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अमर सिंह भी मर ही गए ! इसे किसी संवेदनहीन और रूखी टिप्पणी की तरह मत देखिए। धरती पर ‘अमर‘ कोई नहीं है, नाम भले ही अमर हो। अब सौ टके का सवाल ये है कि, भारतीय राजनीति के इतिहास में उनकी सीट ‘अमर‘ रहेगी या नहीं ?
उनकी सक्रियता के सालों को मुड़ कर देखें, जिन भी वजहों से उन्हें याद करें….वो विवादों के केन्द्र में ही दिखते हैं। सफेदपोश सियासत के एरीना में वो कुछ यूं ऐलानिया खड़े थे जैसे कह रहे हों- मुझे दाग़ अच्छे लगते हैं। अमर सिंह खुद की तारीफ़ में कहते थे-मैं कारोबारी हूं और सियासत में हूं।
परोक्षत: ये सियासत के कारोबार हो जाने का खुला स्वीकार था। इस अर्थ में अमर सिंह व्यक्ति नहीं एक प्रवृत्ति थे।
लटियन दिल्ली में खामोशी से ‘स्वेट इक्विटी’ लेकर ‘फैसिलिटेटर’ का रोल अदा करने वालों से अमर सिंह अलग थे। आप उन्हें स्वीकारें या न स्वीकारें, नकार नहीं सकते थे। अमर सिंह आए कांग्रेस के रास्ते थे, यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह और माधव राव सिंधिया उनके पॉलिटिकल मेन्टॉर थे, मगर अमर ने जगह बनायी समाजवादी पार्टी के जरिए। मुलायम के करीब आकर वो मुलायमवादी हो गए और पार्टी ‘अमरवादी‘।
याद आता है 2003 का वो साल। दिल्ली में मेरी टीवी रिपोर्टिंग की शुरुआत थी। बीट थी समाजवादी पार्टी और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड। संपादक थे, कमर वहीद नकवी। एक स्टोरी असाइन हुई थी। समाजवादी पार्टी की बाइट लेने मैं जनेश्वर मिश्रा के निवास पर पहुंचा। छोटे शहर से आए युवा पत्रकार के लिए ‘लोहिया के लोग‘ समाजवाद की प्रतिमूर्ति थे। मगर जब बाइट लेकर न्यूजरूम पहुंचा और नकवी जी को पता चला कि समाजवादी पार्टी से जनेश्वर की बाइट है तो वो झल्ला पड़े।
– जनेश्वर की बाइट क्यों ? वो क्या हैं !
– सर उन्हें छोटे लोहिया कहा जाता है….पार्टी के बड़े स्तंभ हैं…
– ठीक है…तो पूछिए इस न्यूजरूम में कितने लोग लोहिया को जानते हैं…छोटे लोहिया की बात बाद में करेंगे…
मैं खामोश हो गया…नकवी जी ने स्टोरी तब तक के लिए रुकवा दी, जब तक सही बाइट नहीं आती।
थोड़े शांत हुए तो बोले…..”अमर सिंह की बाइट ट्राई करिए, समझा करिए कि किस आदमी की अहमियत क्या है ? जिसका बोलना पार्टी लाइन हो वही बाइट मैटर करती है।”
नकवी जी की बात उस दिन मान तो ली , मगर समझ आयी बड़े अभ्यास के बाद।
बहरहाल अमर सिंह से पहली मुलाकात ग्रेटर कैलाश वाले उनके घर कम दफ्तर पर हुई। ग्रेटर कैलाश पर स्वागत उनकी दो बहुत खूबसूरत महिला सहायिकाएं करतीं थीं। एक का यास्मीन नाम मुझे आज भी याद है। मगर उससे ज्यादा आज भी जो चीज़ याद आती है वो उनकी पहली बाइट। कैमरा सेट होते ही अमर सिंह खुद बोले – रोलिंग !!
