इस बार बिहार चुनाव में महागठबंधन, एनडीए, ग्रेंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट, प्रगतिशील लोकतांत्रिक गठबंधन समेत छह गठबंधन चुनावी मैदान में है। इसके अलावा द प्लूरल्स पार्टी जैसी तमाम छोटी पार्टियां भी चुनावी मैदान में हैं। ऐसी स्थिति में निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले नेताओं के प्रति बिहार के मतदाताओं का मोहभंग हो रहा है। इसका उदाहरण हम पिछले चुनावों में देख सकते हैं। 2015 के चुनाव में मात्र 4 निर्दलीय प्रत्याशी जीतकर विधानसभा पहुंचे थे, उससे पहले 2010 के चुनावों में 6, 2005 के चुनावों में 10 उम्मीदवार जीते थे। हांलाकि 1990 के दौर में दर्जनों विधायक निर्दलीय चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचते थे और सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाते थे।
28 अक्टूबर को बिहार में प्रथम चरण का चुनाव समाप्त हो गया है। 16 जिलों की 71 विधानसभा सीटों पर प्रथम चरण में 1066 प्रत्याशी मैदान में थे, जिनमें निर्दलीय 406 प्रत्याशी चुनावी रण में थे। दूसरे व तीसरे चरण की वोटिंग 3 नवम्बर और 7 नवम्बर को है। इन चरणों में कुछ ऐसे निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में हैं जो बिहार चुनाव में अपनी अलग छाप छोड़ रहे हैं।
ऐसे ही एक प्रत्याशी 39 साल के मनरेगा मजदूर संजय साहनी मुजफ्फरपुर की कुढ़नी/कुरहनी विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं जिनको अलमारी चुनाव चिन्ह मिला है। इनका मुकाबला एनडीए उम्मीदवार केदार प्रसाद गुप्ता (निवर्तमान विधायक) और आरजेडी के उम्मीदवार अनिल साहनी से है।
संजय साहनी इस चुनाव में वादा करने की बजाय अपने पिछले किए गए काम के आधार पर वोट मांग रहे हैं। संजय अपने क्षेत्र में मनरेगा एक्टिविस्ट के रूप में पहचान रखते हैं।
सातवीं तक पढ़ाई करने वाले संजय 2002 में बिहार के लाखों श्रमिकों की तरह कमाने के लिए दिल्ली चले गए। दिल्ली के जनकपुरी इलाके में संजय इलेक्ट्रिशियन का काम करते थे। इस दौरान संजय का गांव जाना हुआ और मनरेगा में भ्र्ष्टाचार के बारे में पता चला। वापस दिल्ली लौटने पर पास के सायबर कैफे जाकर इंटरनेट पर मनरेगा के बारे में सर्च किया तो इनको अपने गांव का मनरेगा डाटा मिल गया। इसमें इन्होंने देखा कि मनरेगा में रोजगार पाने वालों की सूची में इनके गाँव वालों का भी नाम हैं। संजय वापस गाँव आए तो इन्होंने गाँव वालों से पूछा कि क्या उन्हें मनरेगा तहत काम और पैसा मिल रहा है तभी इन्हें पता चला कि इनके गाँव में मनरेगा की किसी को जानकारी नहीं है। यानी मनरेगा में इनके नाम पर मजदूरी के पैसे कोई और खा रहा है। लेकिन रसूखदारों ने इन पर ही जालसाजी का आरोप लगा दिया।
वापस संजय दिल्ली लौट गए और ज्यादा जानकारी जुटाने लग गए। इंटरनेट पर संजय को आरटीआई कार्यकर्ता निखिल डे, अरुणा रॉय, बेल्जियम मूल के अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के मोबाइल नम्बर मिल गए। उसके बाद इन लोगो के सम्पर्क में आए और इनसे मनरेगा के बारे में पूरी जानकारी ली तथा और ज्यादा दस्तावेज जुटा के अपने गाँव लौट आए। गांव लौटने के बाद इन्होंने मनरेगा के बारे में जागरूकता फैलाने का काम शुरु किया।
साल 2013 में संजय ने समाज परिवर्तन शक्ति संगठन-मनरेगा वॉच बनाया। कुछ समय बाद ही संजय वहाँ के भ्र्ष्ट लोगों की आँखों मे खटकने लगे और इनपर कई जूठे मुकदमे लगा दिए गए जिनमें हत्या जैसे संगीन केस भी हैं।
लेकिन संजय का संगठन मनरेगा के लिए लगातार काम कर रहा है और संजय दावा करते हैं कि उन्होंने सवा लाख लोगों को मनरेगा में रोजगार दिलवाया है। संजय का संगठन सार्वजनिक वितरण प्रणाली(PDS) के लिए भी संघर्ष करता है। इसके अलावा ग्रामीणों की अलग-अलग समस्याओं के लिए भी यह संगठन काम करता है।
संजय आमिर ख़ान के शो ‘सत्यमेव जयते’ में भी नजर आ चुके हैं। इनके चुनावों में जाने-माने अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज चुनाव प्रचार के लिए अपने आठ स्वयंसेवक छात्रों की टीम के साथ कुढ़नी में डटे हुए हैं और प्रचार की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं।
