“सिविल अस्पताल लोगों के इलाज के लिए है लेकिन यहां की स्थितियां देख कर लगता है कि ये किसी कालकोठरी जैसा है या शायद ये अस्पताल उससे भी कहीं ज्यादा ख़राब स्थिति में है।”
जस्टिस जे.बी.पारदीवाला और जस्टिस आई.जे. वोरा की खंडपीठ ने जब ये टिप्पणी गुजरात सरकार पर की थी, तो सरकार की ओर से एडवोकेट जनरल ने एक भयानक तर्क देते हुए कहा था कि अगर सरकार सभी लोगों का कोविड परीक्षण करेगी, तो 70 फीसदी अहमदाबाद कोविड पीड़ित निकलेगा। हाईकोर्ट कई जनहित याचिकाओं और राज्य में कोरोनो को लेकर सरकारी सिस्टम की उपेक्षा पर फ़िक्र में उलझा था और राज्य सरकार द्वारा नकली वेंटिलेटर्स लगाने की ख़बरें थी, वेंटिलेटर्स में आग लगने की ख़बरें थी। ये गुजरात मॉडल का वो चेहरा था, जिसे पिछले 2 दशक से विज्ञापनों से ढंका जाता रहा है। इस मुद्दे को लगातार उठाने वाले अख़बार को आईटी सेल ने ट्रोल किया और एक बार फिर धीरे-धीरे गुजरात के आंकड़े छिपा लिए गए। हमने जब उस दौरान ये स्टोरीज़ की, तो खुद कोविड पीड़ितों के परिवारों ने हमको कैमरे पर आकर तो कभी बिना पहचान ज़ाहिर किए – ये बताया कि राज्य में टेस्ट जानबूझ कर नहीं किए जा रहे और आंकड़े छिपाए जा रहे हैं। गुजरात में उस समय देश में सर्वाधिक कोरोना मृत्यु दर थी। लेकिन धीरे-धीरे आंकड़े भी गायब होते गए और लापरवाही को लेकर ख़बरें भी। गुजरात फिर से मॉडल में लौट आया। पर क्या इस तरह की स्थिति में सच छिपा रह सकता है? दरअसल नहीं और अब एक बार फिर अहमदाबाद के आंकड़ों को छिपाना मुश्किल हो गया है, कोविड-19 की सेकेंड वेव के आते ही, अहमदाबाद के हालात इतने बिगड़ गए हैं कि शहर में सप्ताहांत में कर्फ्यू लगा दिया गया है। ताज़ा हालात की मानें तो अहमदाबाद के म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के अलावा बचे अस्पताल के बेड्स में से 91 फीसदी के लगभग बेड भर गए हैं और केवल 9 फीसदी यानी कि 213 बेड्स ही बचे हैं। ये मंगलवार का आंकड़ा है और बुधवार और गुरुवार के आंकड़ों में ही अहमदाबाद में कोविड 19 के 466 नए मरीज़ आ चुके हैं।
गुजरात में दरअसल हुआ क्या?
