हिन्दूवादियों और गोदी मीडिया के सहयोग के बावजूद प्रधानमंत्री पहलवानों से जीत पाएंगे? 

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
ख़बर Published On :


 

किसानों से हारने और माफी मांगने वाले प्रधानमंत्री पहलवानों से जीत जाएंगे

 

आज के अखबारों में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह मणिपुर पहुंचे और दिल्ली में सरे राह लड़की को 20 बार चाकू मारने जैसी दो प्रमुख खबरें हैं और दोनों केंद्र सरकार की कमजोर प्रशासनिक व्यवस्था का बयान करती हैं। ऐसे में प्रचार और राजनीति की प्रचार वाली खबरों की चर्चा करने से बेहतर है पहलवानों की चर्चा की जाए जो देश में लोकतंत्र का पैमाना भी है। लोकतंत्र के कथित नए मंदिर के उद्घाटन की तारीख और उसी दिन पहलवानों को जबरन धरनास्थल से हटा दिया जाना और लोकतंत्र के मंदिर पर पहुंच कर सरकार का विरोध या अपनी मांग का समर्थन नहीं करने देना साधारण नहीं है लेकिन इसपर खबरें वैसे नहीं हैं जैसे होनी चाहिए। 

उदाहरण के लिए, आज के अखबारों में पहलवानों को जबरन हटा दिए जाने के बाद की दिलचस्प खबरें हैं। द हिन्दू में सिंगल कॉलम की खबर है, “हटाए जाने के बाद पहलवान फिर जुटे, अगली रणनीति की योजना”। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर तीन कॉलम में फोटो के साथ है, “पुलिस कार्रवाई के बाद पहलवानों ने कहा वे हार नहीं मानेंगे”। इससे लगता है कि पहलवानों के मामले में नरेन्द्र मोदी का हाल किसान आंदोलन से भी बुरा है। जिस तरह उन्हें सत्ता की ताकत के आगे किसानों की ताकत कम लग रही थी और अंततः माफी मांगनी पड़ी उसी तरह पहलवानों के मामले में उनकी चाल या कार्रवाई लग रही है। देखते रहिये फिर माफी मांगते हैं या पहलवानों को थकाकर चुप रहने के लिए मजबूर कर देते हैं। 

मैं ऐसा यह मानते हुए कह रहा हूं कि ऐसे मामलों में निर्णय कोई और नहीं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं लेते हैं। यह ठीक है कि किसी शिकायत पर कार्रवाई नहीं करना या करना उनका विशेषाधिकार है पर जो कार्रवाई वे करते हैं वह हमेशा सही हो यह जरूरी नहीं है। कई उदाहरणों के बाद किसानों का मामला बहुत स्पष्ट था और लगता है कि उन्होंने या उनकी पार्टी अथवा संघ परिवार ने कोई सीख नहीं ली है। आज इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर एक खबर का शीर्षक है, “पहलवानों को जंतर-मंतर पर अनुमति नहीं दी जाएगी, कहीं और विरोध कर सकते (ती) हैं : पुलिस”। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकारी तेवर यही है। और अखबार को पुलिस का यह तेवर प्रचारित करने की बजाय पुलिस से यह पूछकर बताना चाहिए था कि पहलवानों की शिकायत पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है।  

कोई दो राय नहीं है कि शिकायत है तो उसका निपटारा होना चाहिए। शिकायत राजनीति नहीं हो सकती है। आप उसपर राजनीति कर सकते हैं। अगर आपको लगता है कि राजनीति है तो बताइये और खुल कर राजनीति कीजिये, कोई दिक्कत नहीं है। किसान आंदोलन से समय हुई ही। पर क्या हुआ? इस मामले में राजनीति अभियुक्त या आरोपी नहीं कर सकता है। उसे बचाने की कोशिश घटिया राजनीति है पर इससे शिकायत राजनीति है, कहना पर्याप्त नहीं है। साबित करना होगा और यह सोशल मीडिया पर नहीं होगा। यह बहुत ही फूहड़ है कि पहलवानों को विरोध करने लोकतंत्र के नए मंदिर पर नहीं जाने दिया गया और यौन शोषण के आरोपी को उद्घाटन का निमंत्रण तो था ही, वह अपनी तस्वीरें पोस्ट कर रहा है और पुलिस कार्रवाई नहीं कर रही है।  