आम तौर पर ये एक तकनीकी कोड है जो कैमरा मैन रिपोर्टर को देता है और रिपोर्टर अपना सवाल पूछता है। मगर अमर सिंह इतने अभ्यस्त थे कि ये तकनीकी बारीकियां खुद जानने लगे थे।
उसके बाद नॉर्थ एवेन्यू वाले उनके फ्लैट पर मुलाक़ात हुई । मैं बाइट के लिए उनका इंतजा़र कर रहा था, उन्होने जया प्रदा के साथ एंट्री ली। मुझे याद है अमर सिंह बंद गले में थे और जयाप्रदा गुलाबी सूट में, उनकी बिंदी भी गुलाबी थी। जया को अंदर बिठा कर अमर सिंह बाहर आए और मुझसे बात की। उसी बातचीत में मुझे अहसास हो चुका था कि अमर सिंह खूब बातूनी हैं, यादाश्त गहरी है, और सियासत की अन्दर से कुछ और बाहर से कुछ और वाली संस्कृति के बरखिलाफ़ हैं।
जल्द ही उनसे एक और मुलाक़ात नोएडा फिल्म सिटी में हुई। वहां तब तक केवल एक ज़ी न्यूज़ का नेटवर्क था, टी सिरीज का कैम्पस था या फिर मारवाह का इंस्टीट्यूट। बाकी कुछ स्टूडियो थे या प्लॉट थे जिन पर शादियों के रिसेप्शन वगैरह भी होते थे। जिस प्लॉट पर आज इंडिया टुडे ग्रुप का बड़ा सा मुख्यालय है वो तब यश चोपड़ा का था (ऐसा बताया जाता है)। उसी प्लॉट पर अशोक चतुर्वेदी वाले यूफ्लेक्स इंडस्ट्रीज़ के एक बड़े अधिकारी सरदार ए पी सिंह के बेटे की शादी का रिसेप्शन था। ए पी सिंह का हमारे नन्दू भैया यानि रविशंकर खरे (भारतेंदु नाट्य अकादमी लखनऊ के वर्तमान अध्यक्ष) से पुराना दोस्ताना था। उस रिसेप्शन में नन्दू भैया मुझे भी लेकर गए थे। अमर सिंह उस पार्टी में मेहमान-ए-खुसूसी थे।
अचानक नन्दू भैया और अमर सिंह का आमना-सामना हुआ। अमर सिंह के हाथ में शिवाज़ रीगल का ग्लास था। नन्दू भैया ने उनसे हाथ मिलाया, अमर सिंह कुछ भट-भटाए। नन्दू भैया ने कहा…शायद आपको याद हो लालगंज (आज़मगढ़) के होटल में मुलाकात हुई थी। आप रामधन जी से मिलने आए थे। अमर सिंह को शायद याद आ गया….बोले हां..हां..हां….। दोनों के चेहरे पर ‘….रौशन होता बजाज’ वाली मुस्कान खिल आयी थी।
बाद में नन्दू भैया ने ही बताया कि अमर सिंह चुनाव लड़ रहे रामधन को पैसा पहुंचाने गए थे। ये साल 1989 था जब राजीव गांधी के खिलाफ़ जनता दल खड़ा हुआ। जिन्हें याद न हो उन्हें बता दें कि रामधन, कांग्रेस के चन्द्रशेखर वाले उसी ‘युवा तुर्क गुट’ का हिस्सा थे जिसमें कृष्ण कांत और मोहन धारिया जैसे लोग भी शामिल थे।
इंदिरा के विरोध ने रामधन को भी इमरजेंसी वाली रात जेल पहुंचाया और बाद में जनता पार्टी। बहरहाल. 1989 में रामधन लालगंज से चुनाव जीत गए थे।
इस वाकये को बताने का मकसद सिर्फ इतना था कि प्रधानमंत्री अगर अपनी श्रद्धांजलि में कहते हैं कि हर पार्टी में अमर सिंह के करीबी थे, तो यूं ही नहीं कहते। कांग्रेस के करीब होकर भी वो रामधन की जीत का प्रॉस्पेक्ट समझ रहे थे। समाजवादी पार्टी में आकर तो उन्होने इसे बतौर कला ही साध लिया था, या कहें तो उनकी ये कला खूब निखर कर आयी।
