चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल-4
जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शताब्दी मनाने की तैयारियों में जुटी है, तब बाकी दुनिया के लिए दिलचस्पी का विषय यही समझना है कि आखिर चीन ने अपनी ऐसी हैसियत कैसे बनाई? सीपीसी ने कैसे एक जर्जर देश को वापस खड़ा किया? इस दौरान उसने क्या प्रयोग किए? उन प्रयोगों के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम कैसे रहे हैं? वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन इस विषय पर मीडिया विजिल के लिए एक विशेष शृंखला लिख रहे हैं। पेश है इसकी चौथी कड़ी-संपादक
देंग श्योओ फिंग चीन के उन नेताओं में थे, जिनकी पढ़ाई विदेश में हुई थी। देंग ने फ्रांस में चार की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1924-25 में सोवियत संघ में रह कर वहां समाजवाद के निर्माण के हो रहे अभिनव प्रयासों का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त किया था। उसके बाद जब वे चीन लौटे, तो जियांग्शी सोवियत से जुड़ गए। जियांग्शी सोवियत एक स्वायत्त साम्यवादी क्षेत्र था, जिसकी वहां स्थापना माओ दे दुंग के नेतृत्व में सीपीसी ने की थी। तब से वे हमेशा सीपीसी में सैनिक और राजनीतिक संगठनकर्ता की भूमिका में रहे। वे सीपीसी के सर्वोच्च नेतृत्व का हिस्सा बने और उनकी ये हैसियत बीच में सांस्कृतिक क्रांति के दिनों को छोड़ कर 1997 में उनकी मृत्यु तक बनी रही।
साल 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक की स्थापना के बाद वे लगातार बड़ी जिम्मेदारियां संभालते रहे। 1955 में सीपीसी की सर्वोच्च कमेटी पोलित ब्यूरो के सदस्य बने। लेकिन चीन की विकास की दिशा क्या हो, इसको लेकर चेयनरमैन माओ के साथ तब उनके मतभेद भी उभरने लगे थे। वे राष्ट्रपति ली शाओ ची की तरह ही ये मानते थे कि समता को व्यावहारिक रूप देने के लिए सख्त तरीके अपनाने के बजाय चीन की व्यवस्था में निजी उद्यम के लिए भी जगह होनी चाहिए। क्रांति के बाद माओ ने ‘हजारों फूलों को खिलने दो, हजारों विचारों को पनपने’ दो का आदर्श वाक्य चीनी समाज को दिया था। इसके तहत पार्टी के भीतर और बाहर भी असहमति रखने की छूट दी गई थी। इसी सिद्धांत के तहत क्रांति के बाद हालांकि सीपीसी के नेतृत्व में सर्वहारा की तानाशाही के विचार के आधार पर चीन की राजनीतिक व्यवस्था का संगठन किया गया, फिर भी उन आठ पार्टियों को बने रहने की इजाजत दी गई, जिनका अलग अस्तित्व था, लेकिन जिन्होंने पीपुल्स रिपब्लिक के बुनियादी उसूलों को स्वीकार कर लिया था। ये पार्टियां आज भी मौजूद हैं। उनकी नुमाइंदगी चीन की संसद- नेशनल पीपुल्स कांग्रेस में भी है।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर अलग-अलग लाइन की मौजूदगी 1960 के दशक के मध्य तक बनी रही। 1966 में जब सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत करते हुए माओ ने “मुख्यालयों पर बमबारी” का नारा दिया, तब उनसे असहमत नेताओं के पार्टी नेतृत्व में बने रहना मुश्किल हो गया। जो नेता इसके शिकार बने, उनमें देंग भी थे। बताया जाता है कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान वे कहीं गायब हो गए। कुछ विवरणों में बताया गया है कि उन्हें स्टडी कैंप (अध्ययन शिविर) में भेज दिया गया। लेकिन वे ऐसे शायद एकमात्र बड़े नेता थे, जिनकी वापसी सांस्कृतिक क्रांति के दौर में ही हो गई। इसका श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री झाओ एन लाई को दिया जाता है, जो अकेले ऐसे बड़े नेता थे, जिनका रुतबा और पद सांस्कृतिक क्रांति के दौर में भी बना रहा। 