इस मामले में अभी तक स्थिति यही है कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद भी शिकायत पर कार्रवाई नहीं की गई है और शिकायत जारी रखने के लिए धरना प्रदर्शन भी नहीं करने दिया जा रहा है। यह आधिकारिक या सरकारी तरीका नहीं हो सकता है। सरकार कह सकती है कि जांच करने की जरूरत नहीं है या जांच करने लायक मामला नहीं है या शिकायत में दम नही है। शिकायत का आधिकारिक जवाब तो होना ही चाहिए और दिया जा चुका है तो अगली शिकायत पर फिर देना होगा। यह लोकतंत्र है मनमानी नहीं चलेगी। चलाएंगे तो कर्नाटक होगा और बजरंग बली भी काम नहीं आएंगे। लोकतंत्र ईंट गारे के नये मंदिर से नहीं बनता है और ना ही सरकार के पुजारियों द्वारा सरकार के एक अंग या हिस्से या किसी प्रिय की शिकायत करने वालों की सड़क पर पूजा करने से बनता है। 

इंडियन एक्सप्रेस की आज की खबर भले पुलिस के हवाले से है पर यही सूचना देने की कोशिश कर रही है कि न्याय मांगने वाले पहलवानों को लाठी डंडों से कुचल दिया। बेशक यह कार्रवाई नहीं है और ना कार्रवाई का तरीका है। उसका असर हुआ, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार की बदनामी हुई। और एक सरकार भक्त ने अपनी और पार्टी की पार्टी की बदनामी करवाई सो अलग। माहौल ऐसा हो गया है और होने दिया गया है कि एक रिटायर आईपीएस अफसर, एनसी अस्थाना ने कल ट्वीट किया था, “ज़रूरत हुई तो गोली भी मारेंगे। मगर,अभी तो सिर्फ कचरे के बोरे की तरह घसीट कर फेंका है। दफ़ा 129 में पुलिस को गोली मारने का अधिकार है।” यही नहीं, उन्होंने यह भी लिखा था, उचित परिस्थितियों में वो हसरत भी पूरी होगी। मगर वो जानने के लिये पढ़ा-लिखा होना आवश्यक है। फिर मिलेंगे पोस्टमॉर्टम टेबल पर! 

कहने की जरूरत नहीं है कि यह ट्वीट (अस्थाना साब की भाषा में बैरल की गोली, उसके बारे में आगे) बजरंग पूनिया के लिए थी। लोगों ने बजरंग को टैग किया और बजरंग पूनिया ने लिखा, ये आईपीएस  ऑफिसर हमें गोली मारने की बात कर रहा है। भाई सामने खड़े हैं, बता कहाँ आना है गोली खाने… क़सम है पीठ नहीं दिखाएँगे, सीने पे खाएँगे तेरी गोली। यो ही रह गया है अब हमारे साथ करना तो यो भी सही।

इस तरह इस हिन्दूवादी रिटायर आईपीएस (लोग फ्यूज बल्ब भी कहते हैं) ने अगर हिन्दुओं को ही धमकाने की कोशिश की तो उसका असर नहीं हुआ। यह अलग बात है कि सरकारी पेंशन पाने वाले इस अधिकारी ने यह कोशिश अपने स्तर पर की थी, किसी के कहने पर की थी या किसी उम्मीद में की थी। लेकिन इतने गंभीर और संवेदनशील मामले में ऐसा ट्वीट एक रिटायर अफसर ने किया इससे ऐसे लोगों की दिमागी हालत का अंदाजा तो लगता ही है। यह अलग बात है कि पर्याप्त रगड़ाई होने पर उन्होंने ट्वीट डिलीट कर दिया। इस संबंध में आज द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर खबर छपी है। ‘राइट टू शूट चैम्पियन्स’ (गोली मारने के अधिकार के चैम्पियन)। 