कोविड 19 के भारत में प्रकोप की शुरुआत ही लापरवाही, अंधविश्वास, सरकारी ढोंग और भ्रष्टाचार से होती है। पहले सरकार के मंत्री आधिकारिक तौर पर एलान कर देते हैं कि भारत में कोविड 19 कोई ख़तरा नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति की अगवानी में भीड़, सरकारी ख़ज़ाना और तंत्र झोंक देने के बाद भी गुजरात में कोविड की टेस्टिंग के आंकड़े डरावने तौर पर कम रहते हैं।
(देखें हमारी स्टोरी –कोरोना काल- गुजरात मॉडल के दरकते सपने के ख़ौफ़ में जीता अहमदाबाद) और अंततः राज्य की लापरवाही और जानबूझकर टेस्टिंग न करने को लेकर नागरिक ही अदालत के पास जाते हैं। अदालत कई और मामलों पर स्वतः संज्ञान लेकर, राज्य सरकार को तलब करती है और राज्य सरकार हाईकोर्ट के आदेश को किसी बच्चे की बात की तरह उपेक्षित कर देती है। कई लोग सामने आते हैं, जिनके टेस्ट बिना किए ही उनको आईसोलेट कर दिया गया। इस बीच सबसे दर्दनाक ख़बरें उन लोगों की आती हैं, जिनका टेस्ट – उनके निधन के बाद किया गया।
इसी दौरान सरकार कोविड परीक्षण की संख्या तो नहीं बढ़ाती, जबकि कोविड से लड़ने का सबसे अहम उपाय, अधिकतम टेस्ट्स ही थे – लेकिन सरकार द्वारा एक भाजपा की करीबी कंपनी से लिए गए वेंटिलेटर्स में गड़बड़ी सामने आ जाती है। ये कथित वेंटिलेटर्स बाक़ायदा प्रेस विज्ञप्ति, विज्ञापन, गाजे-बाजे के साथ, सबसे सस्ते स्वदेशी वेंटिलेटर्स होने का दावा कर के लगाए गए थे। लेकिन इनमें आग लगती है और सामने आता है ये सच कि ये वेंटिलेटर्स थे ही नहीं – बल्कि केवल एम्बु बैग्स थे, जिनकी नाकामी से लगातार लोगों की मौत हो रही थी। सरकार अपना पल्ला झाड़ कर निकल जाती है, बोल दिया जाता है कि ऐसा कुछ दावा ही नहीं था-जबकि सारे सुबूत मौजूद थे। सरकार कहती है कि ये वेंटिलेटर्स दान में दिए गए थे, कोई खरीदे थोड़ी गए थे। यानी कि दान के वेंटिलेटर्स से लोगों की जान चली जाए तो कोई अपराध नहीं है।
किसी ने न तो ये सोचा कि 1 लाख से कम कीमत में वेंटिलेटर कैसे बन जाएगा, न ही ये सोचा कि आखिर कोई कंपनी 1000 मुफ्त वेंटिलेटर क्यों दे रही है। फिर जब मामला खुला तो सामने आ गया कि इस कंपनी के मालिक पराक्रम जडेजा, मुख्यमंत्री के करीबी हैं। बाकी कहानी हमको समझाने की ज़रूरत नहीं है, गुजरात के अलावा किसी और राज्य को इसी मामले में रखिए, जहां भाजपा की सरकार न हो और आप सब समझ जाएंगे।
इस संदिग्ध भ्रष्टाचार की कोई जांच कैसे गुजरात मॉडल में हो सकती थी – जहां कोई भ्रष्टाचार ही नहीं है। मामला, धीरे-धीरे विपक्ष और मीडिया सब भूल जाते हैं।
पढ़िए नकली वेंटिलेटर्स पर हमारी स्टोरी
इस सब के बीच गुजरात में कोविड के आंकड़े धीरे-धीरे कम होने लगते हैं। जवाब आपको सरकार की तरफ से अपनी वाहावाही के तौर पर मिल सकता है। आंकड़ों को आपने चेहरे पर छापा जा सकता है, लेकिन आंकड़ों का सच, केवल रिकवरी रेट और नए मामलों की संख्या तक सीमित रह जाता है। भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों की कार्यशैली कमोबेश गुजरात मॉडल जैसी ही है। आपके सामने सिर्फ ‘अश्वत्थामा मारा गया’ की तर्ज पर आधे आंकड़े परोसे जाते हैं, असल आंकड़े छिपा लिए जाते हैं। गुजरात में कोविड के मामले कम होने की वजह, सरकार का बीमारी पर नियंत्रण कम बल्कि टेस्ट्स की संख्या न बढ़ाना था। इस खेल की शुरुआत लॉकडाउन के दौरान ही हो चुकी थी।
जब मॉडल हो फेल, करो आंकड़ों का खेल
गुजरात के आंकड़ों को लेकर, हम सबसे पहले याद करना चाहिए कि गुजरात हाईकोर्ट में खड़े हो कर, दुस्साहसी बेशर्मी के साथ सरकार की ओर से ए़डवोकेट जनरल का बयान याद करना होगा। इसको 2020 के सबसे बेशर्म बयानों में से एक माना जा सकता है। इसके ऊपर शायद अमेरिकी राष्ट्रपति और ब्राज़ीली राष्ट्राध्यक्ष के बयान ही होंगे। गुजरात के एडवोकेट जनरल कमल त्रिवेदी ने कहा था, “यदि सभी का परीक्षण किया जाता है, तो 70% लोगों का COVID-19 टेस्ट पॉज़िटिव आ जाएगा, जिससे भय साइकोसिस भय फैल सकता है।”
और दरअसल यही सच रहा है। गुजरात के शुरुआती टेस्टिंग आंकड़ों को देखें, तो हमको पता चलेगा कि शुरुआत से ही टेस्टिंग को लेकर सरकार का रवैया क्या रहा है। 12 अप्रैल तक का आंकड़ा साफ़ कहता है कि गुजरात में प्रति मिलियन टेस्ट 200 भी नहीं थे। जबकि गुजरात देश का सबसे विकसित और अमीर राज्य होने का दम भरता है। कई छोटे राज्यों की स्थिति बेहतर थी और तो और 20 मार्च तक गुजरात में कोरोना पॉज़िटिव लोगों की संख्या केवल 5 थी। तो फिर लॉकडाउन में मामले कैसे बढ़ गए?