ज्यां द्रेज यहाँ आने के सवाल पर जवाब देते हैं कि, ” संजय की उम्मीदवारी भारत की चुनावी राजनीति में सकारात्मक बदलाव है।” वे कहते हैं, ” मनरेगा का काम सिर्फ लोगों को काम देना नहीं था, ये एक काम था। इसके अलावा लोगों को सम्पूर्ण अधिकार मिले, ऐसे लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लें, ये जरूरी है। संजय साहनी के चुनावी मैदान में आने की प्रक्रिया बेहद खूबसूरत है, वे खुद मजदूर रहे हैं और जिन मजदूरों ने उनके साथ संघर्ष किया है वो अपने में से किसी को चुनना चाहते हैं, इससे बेहतर सोच क्या होगी।” इसके अलावा संजय साहनी के बारे में ज्यां द्रेज कहते हैं कि,” मुझे संजय साहनी जैसे उम्मीदवार पर विश्वास है जो लोकतांत्रिक मूल्यों को जीवित रखे हुए हैं.. उनके जैसे लोगों को हमारी विधानसभा में होना चाहिए ताकि हमें एक राज्य के रूप में प्रगति करने में मदद मिल सके।”
संजय साहनी के चुनाव का ख़र्च भी क्राउड फंडिंग के जरिए ही हो रहा है। अरुंधति रॉय जैसी बड़ी लेखक भी संजय के कैम्पेन में क्राउड फंडिंग का काम कर रही हैं। चुनाव प्रचार का जिम्मा भी संजय के साथ मजदूरी करने वाली महिलाओं और पुरुषों ने संभाल रखा है। इनका प्रचार पैदल ही हो रहा है तो साइकिल, मोटरसाइकिल, टेम्पो आदि वाहनों द्वारा भी किया जा रहा है।
संजय मतदाताओं से अच्छी शिक्षा, मनरेगा के तहत सबको काम, ब्लॉक दफ्तर में ही कार्यालय खोलने का आश्वासन दे रहे हैं जिसके की उनको काम के लिए दफ्तरों के चक्कर ना लगाना पड़े।
ऐसी ही एक कहानी नरपतगंज विधानसभा की है
नरपतगंज विधानसभा अररिया जिले में पड़ती है। नरपतगंज से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे अखिलेश कुमार पहले बिहार सरकार में डीएसपी रहे। पद पर रहते हुए इन्होंने शानदार काम करते हुए कई अपराधियों को जेल की सलाखों के पीछे पहुँचाया। अब पटना की साइंस कॉलेज में व्याख्याता के पद पर हैं। अखिलेश कुमार छात्रों को सिविल सर्विसेज का मार्गदर्शन निशुल्क उपलब्ध करवाते हैं तथा छात्रों के लिए हमेशा उपलब्ध रहते हैं।
नरपतगंज विधानसभा सीट पर मतदान तीसरे चरण में होंगे, इनका मुकबला एनडीए के जयप्रकाश यादव और आरजेडी के निवर्तमान विधायक अनिल यादव से होना है। यहाँ से जन अधिकार पार्टी (जाप) के प्रिंस विक्टर यादव भी मुकाबले में हैं।
इनका कहना है कि सत्ता आम लोगों के लिए संवेदनशील बने और लोगों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाएं, इसके लिए इन्होंने चुनाव में उतरने का फैसला किया है।
ये ‘जीरो बजट कैम्पेन’ चला रहे हैं। ये पैदल ही लोगों से घूम-घूम कर मिल रहे हैं। कहीं टीन-टप्पर, झोपड़ी में बैठकर लोगों के साथ खाना खाकर बात करते हैं और फिर प्रचार के लिए आगे बढ़ जाते हैं।
कोई इनसे पूछता है कि ‘कौन जात ह?’ तो अपना नाम अखिलेश कुमार बता देते हैं। पूरा नाम पूछने पर डॉ अखिलेश कुमार बता देते हैं और बोलते हैं कि अब जाति का क्या करना है.. ये बाकी नेताओं जैसे झूठे सपने बेचने के बजाय शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों के प्रण के साथ मैदान में है।
राजनीति में ऐसे लोगों को आने से आम जनता को एक उम्मीद की किरण नज़र आती है और अच्छे लोगों में राजनीति में आने की प्रेरणा जन्म लेती है।
निर्दलीय राजनीति का दौर गर्त की ओर-
बिहार चुनाव में निर्दलीयों उम्मीदवारों का रोल पिछले कुछ चुनावों से कमतर हो गया है। अब मतदाता भी चाहते हैं कि उनका विधायक किसी दल से जुड़ा हो , खासकर उस दल से जिसकी सत्ता में आने के सम्भावना ज्यादा हो। यह भाव क्षेत्र के विकास की आकांक्षा से प्रेरित होता है। यही भाव उम्मीदवारों में भी होने लगा है। इसलिए चुनाव लड़ने के इच्छुक नेता किसी न किसी पार्टी से टिकट लेने की जुगत में लगे रहते हैं। यही कारण है कि बिहार में इतने राजनीतिक दल या तो गठबंधन में है या स्वतंत्र चुनाव लड़ रहे हैं।
बिहार में एक समय दबंग होना भी निर्दलीय विधायकों की पूंजी हुआ करती थी। अपने इलाकों में या तो लोकप्रियता हासिल होती थी या धनबल-बाहुबल के आधार पर चुनाव जीत लिया जाता था। ऐसे बाहुबली नेता ईवीएम आने से पहले या तो बूथ कैप्चरिंग करके चुनाव जीत लेते थे या मतदाता को डरा धमका के अपने पक्ष में कर लेते थे, लेकिन प्रशासन में सतर्कता और ईवीएम आने से यह अब सम्भव नहीं रहा।
इसलिए यह कहना अब सही होगा कि बिहार की सम्पूर्ण राजनीति दलीय राजनीति पर निर्भर हो चुकी है।