आज कल टीवी स्क्रीन पर फिर से आंकड़ों का दौर आया है! एक ऐसा विचित्र समय आया है की, हर चैनल पर कोरोना संक्रमित, संक्रमण से बाहर निकले और कोरोना संक्रमण से मरने वालों की संख्या किसी चुनावी नतीजे की तरह निरंतर दिखाई जा रही है! ऐसे वक़्त में जब पूरा विश्व इस डेटा का उपभोक्ता बना हुआ है, तब एक अहम सवाल उठता है, कि क्या हमें इस डेटा को समझने के लिए कुछ नए पैमाने और कुछ नयी इकाइयों की, ज़रूरत नहीं है? जहां एक तरफ भीलवाड़ा के कलेक्टर राजेंद्र भट्ट को भी सुनना ज़रूरी है तो वहीँ बहुसंख्यक आदिवासी प्रदेशों के मुख्य मंत्रियों के सवालों पर ध्यान देना भी ज़रूरी! जहां एक तरफ संक्रमित लोगों की संख्या जानना भी आवश्यक है, तो वहीँ दूसरी तरफ कितने टेस्ट हुए वो जानना भी अनिवार्य है! एक डेटा एनालिस्ट होने के नाते हमें ये सिखाया जाता है की डेटा दुनिया को देखने का एक दृष्टिकोण है, परन्तु एकमात्र द्रष्टिकोण नहीं है, इसीलिए, हमारी कोशिश यहाँ ये रहेगी की आप सारे अपवादों और कार्नर केसेस को समझें।
पहले 30 दिन में कोरोना से बड़ा सिस्टम का संकट
बीते कुछ दिनों में झारखण्ड और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों ने अपनी विवशताओं के बारें में विस्तार से चर्चा की है। एक तरफ झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन ने इस बात पर दुःख जाहिर किया है कि झारखण्ड ने 21 मार्च से केंद्र से PPE, वेंटिलेटर, टेस्टिंग किट्स का अनुरोध किया था, वो भी उन्हें समय पर वो मुहैय्या नहीं कराये गए। उनके मुताबिक, प्रदेश ने, केंद्र से 300 थर्मल स्कैनर और 75,000 PPE किट्स की मांग रखी थी, बावजूद इसके उन्हें सिर्फ 100 थर्मल स्कैनर और 5000 PPE किट्स ही उपलब्ध कराये गए। इसी तरह छत्तीसगढ़ के मुख्य मंत्री, भूपेश बघेल ने केंद्र से जन धन की राशि को 500 से बढाकर 750 करने का अनुरोध किया था। जब एक ओर उत्तर प्रदेश सरकार ने 15 जिलों को सील करने का निर्णय लिया, उड़ीसा और पंजाब ने 1 मई तक लॉकडाउन बढ़ाने की अधिसूचना जारी की है। हालात अंततः वहीं पहुंचने लगे हैं, जहां उनके जाने की उम्मीद थी। सबसे पहले सूरत में प्रवासी मजदूर वेतन और अपने राज्य पहुंचाने की मांग करते हुए, हुए सड़कों पर उतर आते है-वहाँ आगज़नी और हंगामा होता है, सीलिंग के निर्देश के बाद उत्तर प्रदेश के बाजारों में भीड़ इकट्ठी हो जाती हैं, पंजाब में निहंग साधु-पुलिस से झगड़े में, एक पुलिसकर्मी का हाथ काट देते हैं, दिल्ली में एक शेल्टर होम में आग लगा दी जाती है तो ये लेख लिखे जाते समय, बिहार में किसान सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे होते हैं। इसी सब के साथ ICMR दावा कर रहा होता है कि हम अभी कम्युनिटी ट्रांसमिशन की स्टेज में नहीं पहुंचे है और हमारे हालात बाकी देशों से बेहतर हैं, पंजाब के मुख्य मंत्री कह देते हैं कि उनका राज्य स्टेज 3 में हैं। तब इन इन विरोधाभासी बयानों और निर्णयों के चलते, कुछ स्वाभाविक प्रश्न खड़े हो जाते हैं और इन सब को समझने के लिए एक सारगर्भित परिप्रेक्ष्य का होना ज़रूरी हो जाता है।
समस्या के जितने पहलू, उतने ही समाधान के चरण
इन समस्याओं को हम तीन पहलुओं में बाँट सकते हैं। पहला, राज्यों के स्तर पर क्योंकि स्वास्थ्य राज्य का विषय हैं, तो क्या हम राज्य स्तर पर लॉजिस्टिकली इस संकट से लड़ने के लिए तैयार हैं? दूसरा, क्योंकि हाल में केंद्र सरकार ने फंड्स समेत कोरोना से लड़ाई के तमाम संसाधन, अपने पाले में कर लिए हैं – तो क्या केंद्र और राज्य सरकारों में आपसी ताल मेल हैं? और तीसरा क्या हमारी सरकारें निर्णय लेते वक़्त अपवादों पर विचार कर रही हैं?
