त्रिपुरा के एक स्थानीय पत्रकार, हम से फोन पर बात करते हुए कहते हैं, “बिप्लब देब कभी सीएम की तरह बर्ताव करते दिखे ही नहीं। ग़ैरज़िम्मेदारी और ज़ीरो प्रदर्शन का अगर कोई आला उदाहरण हो सकता है तो वह बिप्लब कुमार देब हैं। उनके (भाजपा) के त्रिपुरा के उस चुनावी घोषणापत्र को उठा कर देखिए, जो उन्होंने विधानसभा चुनाव में दिखाकर, चुनाव जीता था। उसमें से किसी भी एक भी घोषणा पर कोई काम नहीं हुआ। सिर्फ धर्म के नाम पर आप यहां चुनाव जीतते नहीं रह सकते।”
बिप्लब देब की छुट्टी
बिप्लब कुमार देब यानी कि विज्ञान के कई नए सिद्धांतों के स्वघोषित जनक, अब त्रिपुरा के सीएम नहीं हैं। उनका कार्यकाल, पूरा होने से पहले ही ख़त्म हो गया है और माणिक साहा, जो कि 4 साल पहले कांग्रेस से भाजपा में आए थे और अब त्रिपुरा भाजपा के अध्यक्ष भी थे, त्रिपुरा के नए सीएम होंगे। बिप्लब कुमार देब ने (ज़ाहिर है कि आलाकमान के निर्देश पर) अपना इस्तीफ़ा, शनिवार की शाम, राज्यपाल को सौंप दिया। भाजपा विधानमंडल दल की बैठक में माणिक साहा को नेता चुन लिया गया। माणिक साहा, त्रिपुरा की राजनीति में भाजपा में आने से पहले कोई बहुत बड़ा नाम नहीं थे पर माना जाता है कि पिछले 2 सालों में उन्होंने तेज़ी से पार्टी के अंदर तरक्की की है और माना जाता है कि बिप्लब देब की अकर्मण्यता के सामने भाजपा के लिए किसी निर्विवादित और बेदाग छवि वाले नेता को सीएम बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
Congratulations and best wishes to @DrManikSaha2 ji on being elected as the legislature party leader.
I believe under PM Shri @narendramodi Ji’s vision and leadership Tripura will prosper. pic.twitter.com/s0VF1FznWW
— Biplab Kumar Deb (@BjpBiplab) May 14, 2022
पूर्वोत्तर के 4 राज्यों में भाजपा की सरकार, सीएम पूर्व कांग्रेसी
माणिक साहा इस तरह से, पूर्वोत्तर में भाजपा के चौथे सीएम हो गए हैं – जो कांग्रेस से भाजपा में आए थे। इस कड़ी में सबसे बड़ा नाम है, हेमंत बिस्वा सर्मा का जो कि असम के मुख्यमंत्री हैं। सर्मा कांग्रेस से 2015 में नाराज़गी भरा ख़त लिखकर-उसे सार्वजनिक कर के, भाजपा में शामिल हो गए थे। राज्य के लोकप्रिय नेता था, भाजपा के लिए जम के प्रचार किया और 2016 में चुनाव जीतकर, भाजपा की सर्बानंद सोनोवाल की सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। भाजपा को पता था कि सर्मा, उसके स्टार कैंपेनर होंगे और 2019 में ये फिर साबित हुआ। सर्मा, 2021 के विधानसभा चुनाव के बाद, सर्बानंद सोनाबाल की जगह नए मुख्यमंत्री बनाए गए। कांग्रेस में भी सर्मा बड़े नेता ही थे, तरुण गोगई की सरकार में वित्त, कृषि, स्वास्थ्य जैसे अहम विभाग देखते थे। भाजपा ने उनको नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस का संयोजक बनाया और माना जाता है कि भाजपा को पूर्वोत्तर में, सत्ता-स्थापित करने में उनका बड़ा योगदान है।
इसके अलावा मणिपुर में भी कांग्रेस से ही आए, एन बीरेन सिंह की भाजपा की सरकार के सीएम हैं तो नगालैंड में सीएम नेफियू रियो ने भी अपने करियर की शुरुआत कांग्रेस से ही की थी। 1989 में वे पहली बार कांग्रेस के टिकट पर ही विधायक और फिर मंत्री बने थे। लेकिन फिर वे कांग्रेस से अलग हुए और न केवल कांग्रेस को एक दशक बाद सत्ता से बाहर किया बल्कि अब एनडीए की सरकार नें सीएम भी हैं।
और अब इस कड़ी में माणिक साहा का नाम जुड़ गया है। माणिक 6 साल पहले, भाजपा में शामिल हुए। इसके पहले, वे कांग्रेस में कुछ ख़ास उपलब्धि हासिल नहीं कर पाए थे, वे केवल कांग्रेस के नेता के तौर पर 1995 में वार्ड कमिश्नर का चुनाव जीते थे। भाजपा में आने के बाद उनका कद बेहद तेज़ी से बढ़ा, पार्टी के अंदर उनकी लोकप्रियता और बढ़ते गए नियंत्रण का अंदाज़ा सिर्फ इससे लगाया जा सकता है कि वे न केवल इन 6 सालों में पार्टी के राज्य अध्यक्ष बन गए बल्कि राज्यसभा के लिए भी नामित हो गए। अब वो त्रिपुरा के अगले सीएम होंगे।
बिप्लब देब कहां फेल हुए?