1973 में देंग को उप-प्रधानमंत्री बनाया गया। 1975 में उन्हें पार्टी की सेंट्रल कमेटी का उपाध्यक्ष और पोलित ब्यूरो का सदस्य बनाया गया। इस तरह उनकी ताकतवर हैसियत बहाल हो गई।
1976 में माओ की मृत्यु के बाद जब सांस्कृतिक क्रांति के संचालक चौगुट (गैंग ऑफ फोर) को गिरफ्तार कर लिया गया, तो उसके बाद सीपीसी की पूरी कहानी बदल गई। माओ के मनोनीत उत्तराधिकारी हुआ गुओ फेंग की ताकत कमजोर पड़ती गई। 1980-81 आते-आते हुआ ने एक तरह से समर्पण कर दिया। अब देंग समर्थक हू याओबांग पार्टी महासचिव और झाओ जियांग प्रधानमंत्री बने। इसके साथ ही चीन के सत्ता तंत्र पर देंग का पूर्ण नियंत्रण हो गया। उन्हें तब सर्वोच्च नेता का दर्जा दे दिया गया। अब स्थितियां ऐसी बन गई थीं, जिसमें देंग अपनी सोच की दिशा में चीन को ले जा सकते थे।
इस दौर में देंग ने अपनी सबसे प्रमुख सोच यह सामने रखी कि समाजवाद का मतलब गरीबी नहीं है। ये तथ्य है कि माओ के पूरे दौर में चीन में बराबरी के आदर्श को काफी हद तक व्यवहार में हासिल किया गया था, लेकिन कुल मिला कर चीन एक गरीब देश बना रहा। चीन में उपभोग की चीजों की उपलब्धता और लोगों के उपभोग करने की क्षमता न्यून बनी रही। यह भी सच है कि ऐसी ही तस्वीरों को सामने रख कर पश्चिमी देशों के पूंजीवादी अर्थशास्त्री समाजवाद का मखौल उसे गरीबी का बंटवारा कह कर उड़ाते थे। देंग की सोच थी कि समाजवाद को उच्चस्तरीय उपभोग का अवसर देने वाली व्यवस्था का रूप लेना चाहिए। समाजवादी देश को आर्थिक और तकनीकी रूप से न सिर्फ उन्नत, बल्कि सबसे उन्नत होना चाहिए। यानी इन मामलों में उसे पूंजीवादी व्यवस्थाओं से भी बेहतर स्थिति में रहना चाहिए। तभी ये व्यवस्था लोगों का स्वैच्छिक समर्थन कायम रख पाएगी।
तो देंग के नेतृत्व वाली सीपीसी ने खुलेपन और निजी उद्यम भावना को प्रोत्साहन देने के रास्ते पर चलना शुरू कर दिया। इसकी शुरुआत कम्यून सिस्टम को खत्म करने से हुई। कम्यून सिस्टम एक सामूहिक उत्पादन और उपभोग व्यवस्था थी। अब नई व्यवस्था में किसानों को व्यक्तिगत रूप से जमीन का आवंटन किया गया। ये बात उल्लेखनीय है कि चीन में आज भी जमीन का स्वामित्व सरकार के पास है। इस तरह उत्पादन के इस महत्त्वपूर्ण स्रोत पर आज भी पब्लिक कंट्रोल है। किसान अपनी जमीन को पूर्व अनुमति लेकर किसी दूसरे को ट्रांसफर कर सकते हैं, लेकिन बेच नहीं सकते।
इसके साथ ही 1980 के दशक में चीन आर्थिक और राजनीतिक खुलेपन के एक बिल्कुल नए अनुभव से गुजरा। देश के लोगों को विदेश आने-जाने की इजाजत आसानी से मिलने लगी। उन्हें सरकार की आलोचना करने के अवसर भी उपलब्ध होने लगे। तब बाहरी दुनिया में ये अनुमान लगाया जाने लगा था कि चीन की कम्युनिस्ट व्यवस्था कुछ वर्षों में पूरी तरह बदल जाएगी। गौरतलब है कि ये वही दौर था, जब सोवियत खेमे के कम्युनिस्ट देशों में भारी उथल-पुथल हो रही थी। 