कितने तैयार हैं राज्य?
ICMR के मुताबिक़ अब तक भारत में, 12 अप्रैल रात 9 बजे तक 1,95,748 सैंपल और 1,81,028 लोगों की टेस्टिंग हो चुकी है। इसमें से कुछ 8312 कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं। 12 अप्रैल के दिन 15,583 सैंपल रिपोर्ट किये गए, इनमें से 544 कोरोना संक्रमित पाए गए। टेस्ट्स के मामले में भारत का प्रतिदिन टेस्ट औसत, इस वक़्त विश्व के महज 21 देशों से ही ज्यादा है, इन 21 देशों में इथियोपिया, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार जैसे नाम शुमार हैं और ग़ौरतलब है कि इन देशों की आबादी और विविधता, हमारी तुलना में कुछ नहीं है। यहाँ तक कि हमारी मीडिया का चहेता पाकिस्तान भी हमारे देश से ज्यादा टेस्ट कर रहा है। आंकड़ों के मुताबिक भारत प्रति मिलियन केवल 110 कोरोना परीक्षण ही कर रहा है, वही पाकिस्तान प्रति मिलियन 203 टेस्ट्स कर रहा है। तो हमारे यहाँ कोरोना के कम मामलों का पाए जाने का एक कारण, कम टेस्टिंग भी है। राज्यों द्वारा संचालित टेस्ट लैब्स, केवल 36% क्षमता पर ही काम कर रही हैं।
अगर हम प्रदेशों के हालात समझना चाहते हैं तो कुछ डेटा पर नज़र डालनी होगी। नीचे दिए गए ग्राफ में, 10 अप्रैल तक के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि महाराष्ट्र में सबसे अधिक 30,229 टेस्ट्स किये गए हैं, उसके बाद राजस्थान में 18,281, केरल में 11,826, दिल्ली में 9,363 सैंपल की जांच हुई है। इन चार राज्यों के टेस्ट्स, देश के कुल परीक्षणों का 50 फीसदी से ज्यादा हिस्सा बनाते हैं। दूसरी बात, PPM (Tests per million) का आंकड़ा दिल्ली में 464 और केरल में 335 है, जबकि वहीं प. बंगाल में ये संख्या घट कर 19, बिहार और उत्तर प्रदेश में औसतन 38 ही रह जाती है। जबकि इन राज्यों की आबादी कहीं ज़्यादा है। इससे पहली बात ये सामने आती है, कि राज्यों में उनकी जनसंख्या के मुताबिक़ टेस्टिंग नहीं की जा रही है। दूसरी बात इतने बड़े अंतर का मतलब ये भी है की हर राज्य के पास पर्याप्त मात्र में टेस्टिंग किट्स उपलब्द्ध नहीं है।
नीचे एक दूसरा ग्राफ है, जिसमें महाराष्ट्र, दिल्ली, राजस्थान, तमिलनाडु में कोरोना के सबसे ज्यादा मामलों और प. बंगाल और बिहार में कम मामले हैं। इन आंकड़ों का सीधा सम्बन्ध इन राज्यों में किये गए टेस्ट प्रति मिलियन की संख्या से है।
