धोखा: केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 96% तक ख़ाली हैं शिक्षकों के आरक्षित पद!

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देश की राजनीति में आरक्षण काफी असरदार मुद्दा है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी ताल ठोंककर कहते रहे हैं कि कोई माई का लाल आरक्षण हटा नहीं सकता। लेकिन इस घोषणा के तले बहुत अँधेरा है। एक तरफ़ निजीकरण के ज़रिये आरक्षण की संभावना खत्म की जा रही है तो दूसरी तरफ आरक्षित पदों को भरने में उदासीनता दिखायी जा रही है। आलम ये है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के आरक्षित पद बड़े पैमाने पर ख़ाली पड़े हुए हैं। प्रोफ़ेसर के पदों पर तो 96 फ़ीसदी से ज्यादा पद खाली हैं।

ऊपर का चार्ट बताता है कि आलम क्या है। आज़ादी के सत्तर साल बाद ये केंद्रीय विश्वविद्यालयों के आँकड़े हैं। ये आँकड़े जुटाये हैं दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में एड्हाक शिक्षक और सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों पर बेहद जागरूक, डॉ.लक्ष्मण यादव ने। उन्होंने बहुत धैर्य और लगन से आरक्षण के नाम पर हो रहे खेल की तह खोली और 8 जुलाई को उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से अपनी उस आरटीआई का जवाब मिल गया जिसमें ख़ाली पदों के बारे में जानकारी माँगी गयी थी। यूजीसी ने अपने जवाब में बताया है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति के 82.82 फ़ीसदी, अनसूचित जानजाति के 93.98 फ़ीसदी और पिछड़े वर्ग के 96.65 फीसदी पद ख़ाली पड़े हैं।

डॉ.लक्ष्मण यादव ने एसोसिएट और असिस्टेंट प्रोफेसरों के रिक्त पदों के बारे में भी जानकारी माँगी थी। उन्हें बताया गया कि एसिसिएट प्रोफेसरों के अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 76.57 फ़ीसदी, अनसूचित जनजाति के 86.01 फ़ीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग के 94.30 फ़ीसदी पद ख़ाली पड़े हैं इसी तरह असिस्टेंट प्रोफेसर में अनसूचित जातियों के 27.92 फ़ीसदी, अनसूचित जनजातियों के 33.47 फ़ीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग के 41.82 फ़ीसदी पद ख़ाली हैं।

आरक्षण वह उपाय था जिससे दलित वंचित समुदाय में आज़ाद भारत में सम्मानजनक स्थान पाने का भरोसा जगा था। 1932 में महात्मा गाँधी और आंबेडकर के बीच हुए पूना पैक्ट में आज़ाद भारत को न्यायपूर्ण और प्रतिनिधित्वकारी बनाने का वादा था। आज़ादी के साथ ही अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण देना शुरू किया गया और मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद पिछड़े वर्गों को भी इसका लाभ हुआ और आरक्षण से अपनी स्थिति सुधार पाने वाला एक मध्यवर्ग भी सामने आया जो यूँ शायद संभव नहीं था। लेकिन मौजूद सत्ता संरचना आरक्षण न लागू करके इस चक्र को उलटना चाहती है। यह सयोग नहीें कि जो सवर्ण जितना आरक्षण के विरुद्ध मुखर है, उतना ही वह बीजेपी के समर्थन में भी मुखर है।

ज़ाहिर है, यह एक बड़े षड़यंत्र का नतीजा है। सवर्ण प्रभुत्व वाली अफसरशाही हो या फिर सत्ता, आरक्षित पदों को भरने की इच्छा किसी को भी नहीं है। न्यायपालिका के रुख से भी  आरक्षित वर्गों में निराशा ही रहती है आमतौर पर।

इस संबंध में डॉ.लक्ष्मण यादव ने एक फ़ेसबुक पोस्ट लिखी है। उन्होंने लिखा-

देश भर के 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दलित, पिछड़े, आदिवासी व PwD कोटे की सीटों का कुल चार्ट आपके लिए तैयार किया है। इसे तैयार करने में बहुत मेहनत की। पहले तो जोख़िम उठाकर RTI लगाया, 1 जनवरी 2020 के ताज़ा आँकड़े मँगवाए। उसके बाद पिछले कई घंटों की मेहनत से यह चार्ट तैयार किया।

यह एक जवाब उनके लिए भी है, जो मुझ पर ये व्यंग्य कर रहे थे कि मेरा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और बीएचयू में नहीं हुआ, तो मैं खुन्नस में उच्च शिक्षा के खिलाफ़ लिख रहा हूँ। असल में यह मैंने चुना है और पिछले कई सालों से इस काम में लगा हूँ। बहुत गालियाँ खाईं, दुश्मन बनाए। परमानेंट नहीं हुआ, लेकिन जो कर सकता हूँ, कर रहा हूँ।

आज तक यही समझा है, सीखा है कि जहां तक हम जैसे लोग पहुँच सके हैं, कभी नहीं पहुँच पाते; अगर हमारे पुरखों ने अपना सब कुछ झोंककर हमारे लिए रास्ते नहीं बनाए होते। इसलिए हमारी यह ज़िम्मेदारी है कि जो काम हम कर सकते हैं, उसे बिना डरे, बिना हिचके करते जाएँ। मैं वही कर रहा हूँ। यह सब अपने आप के लिए कर रहा हूँ। ताकि ख़ुद से नज़र मिला सकूँ।

बाकी सब वक़्त पर छोड़ देते हैं कि ऐसे कामों के एवज़ में वक़्त हमें क्या सौगात बख़्शता है। जब तक बोलने, लिखने और लड़ने लायक़ बचे रहेंगे; बोलते, लिखते और लड़ते रहेंगे।

फ़िलहाल आंकड़ों पर फ़ोकस कीजिए।

मैंने तीन अलग अलग चार्ट बनाए हैं और तीनों के ज़रिए यह दिखाने की कोशिश की है, प्रोफ़ेसर की तीनों पायदानों पर आरक्षित वर्ग के लिए स्वीकृत पदों की कितनी फीसदी सीटें आज भी साज़िशन खाली रखी गई हैं। असल खेल यह है कि उच्च शिक्षा में जब से आरक्षण लागू हुआ, उन्होंने आरक्षित कोटे के पदों को कभी भरा ही नहीं। और अब सब कुछ बेच रहे हैं।

बाकी आपको तय करना है कि ऐसे आँकड़े आपके लिए कोई मायने रखते हैं या नहीं।

वैसे, यूजीसी द्वारा उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में PWD यानी पर्सन विद डिसएबिलिटीज़ के पद भी ख़ाली पड़े हुए हैं। मोदी जी ने उन्हें दिव्यांग तो कह दिया, लेकिन उनके साथ न्याय भी हो, इसकी ज़रूरत नहीं समझी।