इसकी शुरुआत उनके ट्वीटर प्रोफाइल पर लिखे, Firing on all barrels to secure justice for the Hindus से हुई है। इसे हिन्दी में इस तरह लिखा जा सकता है, “हिन्दुओं के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए सभी बैरल (बंदूक और तमाम हथियारों की) नलियों से गोली चला रहा हूं”। इस ट्वीट को मैंने भी देखा था और एक मित्र की टिप्पणी पर लिखा था कि यह नरभक्षी लगता है। टीम साथ ऑफिसयल ने एनसी अस्थाना के ट्वीट को टैग कर ट्वीटर को लिखा था, यह अक्सर ऐसा करते हैं और फिर किया है। बीमार मानसिकता वाला यह व्यक्ति ऐसे ट्वीट करने का साहस करता है। जब सब लोग पढ़ लेते हैं तो वे अपने ऐसे ट्वीट को डिलीट कर देता है। टीम साथ ने ट्वीटर सेफ्टी से पूछा है कि अक्सर ऐसा करने वालों को इसकी अनुमति भी क्यों दी जाती है। यहां ‘साथ’ का मतलब है – स्टैंड अगेनस्ट एब्यूज ट्रॉल हरासमेंट यानी गाली देने वाले ट्रोल द्वारा परेशान किये जाने के खिलाफ स्टैंड लीजिये या खड़े होइये।        

आज मैंने इस ट्वीट और खबर का जिक्र यह बताने के लिए किया है कि भाजपा या सरकार को अगर ऐसा लग रहा हो कि कट्टर हिन्दू उनके बचाव में आएंगे तो बता दूं कि हिन्दू के लिए हिन्दू के खिलाफ सभी बैरल से गोली दागना भले मुश्किल न हो पर सामने वाला भी कोई कमजोर नहीं होगा और जवाब पूनिया की तरह मिलेगा तो आदमी मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगा और यह स्थिति न ज्यादा समय चलेगी और न अच्छी कही जा सकती है। अगर बिगड़ने दिया गया तो संभव है हालात मणिपुर जैसे हो जाएं और नियंत्रण ही नहीं रहे। बदनामी होगी सो अलग।     

अस्थाना की टिप्पणी अभिनव बिंद्रा की टिप्पणी से कुछ पहले आई थी। (अखबार में ऐसे ही लिखा है। अगर लिखा जाए कि अस्थाना की टिप्पणी के बाद बिन्द्रा की टिप्पणी आई तो लगेगा जैसे प्रतिक्रिया में थी जो ट्वीटर पर पता नहीं चलता है, अगर बताया न जाये) अभिनव बिन्द्रा भारत के पहले व्यक्तिगत ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता, निशानेबाज हैं। उन्होंने प्रदर्शनकारी पहलवानों के खिलाफ दिल्ली पुलिस की कार्रवाई की निंदा की और कहा कि “भयानक तस्वीरों” ने उन्हें “डरा” दिया है और “नींद” भाग गई है। द टेलीग्राफ ने आज इसे अपना कोट बनाया है। भारतीय फुटबाल कप्तान सुनील छेत्री ने रविवार रात पुलिस कार्रवाई की निंदा की थी। इंडियन पुलिस फाउंडेशन एंड इंस्टीट्यूट ने सोमवार को अस्थाना की टिप्पणी की निंदा की। यह दिल्ली स्थित थिंक टैंक है जिसका उद्घाटन 2015 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने किया था। 

फाउंडेशन का ट्वीट था, “एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी से इस तरह के धमकी भरे ट्वीट को देखना बहुत परेशान करने वाला है। इस तरह का व्यवहार अस्वीकार्य है। यह पूरे पुलिस बल की प्रतिष्ठा को धूमिल करता है।” राज्यसभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने कहा: “पूर्व आईपीएस अधिकारी, अब एक पूर्णकालिक अभद्र व्यक्ति हैं। हमारे देश में ऐसी नेक सेवाओं के लिए प्रशिक्षण कहाँ और कब गलत हो गया?” मामला सिर्फ प्रदर्शनकारियों का नहीं शिकायत पर कार्रवाई का है और अगर शिकायत राजनीति ही है, जैसे संबंधित सांसद कह रहे हैं तो राजनीतिक तरीके से निपटने में सरकार बुरी तरह नाकाम रही है और प्रधानमंत्री हर मामले में खुद इस तरह जुड़ जाते हैं कि माफी मांगने की नौबत आई तो उन्हें ही मांगनी पड़ेगी। देखते रहिए। ईश्वर करे संबंधित लोगों को मामला निपटाने की योग्यता हासिल हो।  

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।