयोग  किए हैं उनमें अंतिम रूप से संविधान का निर्माण करने के बाद वे एक नए धर्म के निर्माण में प्रवेश करते हैं।

इस बात को ठीक से समझा और समझाया नहीं गया है। ज्यादातर बुद्धिजीवी एवं लेखक बाबासाहेब आंबेडकर को संविधान निर्माता दलितों के उद्धारक और ज्यादा से ज्यादा हिंदू समाज सुधारक के रूप में देखना और दिखाना पसंद करते हैं। लेकिन भारतीय समाज के सबसे वंचित तबके के लिए, समाज में समता बंधुत्व और न्याय की धारणा को समाज के स्तर पर साकार करने के लिए उनके प्रयासों को हमेशा ही नजरअंदाज किया गया है। बाबा साहब ने संविधान की रचना किस प्रकार की, चवादार सत्याग्रह या कलाराम मंदिर सत्याग्रह किस प्रकार किया, गोलमेज सम्मेलन में क्या-क्या कहा, गांधी से उनकी क्या-क्या असहमतिया थी इत्यादि पर बहुत आसानी से लिखा और पढ़ा जा सकता है।

लेकिन भारत में सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना करने के लिए उन्होंने संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में जो नए विचार एवं नई रचनाएं दी, उन रचनाओं के सृजन के दौर में उनकी वैचारिकी और उसके संगत दार्शनिक स्थापनाओं के बारे में बहुत कम लिखा गया है। भारत में बाबासाहेब आंबेडकर को जानने वाले और उनको प्रेम करने वाले लोगों के बीच में सामाजिक लोकतंत्र की दिशा में धर्म और संस्कृति के आयाम से काम करने वाले बाबा साहब को जानबूझकर छुपाया गया है। संविधान की प्रति सौंपते समय उन्होंने अपनी पीड़ा को जिस तरीके से व्यक्त किया है, उसमें साफ नजर आता है कि वह स्वयं अपने ही बनाए हुए संविधान से संतुष्ट नहीं है। संविधान निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका निभाते हुए वे यह देख पा रहे थे कि आजादी के बाद अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर रहा भारत का समाज यूरोप की आधुनिकता और लोकतंत्र की शिक्षाओं को जिस तरह अपना लेना चाहता है वह वास्तव में इतनी आसानी से संभव नहीं है।

बाबा साहब बहुत अच्छे से देख पा रहे थे कि लोकतंत्र और आधुनिकता का यूरोपीय विचार भारत के वर्णाश्रम धर्म की मानसिकता में डूबे हुए नेताओं एवं समाज के ठेकेदारों के सामने ज्यादा दिन नहीं टिक पाएगा। सामाजिक लोकतंत्र की आवश्यकता पर जोर देते हुए न सिर्फ संविधान-सभा में उन्होंने एक पुकार लगाई थी बल्कि संवैधानिक संस्थाओं के बाहर जाकर समाज में भी उन्होंने समाज में क्षमता का निर्माण करने के लिए सबसे कठिन चुनौती का सामना करने का निर्णय लिया था। भारत जैसे रूढ़िवादी एवं धर्मभीरु समाज में प्राचीन वर्णाश्रम धर्म के शोषण से मुक्ति पाने के लिए एक नया धर्म और नए धर्मशास्त्र का निर्माण करना सबसे बड़ी चुनौती का काम है। इसीलिए बाबा साहब आपने कमजोर होते शरीर और सिकुड़ते जा रहे जीवन का एक-एक क्षण नवयान बौद्ध धर्म के निर्माण में लगा देते हैं।

हमें उनके जीवन के इस अंतिम निर्णय को सामाजिक लोकतंत्र एवं सामाजिक समानता के निर्माण के अंतिम प्रयास के रूप में देखना चाहिए। संविधान का निर्माण करते हुए, संवैधानिक नैतिकता एवं संविधानवाद जैसे धारणाओं पर जटिल विचार विमर्श करते हुए वे यह देख पा रहे थे कि वर्णाश्रम धर्म के संस्कारों में पले हुए उनके अपने उच्च शिक्षित सवर्ण हिंदू मित्र जाति व्यवस्था एवं अस्पृश्यता सहित महिलाओं के अधिकार के मुद्दे पर एकदम अनपढ़ों और ग्रामीणों जैसी बातें करते हैं। उनके कई मित्र जो उनके साथ संविधान निर्मात्री सभा में मौजूद थे, वे विदेशों में उच्च शिक्षा के पाने के बावजूद वर्ण एवं जाति व्यवस्था सहित पितृसत्ता की व्यवस्था के पक्ष में नजर आते थे। इसीलिए भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए जिस तरीके की अधिक एवं अवसरों का विसर्जन करना चाहते थे वैसा करने में  बाबा साहब को बहुत परेशानियां महसूस हो रही थी।

भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में उन्होंने इस सवर्ण मानसिकता को बहुत ही एवं हिंसक ढंग से काम करते हुए देखा था। हिंदू कोड बिल की रचना करते हुए हिंदू महिलाओं के संपत्ति एवं विवाह एवं तलाक के अधिकार पर कई दिनों की चर्चा एवं विचार विमर्श के बावजूद उन्हें सबसे बड़ी चुनौती जिन लोगों ने दी वे वही लोग थे जो कि उच्च शिक्षित एवं आधुनिक कहे जाते थे। भारत के धर्मगुरुओं एवं धार्मिक संस्थाओं ने उनका जो विरोध किया उसे एक तरफ रख दें, तो सबसे ज्यादा दुख इस बात का होता है कि अपनी ही स्त्रियों माताओं एवं बहनों के अधिकार के लिए भारत के सवर्ण हिंदुओं ने बाबा साहब की प्रगतिशील प्रस्तावनाओं का सबसे ज्यादा विरोध किया। इस बात से बाबा साहब इतने परेशान हो गए थे कि उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था।

वैसे भी वे कानून मंत्री के पद से बहुत ज्यादा संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने बहुत ही साफ ढंग से कई बार यह जाहिर कर दिया था कि चूंकि वे मूलतः एक अर्थशास्त्री हैं इसलिए प्लानिंग कमीशन में योजना निर्माण हेतु काम करना चाहते हैं।संविधान निर्माण एवं संविधान सौंपने के बाद या इसके दौरान भी इन सारे अनुभवों से गुजरते हुए बाबा साहब  भारत में राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता के संभावनाओं के प्रति आश्वस्त नहीं थे। इसीलिए उन्होंने सीधे सीधे समाज में एक नई किस्म की धार्मिक एवं सामाजिक नैतिक विकास करने के लिए भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के लिए एक नये धर्म एवं धर्मशास्त्र का निर्माण किया।

यूरोपीय आधुनिकता में जन्मे लोकतंत्र एवं संवैधानिक नैतिकता के विचार को भारत में कितना स्थान एवं कितना महत्व मिल पाएगा, इस बात को बहुत अच्छे से जानते थे। वे यह बात भी समझते थे कि भारत में जो लोकतंत्र और आधुनिकता आई है वह भारत के अपने देशज संघर्ष से नहीं आई है, बल्कि यह अंग्रेज़ों द्वारा थोपी गई है। ऐसे में जिस समाज ने अपनी जमीन पर सभ्यता, नैतिकता, विज्ञान और लोकतंत्र की लड़ाई ना लड़ी हो वह संविधान और संवैधानिक नैतिकता का कितना सम्मान कर पाएगा यह उन अच्छे से पता था। इसीलिए उन्होंने संविधान का निर्माण करने के बाद समाज में नैतिकता और सभ्यता को जन्म देने के लिए एक नया धर्म का और धर्मशास्त्र का निर्माण किया।

लोकतंत्र की अच्छाइयों या बुराइयों पर विचार करते हुए हम संसद कार्यपालिका न्यायपालिका और खबर पालिका की अच्छाइयों और बुराइयों पर विचार करते रहते हैं। ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों का मूल्यांकन भी हम इसी दृष्टि से करते हैं। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि राजनीतिक लोकतंत्र की इन असफलताओं के मूलभूत कारण के रूप में सामाजिक लोकतंत्र की अनुपस्थिति को कभी भी जोरदार ढंग से रेखांकित नहीं किया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीतिक लोकतंत्र की सारी बीमारियों की जड़ सामाजिक लोकतंत्र की अनुपस्थिति या अभाव मे छुपी हुई है। इस बात को योग्य मंचों से अक्सर ही रेखांकित करने में कंजूसी बरती जाती है।


संजय श्रमण जोठे एक स्वतन्त्र लेखक एवं शोधकर्ता हैं। मूलतः ये मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। इंग्लैंड की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन मे स्नातकोत्तर करने के बाद ये भारत के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं। बीते 15 वर्षों मे विभिन्न शासकीयगैर शासकीय संस्थाओंविश्वविद्यालयों एवं कंसल्टेंसी एजेंसियों के माध्यम से सामाजिक विकास के मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। इसी के साथ भारत मे ओबीसीअनुसूचित जाति और जनजातियों के धार्मिकसामाजिक और राजनीतिक अधिकार के मुद्दों पर रिसर्च आधारित लेखन मे सक्रिय हैं। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब वर्ष 2015 मे प्रकाशित हुई है और आजकल विभिन्न पत्र पत्रिकाओं मे नवयान बौद्ध धर्म सहित बहुजन समाज की मुक्ति से जुड़े अन्य मुद्दों पर निरंतर लिख रहे हैं।