मीडियाविजिल संवाददाता
दिल्ली के मीडिया में मौसम बहुत तेज़ी से बदलता है। अप्रत्याशित नज़ारे देखने को मिलते हैं। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में मीडिया मंच के द्वारा ”मीडिया की आज़ादी और साख” पर आयोजित परिचर्चा में आखिरी वक्त पर ‘वाइल्ड कार्ड’ से प्रवेश पाए आइआइएमसी के निदेशक केजी सुरेश ने अन्य सभी वक्ताओं को आवाज़ और तेवर के मामले में पीछे छोड़ दिया, तो राहुल देव और रामबहादुर राय ने आयोजकों की मंशा पर पानी फेरते हुए बड़े सधे हुए ढंग से मीडिया की आलोचना रखी। अध्यक्ष वेदप्रताप वैदिक ने तो सीधे कह डाला कि ”पत्रकारों को डरने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि सरकार की हिम्मत नहीं है कि कुछ कर पाए”।
इस कार्यक्रम की परिकल्पना हफ्ते भर पहले वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय के संरक्षण में चार पत्रकारों ने तैयार की थी जिनमें अवतंस चित्रांश, शक्ति शरण सिंह, आशुतोष पाठक और अरुण पांडे शामिल थे। पुष्ट जानकारी के अलावा यह बात इस तथ्य से भी ज़ाहिर होती है कि राय ने अपने संबोधन में शक्ति सिंह को आयोजन करवाने का श्रेय देते हुए धन्यवाद दिया। आयोजकों का राय से बीएचयू के छात्र होने के नाते पुराना परिचय रहा है जिसके चलते यह कार्यक्रम संभव हो सका।
कार्यक्रम का मूल उद्देश्य एनडीटीवी के समर्थन में जुटे पत्रकारों की एकता की हवा निकालना थी और उसके बरक्स एक राष्ट्रवादी विमर्श खड़ा करना था। इसीलिए जगह वही चुनी गई- प्रेस क्लब का लॉन- जहां एनडीटीवी के मालिक प्रणय रॉय के समर्थन में कुछ दिन पहले पत्रकारों की भीड़ जुटी थी। चूंकि कार्यक्रम करवाने के लिए एक बैनर की ज़रूरत थी तो लगे हाथ ‘मीडिया मंच’ नाम से एक फौरी बैनर तैयार कर लिया गया जिसका विवरण ज्यादा से ज्यादा ‘न भूतो न भविष्यति’ ही दिया जा सकता है।
कार्यक्रम के लिए वरिष्ठ पत्रकारों को हड़बड़ी में फोन लगाया गया और उनकी सहमति ली गई। जो दूसरी धारा के पत्रकार थे, उन्हें इस बात की बिलकुल भी भनक नहीं लगने दी गई कि कार्यक्रम का उद्देश्य क्या है और आयोजक कौन है। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडि़या ने कार्यक्रम के बाद में बताया, ”मुझे तो अरुण पांडे ने फोन किया था आने के लिए… वो तो बाद में पता चला कि यह कार्यक्रम एनडीटीवी का काउंटर करने के लिए किया जा रहा है… लेकिन वो लोग ऐसा कर नहीं पाए। सारा एजेंडा डिफ्यूज़ हो गया। यहां तक कि राहुल देव भी काफी अच्छा बोले।”
पत्रकार राहुल देव भारतीय जनता पार्टी की एनडीए सरकार के प्रति नरम माने जाते रहे हैं और हाल ही में उन्हें एक बड़ा सरकारी पुरस्कार भी मिला है। अलबत्ता अपने वक्तव्य की बारी आने पर उन्होंने साफ़ कहा कि उनसे जो अपेक्षा की जा रही है, वो वैसा नहीं बोलेंगे। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि मीडिया की आज़ादी तभी कायम रह सकती है जब असहमति पर कोई पाबंदी न हो। इस बात पर उन्होंने निराशा जतायी कि देश में राष्ट्रवादी और अराष्ट्रवादी का विभाजन बना दिया गया है।
कार्यक्रम में रामकृपाल सिंह और कमर वहीद नक़वी को आना था लेकिन वे नहीं आए। उसके बजाय अचानक भारतीय जनसंचार संस्थान के निदेशक केजी सुरेश को लाकर बैठा दिया गया जिनका नाम निमंत्रण पर छपे आमंत्रित वक्ताओं में नहीं था। सुरेश को पहली बार सार्वजनिक रूप से आइआइएमसी पर हुए विवादों पर अपना पक्ष रखने का मौका मिला था, सो वे खुलकर बोले और उन्होंने संस्थान से जुड़े कुछ हालिया विवादों के संदर्भ में ”एक्टिविस्ट ब्रिगेड” को जमकर खरी-खोटी सुनाई। अपने अध्यक्षीय भाषण में वेदप्रताप वैदिक ने इस पर चुटकी लेते हुए उन्हें संबोधित कर के बताया कि कैसे इसी प्रेस क्लब में इमरजेंसी लगने के बाद उसके खिलाफ पत्रकारों का सम्मेलन हुआ था और प्रस्ताव पर सबसे पहले उन्होंने और दिवंगत प्रभाष जोशी ने दस्तखत किए थे। इस घटना के माध्यम से उन्होंने सुरेश को संबोधित करते हुए कहा कि एक्टिविस्ट वे भी रहे हैं और इसमें कोई बुराई नहीं है। सुरेश का हालांकि इस बात पर ज़ोर था कि पत्रकार को एक्टिविस्ट नहीं होना चाहिए। दोनों में से किसी एक को ही चुनना होगा।