1980 में पोलैंड में सॉलिडरिटी आंदोलन शुरू हो चुका था, जो वहां कम्युनिस्ट शासन के अंत का कारण बना। मिखाइल गोर्बाचेव के सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव बनने के साथ वहां पेरेस्त्रोइका (पुनर्रचना) और ग्लासनोश्त (खुलेपन) की नीति अपना ली गई थी। चीन को कुल मिला कर इसी परिघटना का हिस्सा तब समझा जा रहा था। 1989 आते-आते बर्लिन की दीवार गिरने की स्थिति बन चुकी थी। (असल में ये दीवार उस साल 9 नवंबर को गिरी, जिसके परिणामस्वरूप जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक यानी पूर्वी जर्मनी का पश्चिमी जर्मनी में विलय हो गया।)
जिस तरह सोवियत संघ में गोर्बाचेव खुलेपन की नीति के जनक बने थे, चीन में कुछ वैसी ही भूमिका हू याओबांग निभा रहे थे। वे राजनीतिक खुलापन की वकालत कर रहे थे। इस नीति के तहत जन प्रदर्शनों की इजाजत दी जा रही थी। इसी दौर में राजधानी बीजिंग में स्थित मशहूर तियानानमेन चौराहे पर सैकड़ों प्रदर्शनकारी आकर जम गए। ये लोग सीधे राजनीतिक व्यवस्था बदलने की मांग कर रहे थे। बताया जाता है कि इसमें एक तरफ पश्चिमी ढंग के लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थक छात्र और नौजवान थे, तो दूसरी तरफ माओवादी राजनीतिक कार्यकर्ता थे, जो देंग के दौर में अपनाई नीतियों से खफा थे। साथ ही इस दौर में कृषि और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में हो रहे परिवर्तनों से रोजगार एवं सामाजिक सुरक्षा संबंधी आई असुरक्षा से परेशान लोग भी प्रदर्शन में शामिल हो गए। प्रदर्शन की शुरुआत 15 अप्रैल 1989 से हुई। सरकार की तमाम अपीलों को ठुकराते हुए प्रदर्शनकारी वहां जमा रहे। कुछ दूसरे शहरों में भी उनके समर्थन में प्रदर्शन होने की खबरें आने लगीं। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी गहरे संकट में फंसी नजर आ रही थी। वह तय नहीं कर पा रही थी कि अपनी खुलेपन की नीति के तहत वह इन प्रदर्शनों को जारी रहने दे या सख्ती से इसे कुचल दे। पार्टी के भीतर दोनों राय के समर्थक गुट थे। आखिरकार सख्ती का समर्थक गुट भारी पड़ा, जब देंग ने प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई की इजाजत दे दी। चार जून 1989 को आखिरकार चीन की सेना- पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने तियेनानमेन चौराहे को खाली करा दिया। इस क्रम में कितने लोग मारे गए, यह एक विवादास्पद मुद्दा है।
बहरहाल, इस कार्रवाई से ठीक पहले हू याओबांग को महासचिव पद से हटा दिया गया। प्रधानमंत्री झाओ जियांग ने पार्टी के महासचिव की जिम्मेदारी भी संभाल ली। इसके साथ ही चीन में सीपीसी के दौर में राजनीतिक खुलेपन के हुए प्रयोग पर विराम लग गया। उसके बाद एक बार फिर से राजनीतिक व्यवस्था में डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म (जनवादी केंद्रीयता) का लेनिनवादी सिद्धांत अपना लिया गया, जिस पर ये पार्टी अपनी स्थापना के बाद से चलती रही थी।
राजनीतिक खुलेपन पर लगे विराम से देंग के आर्थिक खुलेपन की नीति भी कुछ समय के लिए डगमगाती नजर आई। पश्चिमी देशों में तब चीन के खिलाफ जहरीला माहौल बन गया था। दूसरी तरफ 1991 आते-आते सोवियत खेमा ढह गया। अमेरिकी राजनीति शास्त्री फ्रांसिस फुकुयामा ने ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा कर दी। यानी कहा यह गया कि पश्चिमी ढंग के पूंजीवाद आधारित उदारवादी लोकतंत्र ने अंतिम रूप से विजय हासिल कर ली है। अब ये व्यवस्था ही पूरी दुनिया का भविष्य है। जाहिर है, तब पश्चिमी देशों में चीन में कम्युनिस्ट शासन को कुछ गिने-चुने वर्षों की कहानी समझा जा रहा था।