7 मई तक अहमदाबाद में कोरोना संक्रमण के मामले, गुजरात के दूसरे सबसे अधिक मामलों वाले ज़िले सूरत के मुकाबले 700 फीसदी या 7 गुना थे और इनकी संख्या हो चुकी थी 4,716 जबकि कुल टेस्ट्स की संख्या थी 39165। यानी कि कुल टेस्ट किए गए लोगों में से 12 फीसदी लोग कोरोना पॉज़िटिव पाए गए। जबकि इनमें से 298 लोगों की कोरोना संक्रमण से मृत्यु हो चुकी थी। ये आंकड़े क्या कहते हैं, इसको अलग से समझाना ज़रूरी नहीं रह जाता।
अब बात करते हैं, हाल में गुजरात में कोविड-19 को लेकर सरकार की गंभीरता की। पिछले 3 महीनों के डेटा पर निगाह डालें, तो किसी भी दिन अहमदाबाद में कोरोना के नए मामलों की संख्या दरअसल घटकर 150 भी नहीं पहुंची है। यानी कि 19 अगस्त से लेकर 19 नवंबर तक अहमदाबाद में हर रोज़ 150 से अधिक कोरोना के नए मामले सामने आए हैं। लेकिन इसका विस्तृत डेटा और भी गंभीर लापरवाही की ओर इशारा करता है। यहां भी मामला वही है, टेस्ट्स की संख्या घटने का संबंध – सीधे तौर पर मामलों की संख्या बढ़ने से है। अगर आप नए मामलों की संख्या और टेस्ट्स की संख्या का तुलनात्मक मिलान करें तो आपको ये समझ आ जाएगा। अहमदाबाद में जहां 17 सितंबर, 2020 तक हर रोज़ औसतन 20 हज़ार के आसपास टेस्ट हो रहे थे, ये संख्या 17 सितंबर के बाद अचानक से गिरती है और औसतन 12 हज़ार टेस्ट प्रतिदिन के आसपास पहुंचनी शुरू हो जाती है। ये बड़ी गिरावट है, लगभग 8 हज़ार टेस्ट्स प्रतिदिन यानी कि टेस्ट्स की संख्या सीधे कम होकर 60 फीसदी प्रतिदिन ही रह जाती है।
लेकिन इसके साथ ही दूसरे डेटा में अचानक से वृद्धि शुरू होती है। अगर हम ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि टेस्ट्स की संख्या घटने के बाद, यानी कि 17 सितंबर के बाद से मामलों की संख्या बढ़ती है।
इसमें कई दिनों के आंकड़े जहां पहले यानी कि कम से कम 20 हज़ार टेस्ट्स के दिनों से भी कहीं ज़्यादा हैं। तो बाकी दिनों में टेस्ट्स की संख्या तो कम होती दिखती है लेकिन मामलों की संख्या लगभग उतनी ही बनी रहती है। यानी कि प्रतिशत में मामले बढ़ जाते हैं। उदाहरण के लिए इस डेटा को देखें –
पहली टेबल में आप देख सकते हैं कि कैसे 17 सितंबर, 2020 के बाद, टेस्ट्स की संख्या अचानक से कम होती है और उसके बाद 19 नवंबर यानी कि ये स्टोरी लिखे जाने तक मौजूद अंतिम डेटा तक कभी भी 13 हज़ार के ऊपर नहीं जाती, 21 सितंबर को छोड़कर – जबकि 17 सितंबर तक 20,000 से अधिक टेस्ट्स प्रतिदिन हो रहे थे। टेस्ट संख्या में औसतन 40 फीसदी के आसपास कमी लगातार है।
इसके बाद इन्ही तारीखों के दौरान आने वाले नए मामलों का डेटा आप देख सकते हैं कि कैसे लगातार बढ़ता गया है। यानी कि टेस्ट की संख्या कम होने के बाद भी नए मामलों की संख्या बढ़ती चली गई।