केजी सुरेश के मुखर वक्तव्य पर वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्त ने भी चुटकी ली और बस्तर के पूर्व आइजी एसआरपी कल्लूरी को आइआइएमसी में बुलाए जाने के प्रकरण पर कहा कि सुरेश को अब हुर्रियत और नक्सल से भी कुछ लोगों को संस्थान में बुलाना चाहिए। इस सुझाव पर केजी सुरेश चुपचाप अपना सिर हिलाते रहे।
अध्यक्षीय वक्तव्य से पहले रामबहादुर राय ने बहुत व्यवस्थित तरीके से कुछ सुझाव रखे और इन्हें सरकार के पास मीडिया मंच के माध्यम से भेजे जाने की बात कही। उन्होंने एक प्रेस आयोग गठित करने पर ज़ोर दिया ताकि मीडिया की वस्तुस्थिति का अध्ययन किया जा सके। इसके अलावा उन्होंने संपादक की संस्था के पुनरोद्धार पर भी ज़ोर दिया। एनके सिंह द्वारा मीडिया में स्वनियमन की बात का जवाब देते हुए रामबहादुर राय ने उनसे कहा कि ”आप नियमन के लिए तैयार हो जाइए, हम नियंत्रण के खिलाफ़ खड़े हो जाएंगे।”
राय ने साफ़ कहा कि वहां बैठे सभी पत्रकार अपने संस्थानों का प्रतिनिधित्व नहीं करने आए हैं बल्कि निजी क्षमता में पत्रकार के बतौर मीडिया की आज़ादी पर बोल रहे हैं। यह बात अलग है कि उसके पहले केजी सुरेश अपने पूरे वक्तव्य में अपने संस्थान की ओर से ही बोलते रहे और अपना बचाव करते रहे। इस पूरी चर्चा में सुरेश की स्थिति इसीलिए और हास्यास्पद हो गई।
वेदप्रताप वैदिक ने अंत में पत्रकारों को निडर रहकर पत्रकारिता करने की सलाह दी। उन्होंने कहा, ”इसी दिल्ली में नया इंडिया नाम का अखबार भी निकल रहा है जिसमें मैं और हरिशंकर व्यास खुलकर लिख रहे हैं। है किसी की हिम्मत कि कुछ बोल दे।” उन्होंने साफ़ कहा कि अब किसी भी सरकार की हिम्मत नहीं है कि वह दोबारा इमरजेंसी लगा दे, इसलिए पत्रकारों को डरने की ज़रूरत नहीं है।
इस पूरे आयोजन में सबसे उहापोह वाली स्थिति संचालक राकेश योगी की रही जो बार-बार बातचीत को राष्ट्रवाद पर लाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन किसी भी वक्ता ने उस पर बात करने की ज़रूरत नहीं समझी। इसके उलट अनिल चमडि़या और जयशंकर गुप्त ने राष्ट्रवाद को लताड़ा। गुप्त ने कहा कि उनके समय पत्रकारिता में तीन ‘आर’ का फॉर्मूला चलता था जिसमें अब चौथा ‘आर’ जुड़ गया है राष्ट्रवाद। उनके बाद संचालक ने यह कह कर थोड़ा विवाद पैदा करने की कोशिश की कि आखिर राष्ट्रवाद और भगवा को बुरा क्यों समझा जाता है, लेकिन अगले वक्ता रामबहादुर राय ने इस बात पर कोई तवज्जो ही नहीं दी। उन्होंने शुरुआत में ही कह दिया कि पत्रकारिता का उनके लिए मतलब है खुल कर पढ़ना, लिखना और बोलना।
रामबहादुर राय ने कुछ प्रस्ताव बनाकर सरकार को भेजने की जो बात कही थी, उसे लेकर अधिकतर वक्ताओं में निजी तौर पर हताशा थी। राहुल देव ने कार्यक्रम के बाद निजी बातचीत में मीडियाविजिल से साफ़ कहा कि अगर इस सरकार को कोई सिफारिश भेजी भी गई तो यह सरकार उस पर कुछ नहीं करेगी।
कुल मिलाकर दो बातें इस आयोजन से बहुत साफ़ थीं। पहली, यह कार्यक्रम एनडीटीवी का काउंटर पेश करने के लिए रखा गया था जिसमें यह पूरी तरह नाकाम रहा क्योंकि किसी भी वक्ता ने एनडीटीवी पर कुछ भी खास नहीं कहा। दूसरे, पूरे कार्यक्रम का स्वर और वक्ताओं की मिश्रित संरचना ने मौजूद श्रोताओं और पत्रकारों में ऐसा आभास दिया कि हिंदी के पत्रकार देर से ही सही, लेकिन मीडिया की आजादी के मसले पर जागे हैं और यह अच्छी बात है। जिन वक्ताओं से कार्यक्रम के आयोजक और एजेंडे को चालाकी से छुपाकर बोलने बुला लिया गया था, वे भी इस बात से संतुष्ट दिखे कि परिचर्चा आयोजकों के एजेंडे का शिकार नहीं बनी बल्कि स्वस्थ बातचीत हुई।