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘पपलू फिट कर दिया’ एक दौर में उनका प्रिय जुमला था। पपलू फिट करने की राजनीति करते-करते उन्होने लखनऊ-दिल्ली से लेकर मायानगरी मुंबई तक का एक बड़ा लम्बा वक्फ़ा गुज़ार दिया।
अमर खुद को मुलायमवादी कहते थे, मुलायम के लिए लोहिया सिर्फ एक ब्रांड रहे, जनेश्वर सिर्फ एक मैस्क़ॉट (शुभंकर)। मुलायम के पास बड़ा विज़न नहीं था। मगर पिछड़ों और किसानों के बीच धरतीपुत्र बन जाने लायक ‘रस्टिक’ वो हमेशा बने रहे। अपेक्षा और उपेक्षा में संतुलन साधना वो जानते हैं। अमर इस मामले में अतिरेकी रहे।
अंतिम दिनों में अमर सिंह का अकेलापन इसी का नतीजा था। बच्चन परिवार से उनका बिगाड़ किसी ईमान के चलते नहीं था, बेहद निजी था। अपने बड़बोलेपन में वो इस्तेमाल होते चले गए, जाते-जाते इसका अहसास उन्हें हुआ था, जिसके लिए उन्होने अमिताभ बच्चन से ‘वीडियो माफी’ भी मांगी।
दरअसल ‘पपलू फिट’ करते–करते उन्हें पता ही नहीं चला कि एक वक्त के बाद कब वो खुद पपलू हो गए। इतने जग जाहिर कि जाहिर तौर पर उनसे करीबी लोगों के लिए मुश्किल पैदा करने वाली हो गयी। इसका मलाल था उन्हें, खास तौर पर ‘कैश फ़ॉर वोट’ कांड में फंसने के बाद हुआ। तिहाड़ जाने के बाद, उनसे कोई मिलने तक नहीं आया।
समाजवादी परिवार सियासी लिहाज़ से उनके लिए सबसे मुफीद था, क्योंकि वो इलीट नहीं था। मगर हर परिवार में एक सीमा के भीतर लहू बोलता है, बच्चन हों या मुलायम। अमर सिंह अक्सर ये भूल जाते थे और आहत होते थे।
अमर के लिए परिवार तलाशने और बनने की आतुरता भी रहती थी। शायद इसकी वजह खुद के खानदान से उनकी खलिश रही हो। कोलकाता के दिनों में ही उनकी अपने पिता से दूरी बन गयी थी, जिसका जिक्र वो करते भी थे। सगे भाई ने तो उनके खिलाफ़ बोलकर ही ‘फाइव मिनट्स फेम’ अर्जित की।
समाजवादी परिवार से ड्रॉप आउट होकर वो बाद में कांग्रेस के हाथों पपलू बने। प्रशांत भूषण परिवार के लिए उनकी ड्रामेबाज़ी वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस याद करिए। पपलू वो बीजेपी के हाथ भी बने, लखनऊ में उद्यमियों के आयोजन में प्रधानमंत्री ने उनका नाम लेकर कहा “अमर सिंह यहां बैठे हैं सबके बारे में जानते हैं…”। अमर सिंह वहां गेरुआ पहन कर बैठे थे, मुस्कराते रहे।
फीलर्स हर जगह से आते रहे…मगर निमंत्रण कहीं से नहीं आया !
मेरे शहर गोरखपुर में लिटरेरी फेस्टिवल था। अमर सिंह मेहमान थे। मेरा ये उनसे आखिरी ‘एनकाउंटर’ है। योगी आदित्यनाथ के शहर में उन्होंने समाजवादी पार्टी के संदर्भ में कहा कि
“अब तक मैं दैत्यों की सभा में (गुरु) शुक्राचार्य था…”
मेरी बारी आयी तो मैने पूछा- “अब आप देवताओं की सभा के बृहस्पति कब बन रहे हैं ? 2019 में आपकी भूमिका क्या रहने वाली है?“
अमर सिंह ने जवाब दिया तो जरूर, मगर उनके पास कोई जवाब दरअसल था नहीं ! अब तो खैर वो दुनिया की सभा से ही उठ गए हैं तो क्या कहना- क्या सुनना!
(राजशेखर त्रिपाठी इंडिया टीवी में डिप्टी एक्जीक्यूटिव एडिटर हैं। ये सामग्री उनके ट्विटर अकाउंट से उठायी गयी है)