बीजेपी-कांग्रेस को एक बता कर समाजवादी आंदोलन की ग़लती दोहरा रहे हैं अखिलेश


अगर ये सिर्फ़ चुनावी बिसात को बचाने का एक दाँव है तो उन्हें महान समाजवादी नेता मधु लिमये की चेतावनी को याद करना चाहिए। जब ग़ैरकांग्रेसवाद के नाम पर डॉ.लोहिया जनसंघ को साथ लेने का प्रयास कर रहे थे तो मधु लिमये ने इसका प्रखर विरोध किया था। उन्होंने इसके दुष्परिणाम के बारे में चेताया था। तब डॉ.लोहिया ने ख़ुद को उनका नेता बताते हुए एक ‘ट्रायल’ कर लेने की दलील दी थी। वह ट्रायल देश पर कितना भारी पड़ा, इसे समझना मुश्किल नहीं है।


डॉ. पंकज श्रीवास्तव डॉ. पंकज श्रीवास्तव
ओप-एड Published On :


ऐसे समय जब देश के तमाम विपक्षी दल मोदी सरकार के एकाधिकारवादी रवैये को लोकतंत्र के लिए ख़तरा मानते हुए कोई रास्ता खोज रहे हैं, समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने ‘बीजेपी और कांग्रेस को एक’ बताकर हैरान कर दिया है। सवाल उठता है कि यूपी में 2017 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ चुके अखिलेश यादव अपने इस बयान को लेकर वाक़ई गंभीर हैं? या फिर भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस के पक्ष में बन रहा माहौल उनके अंदर असुरक्षा भाव भर रहा है?

साठ के दशक में समाजवादी पुरोधा डा.राममनोहर लोहिया ने ‘ग़ैर-कांग्रेसवाद’ का सिद्धांत देते हुए ‘कांग्रेस को हराने के लिए शैतान से भी हाथ मिलाने’ की वक़ालत की थी। इसी क्रम में वे जनसंघ को भी साथ लेने को तैयार हो गये थे। नतीजा ये हुआ कि 1967 में कई राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं। ये सरकारें तो ज़्यादा दिन नहीं चलीं लेकिन इस प्रयोग ने ‘महात्मा गाँधी की हत्या कराने वाला संगठन’ होने के आरोप की वजह से हाशिये पर जाने को मजबूर हुए आरएसएस और जनसंघ को नये सिरे से वैधता प्रदान की। आगे चलकर 1977 और 1989 में कांग्रेस को हराने के नाम पर बने गठबंधनों में भी इन्हें अच्छी-ख़ासी हिस्सेदारी दी गयी और आखिरकार ये देश की सत्ता पर क़ाबिज़ हो गये।

बहरहाल, आज की स्थिति बिल्कुल उलट है। आज देश को अगर निरंकुशता का कोई ख़तरा है तो वह बीजेपी से है। मोदी सरकार जिस तरह से लोकतंत्र को अर्थ देने वाली संवैधानिक संस्थाओं को पंगु करती जा रही है, वैसे में स्वाभाविक है कि संविधान पर विश्वास करने वाले दल एकजुट हों। इस प्रयास को सफल बनाने की ज़िम्मेदारी जितनी कांग्रेस पर है, उतनी ही समाजवादी पार्टी पर भी है। भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के सामने ऐसा गंभीर ख़तरा पहले कभी नहीं था। इसे पहचानने में चूक करना राजनीतिक दलों को भारी पड़ सकता है।

अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के मुखिया हैं। उनसे यह अपेक्षा करना ग़लत नहीं है कि उनके बयान सुचिंतित होंगे। समाजवादी आंदोलन से उनका सुपरिचित होना भी स्वाभाविक है। लेकिन कांग्रेस को बीजेपी को समकक्ष बताने का उनका प्रयास इसे लेकर संदेह पैदा करता है।

आज़ादी के पहले सभी समाजवादी कांग्रेस समाजवादी दल (सीएसपी) बनाकर कांग्रेस में ही सक्रिय थे। पं.नेहरू और सुभाषचंद्र बोस ने मिलकर जिस तरह से कांग्रेस को समाजवादी मोड़ देने का प्रयास किया था उससे आज़ाद भारत के ‘समाजवादी’ होने पर कोई संदेह नहीं रह गया था। डॉ.लोहिया हों या जय प्रकाश नारायण, सभी पंडित नेहरू को अपना नेता और आदर्श मानते थे। आज़ादी के बाद जब दक्षिणपंथी धड़े ने दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया तो 1948 में समाजवादी कांग्रेस से बाहर आ गये और देश को तत्काल समाजवादी आदर्शों के अनुरूपन न बना पाने का आरोप लगाते हुए पं.नेहरू से मोर्चा लेने लगे। लेकिन चुनाव दर चुनाव लगातार हार का सामना करने से उपजी हताशा उन्हें उन गठबंधन प्रयोगों तक ले गयी जिसका सर्वाधिक लाभ आरएसएस और उसके संगठनों को मिला।