और फिर हमने मिलान किया कि क्या केस बढ़ने और टेस्ट्स घटने का आपस में कोई रिश्ता है? डेटा आपके सामने है, हर रोज़ के केस की तुलना अगर पिछले दिन आए नए मामलों से की जाए और उसका प्रतिशत निकाला जाए। तो वह भी बढ़ता चला गया है। इसको भी आप नीचे दी गई डेटा टेबल में देख सकते हैं। इसी तरह अगर आप पिछले दिन के टेस्ट्स और अगले दिन के नए मामलों की तुलना करें, तो भी ये डेटा टेस्ट्स की घटती संख्या के हिसाब से ही बढ़ता दिखाई देगा। इसको भी साबित किया जा सकते है।
यानी कि इसमें दरअसल लोगों से ज़्यादा लापरवाही सीधे तौर पर सरकारी तंत्र की दिखाई दे रही है। अहमदाबाद में सितंबर से अचानक से टेस्ट्स की संख्या कम होती है और मामले बढ़ने लगते हैं – जो अब भयावह स्थिति में हैं। लेकिन ये पहली बार नहीं है, अप्रैल के मध्य तक अहमदाबाद की हालत चिंताजनक हो गई थी। मामले ऐसी तेज़ी से बढ़े कि अहमदाबाद के म्युनिसिपल कमिश्नर विजय नेहरा ने बयान दे दिया कि मई के अंत तक, अहमदाबाद में कोरोना के 8 लाख मामले हो सकते हैं, लेकिन सरकार को फर्क नहीं पड़ा। इसके बाद पहले म्युनिसिपल कमिश्नर ख़ुद ही सहकर्मी के कोरोना संक्रमित होने के बाद आइसोलेशन में चले गए और फिर उनका तबादला हो गया। कारण यही बताया जा रहा है कि वे लगातार ज़्यादा टेस्ट करने की मांग कर रहे थे। और सरकार थी कि टेस्ट्स करने को ही तैयार नहीं थी। हालात फिर से वही हैं, अचानक से 40 फीसदी टेस्ट्स में कटौती – जबकि कोरोना से जंग का पहला हथियार टेस्टिंग ही है।
कर्फ़्यू, लाठी, दमन और विज्ञापन
दरअसल गुजरात मॉडल का सारा तिलिस्म पिछले 6 साल में टूटता दिखाई देने लगा है। ये अलग बात है कि मेनस्ट्रीम मीडिया इसको देखना नहीं चाहता। चाहें, महिलाओं-बच्चों के कुपोषण का मामला हो या फिर दलितों पर हिंसा के लगातार सामने आते मामले हों, पाटीदारों का आंदोलन हो या लॉकडाउन के बाद सड़क पर उतरे और आगज़नी करते लोग। गुजरात अगर किसी तरह का मॉडल है भी-तो वह अच्छा नहीं हो सकता। लेकिन आख़िर ये सब सामने दिखते हुए भी अचानक आंख से ओझल कैसे हो जाता है? जवाब, इस हिस्से के शीर्षक में छिपा है – गुजरात मॉडल के 4 स्तंभ हैं – कर्फ्यू, लाठी, दमन और विज्ञापन। आप पिछले 6 साल का ही लेखा-जोखा उठा लें, तो सब सामने दिख जाएगा। कभी मछुआरे प्रदर्शन करते हैं, कभी किसान, कभी दलित तो कभी कोई और – लेकिन गुजरात में सरकार क्या किसी तरह के संवाद की कोई कोशिश करती है? नहीं, कर्फ्यू लगता है, लाठी और गोली चलती है और उसके बाद धड़ाधड़ देशद्रोह से लेकर रासुका तक के तहत मामले दर्ज होते हैं।
इस सब के बाद कोई ये सवाल नहीं करता है कि आख़िर ये परिस्थितियां किसी एक दिन में तो नहीं बन गई। विपक्ष को भी अपनी साज़िश के लिए उपयुक्त माहौल तो चाहिए ही होगा। तो क्या गुजरात मॉडल इतना बेअसर और अस्थाई था कि नरेंद्र मोदी के दिल्ली आते ही ढह गया? नहीं, दरअसल ये सालोंसाल में उन हालात से उपजा गुस्सा है – जहां हर बात का समाधान एक पुलिस स्टेट की तरह किया जाता है…लाठी, कर्फ्यू और दमन से। और अब अपनी नाकामी को छिपाती गुजरात सरकार और अहमदाबाद प्रशासन ने शहर में कर्फ्यू लगा दिया है।
