अभिषेक श्रीवास्तव
क्या खूब एक शायर ने कहा था, ”बहुत दिनों से इस मौसम को बदल रहे हैं लोग/अलग-अलग खेमों में बंटकर निकल रहे हैं लोग”। बीते मंगलवार को दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस पर ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं, जहां एक बार फिर से देश में भ्रष्टाचार को कम करने के नाम पर एक पुरानी तरकीब नए जामे में सुझायी गई।
वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण, पूर्व न्यायाधीश जस्टिस ए.पी. शाह, ईएएस सरमा, सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय समेत कुछ गणमान्य लोगों ने एक समूह की शुरुआत का एलान 7 फरवरी को दिल्ली में किया जिसका नाम है सिटिज़ंस विसिलब्लोअर फोरम। इस समूह में कोई भी व्यक्ति भ्रष्टाचार से संबंधित अपनी शिकायत दर्ज करवा सकता है। मामले के आधार पर फोरम उसे उपयुक्त एजेंसियों के साथ उठाएगा।
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इस देश में पिछले छह-सात साल से मुख्यधारा का राजनीतिक विमर्श भ्रष्टाचार के इर्द-गिर्द शक्ल लेता रहा है। कायदे से इसकी शुरुआत देखी जाए तो सूचना के अधिकार (आरटीआइ) संबंधी कानून को पारित करवाने के प्रयासों से मानी जा सकती है जिसमें एमकेएसएस की अरुणा रॉय की केंद्रीय भूमिका रही। उनके काम को दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने आगे बढ़ाया, आरटीआइ के नाम पर मैग्सेसे पुरस्कार जीता और भ्रष्टाचार विरोध के नारे के साथ दिल्ली में अपनी सरकार बनाई।
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने से काफी पहले टीम अन्ना ने, जिसके प्रशांत भूषण भी सदस्य हुआ करते थे, विसिलब्लोअर कानून को लागू करने के लिए उसे अपने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का हिस्सा बनाया था। भारत की संसद ने विसिब्लोअर कानून 2011 में ही पारित कर दिया था और 2014 में इसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिल चुकी थी। इसके बावजूद आज तक यह कानून लागू नहीं हो सका।
पिछले तीन साल से इस पर कायम चुप्पी का नतीजा यह हुआ कि संजीव चतुर्वेदी और अशोक खेमका व आनंद राय जैसे कई ईमानदार सरकारी अफ़सरों को उत्पीड़न झेलना पड़ा। दरअसल, सिटिज़ंस फोरम के गठन के पीछे की दलील यही है कि सरकार में कोई भी विश्वसनीय एजेंसी मौजूद नहीं है जहां शिकायत दर्ज करवाई जा सके।
इस सिलसिले में यह पता करने की कभी कोशिश नहीं की गई कि केंद्रीय सतर्कता आयोग की वेबसाइट पर दाहिने हाशिये में ”सिटिज़ंस कॉर्नर” के नाम से जो खंड मौजूद है, वहां विसिलब्लोअर की शिकायतों का अब तक का ट्रैक रिकॉर्ड क्या रहा है। अव्वल तो यह बात पूरी तरह गलत है कि सरकार में कोई एजेंसी नहीं है जहां शिकायतें दर्ज करवाई जा सकें क्योंकि आयोग ऐसी सुविधा बेशक देता है।
”विसिलब्लोअर कमप्लेंट” के नाम से सतर्कता आयोग की वेबसाइट पर जो लिंक है, उसमें पब्लिक इंटरेस्ट डिसक्लोज़र एंड प्रोटेक्शन ऑफ इनफॉर्मर (पीआइडीपीआइ) संकल्प के अंतर्गत विसिलब्लोअर शिकायतों को दर्ज करवाने की समूची प्रक्रिया दी हुई है। इस संदर्भ में 17.05.2004 की तारीख का ऑफिस ऑर्डर संख्या 33/5/2004 भी वहां मौजूद है जिसे सार्वजनिक नोटिस के रूप में आयोग द्वारा जारी किया गया था। इसके अलावा 03.09.2013 को जारी डीओपीटी का निर्देश भी है जिसे 29.08.2013 को गजेट अधिसूचना के रूप में जारी किया गया।
इसका मतलब यह है कि भारत सरकार ने भले अब तक विसिलब्लोअर कानून न लागू किया हो, लेकिन उसने केंद्रीय सतर्कता आयोग को बेशक एक ऐसी संस्था की मान्यता दी हुई है जो सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद लिए गए पीआइडीपीआइ रिजॉल्यूशन के तहत शिकायतें लेने के लिए एक विश्वसनीय केंद्रीय एजेंसी का काम करेगा। फिर विसिलब्लोअर सिटिज़ंस फोरम को गठित करने का क्या औचित्य रह जाता है?