तो अखिलेश यादव जब कांग्रेस और बीजेपी के एक होने की बात कहते हैं तो वे किस दौर की बात करते हैं? आज़ादी के पहले कांग्रेस स्वतंत्रता संघर्ष का सबसे बड़ा मंच था जबकि आरएसएस इस लड़ाई से बाहर था, तो दोनों एक कैसे हुए? और आज़ादी के बाद की कांग्रेस का पूरा इतिहास आरएसएस और उसके षड़यंत्रों से जूझने का ही है। कांग्रेस ने आज़ादी के बाद जिस लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की स्थापना की वह आरएसएस के आदर्शों पर कुठाराघात की तरह था। यह संयोग नहीं कि आरएसएस ने संविधान से लेकर तिरंगे तक का विरोध किया जो स्वतंत्रता संघर्ष के मूल्यों पर आधारित थे। धर्मनिर्पेक्षता का सिद्धांत तो आरएसएस को ज़हर ही लगता रहा। हद तो ये है कि जिस आदर्श को लेकर देश मे समाजवादी आंदोलन की स्थापना हुई, वह ‘समाजवाद’ शब्द भी आरएसएस के निशाने पर रहा जबकि कांग्रेस के आवढ़ी अधिवेशन (1957) में ‘समाजवादी ढंग का समाज’ और भुवनेश्वर अधिवेशन (1964) में ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ का लक्ष्य स्वीकार किया गया था। बाद में संविधान की उद्देशिका में भी समाजवादी शब्द जोड़ा गया जो आज कल धर्मनिरपेक्षता की तरह ही बीजेपी के निशाने पर है।

अखिलेश यादव को उन नीतियों को स्पष्ट करना चाहिए जिनकी वजह से उन्होंने बीजेपी और कांग्रेस को एक बताया है। अगर ये सिर्फ़ चुनावी बिसात को बचाने का एक दाँव है तो उन्हें महान समाजवादी नेता मधु लिमये की चेतावनी को याद करना चाहिए। जब ग़ैरकांग्रेसवाद के नाम पर डॉ.लोहिया जनसंघ को साथ लेने का प्रयास कर रहे थे तो मधु लिमये ने इसका प्रखर विरोध किया था। उन्होंने इसके दुष्परिणाम के बारे में चेताया था। तब डॉ.लोहिया ने ख़ुद को उनका नेता बताते हुए एक ‘ट्रायल’ कर लेने की दलील दी थी। वह ट्रायल देश पर कितना भारी पड़ा, इसे समझना मुश्किल नहीं है।

आरएसएस के ख़तरे पर लिखे अपने मशहूर लेख में मधु लिमये ने लिखा है-“गोलवलकर एकात्मक प्रणाली यानी केंद्रानुगामी शासन चाहते हैं। वे कहते हैं कि ये राज्य वग़ैरह सब ख़त्म होने चाहिए। इनकी कल्पना है कि एक देश, एक राज्य, एक विधायिका और एक कार्यपालिका। यानी राज्यों के विधानमंडल, राज्यों के मंत्रिमंडल सब समाप्त। यानी ये लोग डंडे के बल पर अपनी राजनीति चलायेंगे। अगर डंडा (राजदंड) इनके हाथ में आ गया तो वे ये केंद्रानुगामी शासन स्थापित करके छोड़ेंगे।”

आज मोदी सरकार उसी डंडे के बल पर देश पर सर्वसत्तावादी केंद्रीय शासन की स्थपना मे जुटी है जिसमें राज्यों के अधिकार या विपक्ष की भूमिका बेमानी हो जाएगी। उसे पता है कि इसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा आज भी कांग्रेस है जो धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी लोकतांत्रिक गणराज्य भारत की शिल्पी ही नहीं, उसके लिए सतत संघर्ष करने वाली संस्था भी है। राहुल गाँधी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक जारी साढ़े तीन हज़ार किलोमीटर की पदयात्रा इसी संकल्प पर बल देने वाली तपस्या है।

यह संयोग नहीं कि पीएम मोदी ने शुरुआत में ही ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया था। बीजेपी और कांग्रेस एक हैं तो फिर ये नारा क्यों दिया गया? राहुल गाँधी के इस सवाल के जवाब देने के लिए अगर अखिलेश यादव गंभीरता से सोच-विचार करेंगे तो उन्हें अपने बयान में छिपा ख़तरा ख़ुद समझ में आ जाएगा।

 

यह लेख सत्य हिंदी में प्रकाशित हो चुका है। साभार प्रकाशित।