तभी समाजवादी व्यवस्था के तहत देंग का दूसरा बड़ा वैचारिक आविष्कार सामने आया। यह स्पेशल इकॉनमिक जोन्स (एसईजेड) का विचार था। इसके पीछे उनकी सोच थी कि चीन के औद्योगिक और तकनीकी विकास के लिए अतिरिक्त पूंजी और कौशल की जरूरत है। ये कौशल पश्चिमी पूंजीवादी देशों के पास है, जिसे एक कम्युनिस्ट देश में आकर्षित करना आसान नहीं है। तियानानमेन की घटना के बाद तो ये काम और भी मुश्किल हो गया था। उसी माहौल में देंग ने अपना मशहूर दक्षिणी दौरा किया। वे चीन के दक्षिण तटीय प्रदेशों शेनजेन, झुहाई, ग्वांगझाऊ और शंघाई गए। वहां उन्होंने एलान किया कि सीपीसी के जो नेता आर्थिक सुधारों से सहमत नहीं होंगे, उन्हें पद से हटा दिया जाएगा। देंग की नई नीति के मुताबिक एसईजेड इलाकों में विदेशी कंपनियों को मुक्त कारोबार करने, टैक्स से छूट देने, चीन की मुख्य भूमि पर लागू होने वाले कानूनों के दायरे से बाहर रखने आदि की व्यवस्था की गई। आज जिस तरह आर्थिक क्षेत्र में चीन चमक रहा है, उसके पीछे इस नीति की चमत्कारी भूमिका समझी जाती है।
इसी दौर में देंग ने सीपीसी और अपने देशवासियों को hide strength, bide time की सलाह दी थी। यानी जब तक चीन शक्तिशाली नहीं हो जाता, उसे अपनी क्षमताओं को छिपा रखते हुए समय काटना चाहिए। यानी कुल मिलाकर उन्होंने झुक कर चलने की सलाह दी। देंग की समझ थी कि उस समय पूरी पश्चिमी दुनिया चीन के खिलाफ थी। चीन उनसे टकराव मोल लेने की स्थिति में नहीं था। चीन के सामने तब मुख्य चुनौती अपनी जनता का जीवन स्तर बढ़ाना था। देंग मानते थे कि जब तक ऐसा नहीं हो जाता, चीन को बेवजह अपनी ताकत या खूबियों का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। अनुभव यही है कि चीन तब इसी रास्ते पर चला।
आज चीन संभवतः उस जगह पर पहुंच गया है, जब वह खुद को अपनी शक्ति और खूबियों का प्रदर्शन करने के योग्य समझ रहा है। बेशक, चीन का कायापलट हो चुका है। लेकिन इस दौर में चीन में आर्थिक गैर-बराबरी असाधारण रूप से बढ़ी है। चीन में उपभोक्तावाद बढ़ा है, जिसे माओ हतोत्साहित करते थे। चीन में वैसी कई सामाजिक और सांस्कृतिक बुराइयां वापस आ गई हैं, जिनसे क्रांति के बाद के आरंभिक दशकों में उसने मुक्ति पाई थी। इसी कारण ये बहस खड़ी हुई है कि चीन आज समाजवादी है या पूंजीवादी? वह पीपुल्स रिपब्लिक है या उसकी व्यवस्था राजकीय पूंजीवाद से आगे बढ़ते हुए authoritarian capitalism का रूप ले चुकी है? क्या चीन साम्राज्यवादी हो गया है? क्या चीन एक ऐसा देश बन गया है, जहां पूंजीवाद और अधिनायकवादी व्यवस्था की तमाम बुराइयों का मेल हो गया है? मानव अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करते हुए क्या उसने ‘हजारों फूलों को खिलने दो, हजारों विचारों को पनपने दो’ के सिद्दांत को तिलांजलि दे दी है? क्या वह सचमुच विश्व में उदार लोकतंत्र के लिए एक चुनौती बन गया है? ये तमाम सवाल हमारी इस लेख शृंखला का विषय हैं। अगली किस्तों में हम इनके जवाब ढूंढने की कोशिश करें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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