चेतन कुमार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया अमेरिका दौरे ने वहाँ बसे हिंदुओं के बीच आरएसएस की बढ़ती घुसपैठ को भी सामने ला दिया है जिसके लिए हिटलर को आदर्श मानने वाला ये संगठन अरसे से प्रयास कर रहा था। अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति से जोड़ने का उत्साह कब अमेरिकी लोकतंत्र का हिस्सा बन गये इन लोगों को मुस्लिम और ईसाई विरोधी हिंदुत्ववादी अभियान का हिस्सा बना देता है, उन्हें भी पता ही नहीं चलता। डिजिटल क्रांति ने हर व्यक्ति को प्रोपोगैंडा का हिस्सा ही नहीं, उसका प्रचारक बना दिया है।
भारत में अल्पसंख्यकों, ख़ासतौर पर मुस्लिमों के ख़िलाफ़ बीजेपी सरकारों की ओर से जारी अभियान के सबसे बड़े चेहरे बतौर नरेंद्र मोदी को ही माना जाता है जिन पर गुजरात में 2002 में हुए नरसंहार का दाग़ है। उनके नौ साल के शासन में मुस्लिम और ईसाई विरोधी भावनाओं को भड़काने के लिए आईटी सेल जैसे कारख़ाने खोले गये जिसने देश के बड़े हिस्से को झूठ और नफ़रत से भर दिया है। इसका राजनीतिक लाभ बीजेपी को मिलता है लेकिन वैश्विक स्तर पर इससे नरेंद्र मोदी की छवि भी ख़राब होती है जो कि वे नहीं चाहते। हाल में उनके अमेरिकी दौरे का इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल और हिंदूज़ फ़ॉर ह्यूमन राइट्स जैसे 17 संगठनों के नेटवर्क ने विरोध किया था और राष्ट्रपति जो बाइडन से अपील की थी कि वे मोदी को संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करने का अवसर न दें। 75 सांसदों ने भी राष्ट्रपति से अपील की थी कि वे मोदी से भारत में हो रहे मानवाधिकार हनन का सवाल पूछें।
लेकिन अपने आर्थिक हित को ध्यान में रखते हुए बाइडन प्रशासन ने ये माँगें नहीं मानीं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने जब मोदी के दौरे के विरोध में प्रदर्शन किया तो अमेरिका में बसे हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा मोदी के समर्थन में नज़र आया। यहाँ तक कि जब वॉल स्ट्रीट जर्नल की पत्रकार सबरीना सिद्दीक़ी ने प्रधानमंत्री मोदी से भारतीय अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे भेदभाव का सवाल पूछा तो उनकी जमकर ट्रोलिंग हुई। सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर उन्हें तरह-तरह से अपमानित किया गया। ऐसा करने वालों में अमेरिकी हिंदू नौजवानों क भी बड़ी तादाद थी।
इस परिघटना की पड़ताल करते हुए एनबीसी न्यूज़ में साक्षी वेंकटरमण का एक लेख छपा है। ‘व्हाट्स फ्यूलिंग द राइज़ इन हिंदू नेशनलिज़्म इन द यूएस’ शीर्षक से छपे इस लेख में वे न्यू जर्सी के ड्रू युनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर और “देसीस डिवाइडेड: द पॉलिटिकल लाइव्स ऑफ साउथ एशियन अमेरिकन्स” के लेखक संजय मिश्रा के हवाले से लिखती हैं कि “बहुत से लोग यहां आते हैं और चाहते हैं कि उनके बच्चों को भारतीय संस्कृति और परंपराओं और हिंदू धर्म से अवगत कराया जाए, और उनमें से कुछ अनजाने में इसका हिस्सा बन जाते हैं।” “इसका चेहरा स्वयंसेवक, दान, शैक्षिक, योग है, लेकिन यह केवल हिंदू धर्म को स्वीकार करने या लोगों को हिंदू धर्म के बारे में सिखाने के बारे में नहीं है। यह हिंदुत्व का विचार को फैलाने के बारे में भी है।”
प्रोफ़ेसर मिश्रा के मुताबिक मोदी सरकार और उसके आसपास के लोग – जैसे उनकी सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) – ने विशेष रूप से राजनीतिक लामबंदी की नई सीमा के रूप में भारतीय अमेरिकियों पर ध्यान केंद्रित किया है। उन्होंने स्कूलों, सरकारी कार्यालयों और सोशल मीडिया पर इस बात को फैलाने में संसाधनों का निवेश किया है। 1.43 अरब लोगों के साथ भारत अब दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश है, और इसमें दुनिया का सबसे बड़ा प्रवासी भी है, जिसमें 32 मिलियन लोग विदेश में रहते हैं जिन्हें साधने की कोशिश हो रही है।
हिंदुत्ववादियों की मान्यता है कि हिंदू धरती के किसी कोने में हो वह उनके ‘हिंदू राष्ट्र’ का हिस्सा है। भारत की तमाम राज्य सरकारों और केंद्र सरकार पर लगभग दशक भर से काबिज होने के बाद वे इस हैसियत में हैं कि पूरी दुनिया मे अपना विचार फैलाने के लिए संसधान झोंक सकें। इसका नतीजा अमेरिका से लेकर यूरोप तक में बसे हिंदुओं के एक बड़े हिस्से की सोच में नज़र आ रहा है। वैसे तो वे अपने-अपने देशों मे उदारवादी सोच और अल्पसंख्यकों के हित की रक्षा करने वाली विचारधारा या पार्टी का समर्थन करते हैं लेकिन भारत में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाली पार्टी के साथ खुद को जोड़ के देखते हैं। हाल में अमेरिका में हुए एक सर्वे के मुताबिक रिपब्लिकन पार्टी से जुड़े 71 फ़ीसदी और डेमोक्रेटिक पार्टी से जुड़े 55 फ़ीसदी अमेरिकी हिंदू प्रधानमंत्री मोदी और उनकी नीतियों क समर्थन करते हैं।
एनबीसी न्यूज़ में छपे लेख में हिंदूज़ फ़ॉर ह्यूमन राइट्स से जुड़ी और मोदी की यात्रा के दौरान विरोध प्रदर्शन में शामिल रही 23 वर्षीय हरिता ईश्वरा के हवाले से लिखा गया है कि “हम एक प्रवासी के रूप में दावा करते हैं कि हम अपनी विरासत से बहुत जुड़े हुए हैं और हम अपनी संस्कृति का जश्न मनाना चाहते हैं। लेकिन जब भारत में लोगों की पहचान पर हमला हो रहा है, तो हमें उनकी रक्षा के लिए कुछ तो करना होगा।”
उधर, दक्षिण एशियाई अमेरिकी नागरिक अधिकार क्षेत्रों में काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि वे अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर अपशब्दों, अपमान और धमकियों के प्रति जागने के आदी हो गए हैं। ‘इक्वेलिटी लैब्स’ की थेनमोझी सुंदराजन जैसे दलित कार्यकर्ताओं को रोजाना परेशान किया जा रहा है। उन्हें ट्विटर पर इस तरह के जवाब मिल रहे हैं, “यदि आप हिंदू दलित हैं तो कहें कि यीशु भगवान नहीं हैं।” कैलिफ़ोर्निया राज्य की सीनेटर आइशा वहाब, एक अफ़ग़ान अमेरिकी हैं जिन्होंने कैलिफ़ोर्निया में जाति संरक्षण के लिए कानून पेश किया था। उन्हें ट्विटर पर “विदेशी एजेंट” कहा गया है। मुस्लिमों और दलितों के साथ सहयोग करने वाले ‘हिंदूज़ फॉर ह्यूमन राइट्स’ जैसे समूहों पर “वेश्या” होने और हिंदू लड़कियों के बलात्कार का समर्थन करने का आरोप लगाया गया है।
हरिता ईश्वरा कहती हैं कि पिछली पीढ़ी के लोग हिंदुत्ववादी नफ़रत से भरे संदेशों को लेकर संवेदनशील हो सकते हैं लेकिन 21वीं सदी में पली-बढ़ी युवा पीढ़ी के लिए गलत सूचनाएं अलग तरह से पैक की जाती हैं ताकि वे दुष्प्रचार का शिकार बन सके। चतुराई से इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों और ग्राफ़िक डिज़ाइन वाली इंस्टाग्राम पोस्ट नई पीढ़ी के लिए संदेश होते हैं। रंगीन पृष्ठभूमि पर चिपकाए गए चित्र और पाठ ऐसी बातें कहते हैं जैसे हिंदू “कश्मीर के मूल लोग” हैं या पाकिस्तान द्वारा 1971 में बांग्लादेशियों के नरसंहार को विशेष रूप से “हिंदू नरसंहार” कहते हैं, जो कि झूठ है।
प्रो. मिश्रा के मुताबिक पिछले पाँच सालों में ‘हिंदूफोबिया’ शब्द का इस्तेमाल बढ़ा है। “दावा यह है कि हिंदू राष्ट्रवाद पर कोई भी हमला या भारत में मुसलमानों के साथ व्यवहार की आलोचना करने का कोई भी प्रयास हिंदूफोबिया है… हिंदू आस्था पर हमला है।”
व्हाइटहाउस की पत्रकार सबरीना सिद्दीक़ी के सवाल को तो प्रधानमंत्री मोदी ने हवा में उड़ाते हुए कहा था कि भारत के डीएनए में ही लोकतंत्र है। लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका की ही संस्था फ्रीडम हाउस ने पिछले दिनों भारत को स्वतंत्र लोकतंत्र की श्रेणी से हटाकर आंशिक तौर पर स्वतंत्र लोकतंत्र देशों की श्रेणी में डाल दिया था। वहीं अमेरिका के धार्मिक स्वतंत्रता आयोग ने भी पिछले दिनों एक बार फिर भारत को विशेष चिंता वाले देशों की सूची में शामिल करने की सिफारिश की थी। ऐसा उसने लगातार चौथी बार किया था। आयोग ने कहा है कि भारत में धार्मिक अल्संख्यकों की हालत ठीक नहीं है। वहीं दुनियाभर में धर्म, जाति, नस्ल आदि के आधार पर की जाने वाली सामूहिक हत्याओं या नरसंहार पर अध्ययन करने वाली संस्था जेनोसाइड वॉच के संस्थापक प्रो. ग्रेगोरी एच स्टैंटन ने भारत को उन देशों की सूची मे रखा है जहाँ नरसंहार हो सकते हैं। उन्होंने पिछले साल जारी चेतावनी में कहा था कि भारत, मुस्लिम समुदाय के उत्पीड़न के साथ नरसंहार के आठवें चरण में पहुंच गया है। उन्होंने इस संबंध में कुल दस चरण निर्धारित किये हैं। रवाँडा में हुए नरसंहार को लेकर उन्होंने पहले ही चेतावनी जारी की थी।
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।