दिलचस्प है कि जिन लोगों ने भी भ्रष्टाचार विरोध को मुद्दा बनाकर आज से छह साल पहले आम आदमी के नाम पर आंदोलन खड़ा किया था, वे लोकपाल और विसिलब्लोअर के अपने वादे को आज पूरी तरह भुला चुके हैं। कानून अगर लागू नहीं हुआ है तो उसमें अकेले भारत सरकार का दोष नहीं है बल्कि उन सभी लोगों का है जो इसमें पक्षकार थे। जाहिर है इस मामले में सबसे बड़े दोषी अरविंद केजरीवाल हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए बनाई जाने वाली संस्थाओं के मामले में जनता के साथ वादाखिलाफी की है।
अरुणा रॉय तो बहुत पहले अरविंद केजरीवाल के लोकपाल आंदोलन से अलग हो चुकी थीं। कह सकते हैं कि वे कभी इस आंदोलन का सक्रिय हिस्सा भी नहीं रहीं क्योंकि केजरीवाल का लोकपाल ड्राफ्ट ही उनके लिए एक बड़ा झटका था। सितंबर 2011 में ही दोनों के बीच एनसीपीआरआइ और केजरीवाल के लोकपाल मसविदे के मसले पर फांक पड़ चुकी थी। प्रशांत भूषण और एडमिरल रामदास न केवल अन्ना आंदोलन बल्कि आम आदमी पार्टी का अहम हिस्सा थे जिन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी से अलग होना पड़ा। योगेंद्र यादव का भी यही हश्र हुआ। इसके बाद योगेंद्र यादव ने स्वराज आंदोलन और स्वराज पार्टी नाम से अपना अलग ठिकाना बना लिया। कांग्रेस की सरकार केंद्र से जाने के बाद अरुणा रॉय ने खुद को अध्यापन और अपने संगठन पर केंद्रित कर लिया।
ऐसा लग रहा था कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद सभी अपने-अपने सुरक्षित ठिकानों में कैद हो चुके हैं, लेकिन अचानक तीन साल बाद एक बार फिर विसिलब्लोअर कानून की याद आना और पुराने लोगों की ओर से एक नया फोरम बनाया जाना कई सवाल खड़े करता है।
मसलन, इस फोरम में वजाहत हबीबुल्ला भी शामिल हैं जो यूपीए के कार्यकाल में भारत के पहले मुख्य सूचना आयुक्त थे और उस वक्त कई विवादों में भी घिरे रहे। उसमें एक बड़ा विवाद जम्मू और कश्मीर पर आया उनका बयान था कि समस्या के हल के लिए अमेरिका को इसमें दखल देना चाहिए। उनका अरुणा रॉय और सूचना के अधिकार आंदोलन में शामिल सिविल सोसायटी के पुराने सदस्यों से पुराना संबंध है। अरुणा रॉय खुद सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य रह चुकी हैं। एडमिरल रामदास एक असरदार शख्सियत हैं। इन सब के अलावा जगदीप सिंह छोकर भी इसमें शामिल हैं जो चुनाव सुधार पर केंद्रित संस्था असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स से जुड़े हैं।
इन तमाम पुराने दिग्गजों का लोकपाल और विसिलब्लोअर कानून के मुद्दे पर साथ आना इसलिए भी दिलचस्प हो जाता है क्योंकि फोरम के बाहर रह कर योगेंद्र यादव अपनी स्वराज पार्टी के माध्यम से इन्हें राजनीतिक ताकत देने का काम करेंगे। स्वराज पार्टी के मीडिया प्रकोष्ठ के माध्यम से फोरम की प्रेस कॉन्फ्रेंस की सूचना काफी प्रमुखता से दी गई और कॉन्फ्रेंस खत्म हो जाने के बाद पूरी प्रेस विज्ञप्ति व तस्वीरों को भी जारी किया गया। प्रशांत भूषण खुद स्वराज आंदोलन से जुड़े हुए हैं, लिहाजा स्वराज पार्टी और फोरम के बीच संबंध को आसानी से समझा जा सकता है।
इस संदर्भ में एक बात और याद दिलाए जाने लायक हैं कि दिल्ली में जब पहली बार आम आदमी पार्टी ने चुनाव लड़ा था और कांग्रेस के साथ मिलकर करीब डेढ़ महीने की सरकार बनाई थी, तो कांग्रेस पार्टी के साथ अरविंद केजरीवाल का समझौता करवाने में योगेंद्र यादव के पुराने कांग्रेसी संपर्क काम आए थे और उन्होंने इसमें केंद्रीय भूमिका निभाई थी। जाहिर है, योगेंद्र यादव के कांग्रेस के साथ अच्छे संपर्क रहे हैं और कांग्रेसी राज में वे तमाम कमेटियों व आयोगों में शामिल भी रहे हैं।
सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार विरोध के जिस नारे के साथ आम आदमी पार्टी ने 2014 में केंद्र से कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया, क्या उसी नारे का दुधारी तलवार की तरह इस्तेमाल अब कांग्रेस के पक्ष में किए जाने की तैयारी हो रही है? योगेंद्र यादव की तेजी से उभरती राजनीतिक पार्टी, सहारा-बिड़ला डायरी के सहारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अड़े प्रशांत भूषण की कानूनी ताकत, सोनिया गांधी से करीबी राबिता रखने वाली अरुणा रॉय की सामाजिक ताकत, एडमिरल रामदास का विदेशी नेटवर्कों में तगड़ा संपर्क और जगदीप चोकर की जबरदस्त शोध टीम मिलकर क्या कांग्रेस विसिलब्लोअर सिटिज़ंस फोरम के बहाने 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस की बी-टीम तैयार करने में जुटी है?
प्रेस क्लब में 7 फरवरी को हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस को अखबारों में केवल सूचना के लिहाज से कुछ जगह मिली होगी, लेकिन इसके राजनीतिक आयाम दूरगामी हो सकते हैं। जिस भ्रष्टाचार विरोध ने कांग्रेस को देश के परिदृश्य पर नाम मात्र का रख छोड़ा है, बहुत संभव है कि वही नारा इस बार कांग्रेस के लिए संकटमोचक बनकर काम आ जाए।
देश में सत्तर साल से कायम भ्रष्ट मौसम का मिजाज़ बदले न बदले, लेकिन सत्ता की सियासत में बन रहे नित नए खेमों के पास मौसम बदलने के अलावा और कोई नया नारा नहीं बचा है।