विज्ञापन की दीवार से ढंक लिया जाता है सच
चौथा स्तंभ है विज्ञापन, जिस पर हम विस्तृत रिपोर्ट कभी बाद में करेंगे पर बस इतना जान लीजिए कि कोरोना काल में, अस्पतालों पर खर्च न करने वाली सरकार ने – सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की ख़बरें सामने आते ही प्रिंट मीडिया के सरकारी विज्ञापनों का अप्रैल तक का भुगतान तत्काल करने का आदेश जारी कर दिया गया। जबकि कोरोना संबंधित सेवाओं के लिए बजट का हवाला दिया जाता रहा और टेस्ट्स की संख्या तो हम बता ही चुके हैं। इतना ही नहीं, जब नमस्ते ट्रंप के लिए खर्च किए गए धन का आंकड़ा 85-100 करोड़ के बीच सामने आया तो सीएम ने बयान जारी किया कि इस कार्यक्रम में केवल 8 करोड़ खर्च हुए थे। ये दौरा केवल 3 घंटे का था। इसके अलावा खुशबू गुजरात की के कैंपेन पर 2 सालों में 70 करोड़ से अधिक खर्च किए गए। इस तरह के तमाम खर्च हैं, जिनको कर के या फिर तमाम मीडिया संस्थानों के सरकारी विज्ञापनों को रोक कर सरकार ख़बरों को ढंक लेती है। हाल ही में सरकारी विज्ञापनों में धोखाधड़ी के मामले में भाजपा से जुड़े नेता पर एफआईआर भी दर्ज की गई है। 2011 से ही गुजरात मॉडल को देश भर की मीडिया में विज्ञापन के ज़रिए खड़ा किया गया है और इसकी पुष्टि मीडिया का डेटा ही कर देगा।
अदालत के सम्मान के नारों के बीच, गुजरात का सच
दिलचस्प ये है कि गुजरात और केंद्र में सत्ताधारी भाजपा, तमाम मामलों में अदालतों का सम्मान करने की बात करती है। अदालत की किसी भी समीक्षा को, अपने ख़िलाफ़ जाते देख-अवमानना के आरोप लगाती है। लेकिन गुजरात सरकार ने अदालत की अवमानना के सारे रेकॉर्ड धराशायी कर दिए हैं। कोविड के टेस्ट्स को लेकर पहले ही सरकार, सीधे तौर पर हाईकोर्ट के आदेश की अवहेलना कर चुकी है।
अब हाल ही में कम से कम 3 बार गुजरात से अस्पताल में आग लगने की ख़बरें आ चुकी हैं। इन अस्पतालों में से एक में 6 अगस्त, 2020 को कोविड वॉर्ड में आग लगी थी और 8 लोगों की जान चली गई थी। इसके अलावा सितंबर, और नवंबर में भी अस्पतालों में आग लगने की ख़बर आई और कई के पीछे धमण (कथित वेंटिलेटर्स) के होने की ख़बरें भी तैरती रही। गुजरात हाईकोर्ट ने सरकार की आग से निपटने की अक्षमता और इमारतों की सुरक्षा को लेकर गंभीर चिंता जताते हुए, हाल ही में सरकार को चेतावनी दी कि अगर वो अदालत के आदेश की अवहेलना करती रहेगी तो, अदालत उस कार्रवाई के लिए बाध्य होगी। ये आदेश ख़ुद चीफ़ जस्टिस ने दिया।
अंततः क्या गुजरात किसी वास्तविक समाधान की ओर है?