इस बारे में हमने कम से कम 3 पत्रकारों से बात की, जो त्रिपुरा में पत्रकारिता कर रहे हैं या फिर वहां की राजनीति पर नज़र रखते हैं। तीनों का एक ही जवाब था – हर मोर्चे पर! बिप्लब देब किसी एक मोर्चे पर फेल नहीं हुए और अगर उनसे कुछ एक गलतियां होती तो शायद, उनको चुनाव तक माफ़ कर दिया जाता। लेकिन उनको लेकर ज़मीन पर भयानक नाराज़गी थी और उत्तराखंड में चुनाव के कुछ ही महीने पहले, सीएम बदलने के प्रयोग के सफल होने के बाद भाजपा ने गुजरात और त्रिपुरा में भी यही प्रयोग दोहराने का फैसला किया है।
आख़िर पूर्वोत्तर में भाजपा पूर्व कांग्रेसियों के सहारे क्यों?
नाम न बताने की शर्त पर पूर्वोत्तर के ही एक भाजपा नेता ने हमसे कहा, “दरअसल पूर्वोत्तर में भाजपा, बाकी राज्यों की तरह ये शर्त नहीं रख सकती या निभा सकती है कि अध्यक्ष या मुख्यमंत्री आरएसएस का पूर्व स्वयंसेवक रहा हो या फिर उसका भाजपा की मूल विचारधारा से पुराना जुड़ाव रहा हो।” इसी बात को आगे बढ़ाते हुए, असम के एक स्थानीय नेता कहते हैं, “इसीलिए पूर्वोत्तर में असम के अलावा कहीं भी भाजपा नेता माइनॉरिटीज़ पर निशाना साधते नहीं दिखेंगे। त्रिपुरा में ये ग़लती हुई और इसका परिणाम सामने आएगा। अगर आप देखें तो, असम में भी भाजपा नेता भले ही अल्पसंख्यकों (ख़ासकर मुस्लिमों के ख़िलाफ़, सीएम तक के बयान हैं) के ख़िलाफ़ बयान दे दे लेकिन वो हिंदू धार्मिक अस्मिता का झंडा बुलंद नहीं करती। क्योंकि यहां ये नहीं चलेगा।”
पहले भाजपा नेता ही आगे कहते हैं कि आख़िर भाजपा की पुरानी रवायत कि उसके केंद्र या राज्य सरकारों के मुखिया, हमेशा आरएसएस की पृष्ठभूमि वाले होंगे, ये वैसे भी हमेशा नहीं चल सकती है। “आप यूपी में ही देखिए, योगी आदित्यनाथ हिंदूवादी तो हैं लेकिन वो आरएसएस से नहीं आते। आखि़रकार उनको सीएम बनाना पड़ा। और पूर्वोत्तर में तो न कभी आरएसएस का ज़ोर था, न वे ज़मीन पर क़ाबिज़ थे और न ही कभी हो सकेंगे। यहां की आबादी और संस्कृति, गुजरात की आबादी या संस्कृति नहीं है…”
इस बात को तार्किक तरीके से समझें तो पूर्वोत्तर की आबादी और सांस्कृति ढांचे में आरएसएस कभी घुसपैठ नहीं कर सका। उसका सबसे बड़ा कारण ये है कि वहां हिंदू धर्म बहुल आबादी नहीं है। पूर्वोत्तर के अधिकतर इलाकों में (असम को छोड़कर) आपको अलग-अलग कबीलाई आबादी मिलेगी, ईसाई धर्म को, बौद्ध धर्म को और यहां तक कि इस्लाम को मानने वाले भी मिलेंगे। हिंदू आबादी भी मिलेगी, लेकिन सांस्कृतिक तौर पर वो इतनी अलग है कि वो आरएसएस के खांचे में फिट नहीं बैठती। इसलिए ही भाजपा को असम या पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में ध्रुवीकरण के लिए घुसपैठियों का शब्द इस्तेमाल करना पड़ता है।
यही कारण है कि पूर्वोत्तर के राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के पास न तो कोई परंपरागत काडर है और न ही ज़मीनी और पुराने नेता। ऐसे में सरकार बनाने और गिराने के खेल से ही उसके पास नेता भी आते हैं और उनमें से ही किसी को सीएम या पार्टी अध्यक्ष बनाना होता है। अब सवाल ये है कि भाजपा की ये रणनीति कितनी लंबी रेस का घोड़ा है या फिर ये रेस, बहुत लंबी है ही नहीं।