ऐसे में जब, हम पर्याप्त टेस्ट ही नहीं कर रहे हैं, तो ICMR इतने आत्मविश्वास से कैसे कह सकता है की हम स्टेज 3 में नहीं पहुंचे हैं? कम टेस्टिंग किट्स के लिए पिछले दो दिन में एक अच्छी खबर आई है, कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने अंततः माईलैब्स में किट्स के प्रोडक्शन के लिए निवेश किया है। इससे किट्स का उत्पादन बढ़ेगा और हर हफ्ते 15 से 20 लाख टेस्टिंग किट्स का उत्पादन हो सकेगा। लेकिन आने वाले समय में ये ज़रूरी होगा कि इन संसाधनों का वितरण हर राज्य में उचित मात्रा में हो।
लेकिन इसके साथ ही ये भी जानना ज़रूरी है कि WHO की चेतावनी के बावजूद, भारत सरकार ने 19 मार्च को PPE बनाने में इस्तेमाल करी जाने वाले कच्चे माल के निर्यात पर पाबंदी लगाई और 2 दिन पहले PPE को फिर से सैनिटाइज़ करके इस्तेमाल करने के निर्देश जारी किये। इसका मतलब देश में या तो PPE पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं, या फिर जल्द ही मामले इतने बढ़ने की आशंका है कि ये कम पड़ जाएंगे। (इसके लिए देखें हमारी दूसरी स्टोरीज़, जो पीपीई किट्स की कमी पर हैं।) तो जब मध्य प्रदेश में कोरोना संक्रमित चिकित्सकों के निधन और दिल्ली समेत अन्य राज्यों में मेडिकल स्टाफ के संक्रमित होने की खबर के बाद PPE का न मुहैय्या होना एक बहुत बड़ी मुश्किल बन जाता है। इस सबके बाद ये सवाल पूछा जाना लाजमी है क्या राज्य सरकारों के पास साधन और सुविधायें है इस महामारी से जूझने के लिए? अगला पहलू, इसके साथ आने वाले अगले सवाल से पैदा होता है।
केंद्र और राज्य का तालमेल
दूसरा अहम पहलू ये है कि क्या केंद्र और राज्य सरकारों के बीच अच्छा ताल मेल है? छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल ने कहा की केंद्र ने राज्य सरकारों से 21 दिन का लॉकडाउन लगाने से पहले कोई विचार विमर्श नहीं किया और अगर केंद्र ने विदेश से आने वाले लोगों को पहले से क्वारेन्टाइन किया होता तो शायद संक्रमण को नियंत्रण में लाया जा सकता था। हां, ये एक राजनैतिक बयान है, लेकिन प्रवासी मजदूरों की आपबीती को देखें, तो ये निश्चित है कि राज्य और केंद्र सरकारों को आपस में ताल मेल बिठाना चाहिए था। उधर, पंजाब और ओडिशा ने लॉकडाउन बढ़ाने के अलग से आदेश दिए हैं। कई राज्यों ने बहुत से हॉटस्पॉट्स घोषित कर के, सील किये हैं। यहां भी भ्रम का पनपना या उलझनों का आना तय है। तीसरा हेमंत सोरेन ने ये भी आशंका जताई कि जब लॉकडाउन हटेगा तब निश्चित है कि करीब 6-7 लाख प्रवासी मजदूर, झारखण्ड वापिस लौटेंगे। तब जब राज्यों का GST कर भी अब तक केंद्र पर बकाया है, इस माइग्रेशन की समस्या से कैसे जूझा जाएगा?
इस साल राज्यों के लिए, जो GST कंपनसेशन फण्ड इकठ्ठा हुआ है, उसमें 30,000 करोड़ की कमी है। पश्चिम बंगाल का कहना है कि केंद्र का उस पर 35,000-40,000 करोड़ का GST कर्ज बकाया है। ऐसे में राज्य जो पीडीएस और अधिक अन्न का पैकेज मुहैया कराने की भरसक प्रयास कर रहे हैं, आने वाले समय में उनकी स्थति और भी विकट हो जाएगी।
अपवाद भी अहम होते हैं
तीसरा पहलू, क्या हमारी सरकारें निर्णय लेते वक़्त अपवादों पर विचार कर रही हैं? इस सवाल के सामजिक, आर्थिक और प्रचालन सम्बन्धी पहलू हैं। सामाजिक पहलू तो हमारे सामने हैं ही जब पहली बार लॉकडाउन के निर्देश आये तो कैसे हमारे प्रवासी मजदूरों को 300,से 900 किलोमीटर तक की दूरी पैदल तय करनी पड़ी, किस तरह उसी पदयात्रा के दौरान कितने लोगों की मृत्यु हुई और इससे जाहिर होता है, सरकार ने निर्णय लेते वक़्त इनके बारें में योजनाबद्ध तरीके से सोचा ही नहीं! आर्थिक तौर पर जो 1.7 लाख करोड़ का पैकेज घोषित किया गया उसमें कई तरह की समस्याएं थी, पहली कि किसानो के लिए किसान समनिधि योजना के तहत 2000 रुपए उपलब्ध कराने की घोषणा में ना तो सामान्य से ज्यादा राशि की मदद उपलब्ध कराई गयी और न ही उस योजना में करीब 14 करोड़ भूमिहीन कृषि मजदूरों के लिए कोई राहत दी गयी। दूसरा, मनरेगा के अंतर्गत 5 करोड़ लोगों का भत्ता 182 से 202 किया गया, जबकि खुद भारत सरकार के आंकड़ों के हिसाब से देश में साल 2019-20 में मनरेगा में 7.81 करोड़ लोग पंजीकृत हुए थे तो सिर्फ 5 करोड़ लोगों के लिए ये योजना क्यों थी? तीसरा, दीनदयाल उपाध्याय अन्त्योदय योजना के तहत, महिला समूहों को 20 लाख की लोन राशि का प्रस्ताव पारित हुआ, जबकि जब सारे जानकारों ने आने वाले समय में आर्थिक मंदी का डर ज़ाहिर किया है, तब मदद की बजाय लोन क्यों दिया जा रहा है? इसको चुकाने में कौन सक्षम होगा? तीसरा, प्रचालन समबंधी मुश्किलों में जो स्थिति देखने में आ रही है, उनमें से एक ये है की जन-धन योजना के तहत 500 रुपए की राशि की घोषणा के बाद हज़ारों की तादाद में लोग बैंकों के सामने लाइन लगाए हुए है। ग्रामीण इलाकों में बैंकों की शाखा में भारी संख्या में लोग उमड़ रहे हैं, तो एक ऐसी महामारी जहां पर सोशल डिस्टेंसिंग की आवश्यकता थी, तब सरकार ने इस तरह के आने वाले अपवादों के बारें में क्यों नहीं सोचा?
जब मुख्यमंत्रियों के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग में प्रधानमंत्री घर के बने हुए मास्क में सामने आतें हैं और कहते हैं कि मुख्यमंत्रियों की सलाह से मदद मिलेगी, तब ये सारे सवाल जेहन में ज़रूर उठते हैं कि ये शुरूआत से ही से क्यों नहीं किया गया? क्या हमारे निर्णय हमारी देश की पृष्ठभूमि और समाज के आधार पर नहीं लिए गए? क्या सिर्फ प्रतीकात्मक तरीके से निर्णय लिए गए? और क्या जिस नियंत्रित और सुरक्षित माहौल में देश का प्रधानमंत्री रहता है, बाकी नागरिक और खासकर, सरकारी कर्मचारी, एसेंशियल सर्विस कर्मी और मेडिकलकर्मी भी रहते हैं कि वो भी घर के बने मास्क में इस संक्रमण से सुरक्षित रहेंगे? ऐसे में क्या पीएम वीडियो में ऐसा मास्क पहन कर, एक बार फिर थाली बजाने और दिया जलाने के प्रतीकों की तरह, जनता को ही फिर से ये संदेश दे देना चाहते हैं कि सब ज़िम्मेदारी जनता की ही है, सरकार की नहीं…यानी कि उनके भरोसे न रहा जाए। तो क्या मास्क अनिवार्य करने वाली सरकार की ज़िम्मेदारी मास्क या पीपीई उपलब्ध करवाना नहीं? और अगर ये सब ज़िम्मेदारियां सरकार की नहीं, तो फिर सरकार आख़िर किन ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए चुनी जाती है?
(लेखिका, यूएसए और यूके में प्रतिष्ठित संस्थानों में काम कर चुकी डेटा एनालिस्ट हैं।)