दरअसल गुजरात में पिछले 2 दशक से एक ही पार्टी की सत्ता बने रहने के पीछे एक बड़ा कारण भी यही पुलिस स्टेट या समाधान की जगह सख़्ती बरतना है। सरकार के अंदर ये यक़ीन या अति आत्मविश्वास भी है कि उसे सत्ता से कोई बेदख़ल नहीं कर सकता है। ज़ाहिर है इसके पीछे विपक्ष की नाकामी और सरकार की कुछ भी-किसी भी तरह से हासिल कर लेने की क्षमता दोनों ही हैं। ऐसे में समाधान की जगह, हम केवल और केवल पुलिसिया राज देखते हैं। नागरिकों के बीच जागरुकता अगर नहीं है-तो क्या कर्फ्यू समाधान हो सकता है? और सवाल ये है कि गुजरात मॉडल में नागरिकों में जागरुकता ही नहीं है तो ये कैसा मॉडल है? क्या महज सड़कें और इमारतें या इंडस्ट्रीज़ के लिए सस्ती ज़मीनें किसी तरह के वेलफेयर स्टेट का मॉडल हो सकती हैं? सबसे अहम, हमारा आंकड़ा जो कहता है कि आख़िर टेस्टिंग कम होने और इस तरह से हालात बिगड़ने की नौबत आई ही क्यों? वह भी देश की राजधानी और देश का मॉडल बताए जाने वाले गुजरात के सबसे बड़े शहर में?
दरअसल पोस्ट ट्रुथ का दौर, हमने बाकी देश में पिछले 6 साल में देखा है। लेकिन गुजरात को लेकर ये दौर पूरे देश में पिछले 1 दशक से चल रहा है। गुजरात मॉडल में कुछ अच्छी चीज़ें हो सकती हैं पर वह किसी भी राज्य में हो सकती हैं। बाकी सब अब धीरे-धीरे ध्वस्त हो रहा है। मेनस्ट्रीम मीडिया की ज़ुबान पर लगे तालों में वैकल्पिक मीडिया की चाभियां लगा दी गई हैं और अब मॉडल दरक रहा है। विज्ञापनों के ढेर से धीरे-धीरे सच अपनी बांहें ऊपर कर रहा है। सरकार डिजिटल मीडिया पर शिकंजा तो कसेगी, लेकिन सच अब बांहें और सिर निकाल चुका है तो बाहर भी आ जाएगा। लेकिन क्या इससे गुजरात की मुश्किलें मिटेंगी? बिल्कुल नहीं, गुजरात की मुश्किलें कम करने का रास्ता, विज्ञापन नहीं, लाठी नहीं बल्कि असल वेलफेयर स्टेट की स्थापना होगा। फिलहाल जिसके लिए सरकार तैयार नहीं दिखती है-हां, उसके पास उद्योगपतियों के लिए अभी भी कोई न कोई ऑफर होगा…पर एक बात, जो सीधी समझ लेनी होगी कि अहमदाबाद में कर्फ्यू समाधान नहीं है और राज्य सरकार कोई पीड़ित नहीं, बल्कि आरोपी है।
मयंक सक्सेना, पूर्व टीवी पत्रकार रहे हैं। फिल्मों के लिए लिखते हैं और संप्रति मीडिया विजिल के एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं।