दिल्ली हाईकोर्ट से सफूरा ज़रगर को ज़मानत, अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों का भी सरकार पर दबाव

मयंक सक्सेना मयंक सक्सेना
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दिल्ली दंगों के मामले में, दिल्ली पुलिस की अंधाधुंध गिरफ्तारियों के दौरान गिरफ्तार की गई जामिया मिलिया इस्लामिया यूनीवर्सिटी की छात्रा सफ़ूरा ज़रगर को – दिल्ली हाई कोर्ट से आखिरकार ज़मानत मिल गई है। दिल्ली सांप्रादायिक हिंसा से जुड़े केस में दिल्ली पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी की थी। इन मामलों में दिल्ली पुलिस ने अधिकतर, सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन से जुड़े एक्टिविस्ट्स और छात्रों पर ही केस दर्ज किए हैं। सफ़ूरा को ये ज़मानत मानवीय आधार पर मिली है। इसका केंद्र सरकार ने भी अदालत में विरोध नहीं किया, क्योंकि सफ़ूरा 23 हफ्ते की गर्भवती हैं और सोशल मीडिया समेत, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया और मानवाधिकार संगठनों की ओर से भी उनकी बेल को लेकर लगातार मांग उठ रही थी।

क्या हुआ अदालत में

सफ़ूरा की बेल की ये सुनवाई, वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए हुई। इसमें जस्टिस राजीव शकधर ने फैसले में कहा कि 23 सप्ताह की गर्भवती सफूरा को 10 हजार रुपये का निजी मुचलका और इतनी ही राशि की जमानत पेश करने के बाद रिहा कर दिया जाए। इसके पहले सफ़ूरा की ओर से वकील नित्या रामकृष्णन ने सोमवार की सुनवाई में अदालत से अपील की थी कि वे नाजुक हालात में हैं। चार महीने से अधिक की गर्भवती सफ़ूरा की याचिका पर पुलिस लगातार जवाब देने के लिए और वक़्त चाहती है – अदालत को सफ़ूरा को अंतरिम ज़मानत देनी चाहिए।

सफ़ूरा ज़रगर की तस्वीर (उनके फेसबुक अकाउंट से)

इस पर अदालत ने जब दिल्ली पुलिस का पक्ष जानना चाहा, तो सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मानवीय आधार पर ज़मानत का विरोध नहीं किया। दिल्ली पुलिस की ओर से अदालत में मेहता ने कहा कि सफूरा को मानवीय आधार पर नियमित जमानत दी जा सकती है। ये फैसला मामले के तथ्यों के आधार पर न लिया जाए और न ही इसे उदाहरण बनाया जाए।

इसके बाद, सफ़ूरा की ज़मानत की अनुमति देते हुए अदालत ने कहा कि सफूरा ज़मानत की अवधि में मामले से जुड़ी किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होंगी, जांच या गवाहों को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करेंगी और वे फिलहाल दिल्ली छोड़कर नहीं जा सकती हैं।

अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों का भी दबाव 

दरअसल इस मामले में सरकार के ऊपर अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों का भी दबाव था। दुनिया भर के देशों में इस मामले की चर्चा थी और तमाम अंतर्राष्ट्रीय संगठन ही नहीं – कई देशों ने भी इस मामले पर सवाल करने शुरु कर दिए थे। अमेरिक बार एसोसिएशन के सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स, ने हाल ही में कहा है था सफूरा जरगर का प्री-ट्रायल डिटेंशन – अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मानकों के मुताबिक नहीं है। दरअसल ये वो संधियां हैं, जिनमें भारत स्टेट पार्टी है या फिर भारत ने भी अंतर्राष्ट्रीय नियमों पर हस्ताक्षर किए हैं। 13 जून के इस बयान में कहा गया था,

“अंतरराष्ट्रीय कानून, जिनमें वो संधियां भी हैं, जिनमें भारत स्टेट पार्टी है – केवल असाधारण परिस्थितियों में प्री-ट्रायल कस्टडी की अनुमति देता है। सुश्री ज़रगर का मामला ऐसा नहीं है। इंटरनेशनल कोवनंट ऑफ सिविल एंड पॉलिटिकल राइट (ICCPR) कहता है कि “यह सामान्य नियम नहीं होना चाहिए कि ट्रायल का इंतजार कर रहे व्यक्तियों को हिरासत में रखा जाएगा।”

इसी बयान में आगे अमेरिकी बार एसोसिएशन की ओर से कहा गया,

“भले ही सुश्री जरगर की हिरासत सामान्य परिस्थिति में उचित ठहरा दी गई होती, लेकिन उनकी गर्भावस्था और कोरोनवायरस के ख़तरे को देखते हुए, मौजूदा हालात में यह ठीक नहीं है। महिला कैदियों से व्यवहार के लिए संयुक्त राष्ट्र के नियम और महिला अपराधियों के लिए नॉन-कस्टोडियल तरीके (बैंकॉक नियमों) का के मुताबिक प्री-ट्रायल के दौरान गर्भवती महिलाओं के लिए नॉन-कस्टोडियल तरीकों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए”

ज़ाहिर है कि ऐसे में सरकार पर एक तरह से इन अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों को मानने का दबाव तो है ही, क्योंकि भारत इन सारे अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों में हस्ताक्षरकर्ता है। ऐसे में हर वो देश, जो इन संधियों में पार्टी है – वो इनको मानने को बाध्य है। इसके अलावा, दिल्ली पुलिस ने अभी तक अदालत में आरोपों का तो ढेर लगा दिया है, लेकिन कोई ठोस साक्ष्य नहीं रखा है। तो दिल्ली पुलिस का केंद्र सरकार के लिए लंबे वक्त तक ये ज़मानत लटकाए रखना आसान नहीं है। हां, उसे कोरोना के संकट का सहारा ज़रूर मिल रहा है।


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